केरल में इस समय कोरोना के सबसे ज्यादा केस हैं। वहां संक्रमण की दर दस फीसदी है और उत्तर प्रदेश में दशमलव दो फीसदी। केरल में रोज दस हजार नए मामले आ रहे हैं और उत्तर प्रदेश में सौ भी नहीं। पूरे देश को उम्मीद थी कि बस अभी सुप्रीम कोर्ट स्वत: संज्ञान लेगा और केरल सरकार को रोकेगा। किसी ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की और सारे तथ्य रखे। सुप्रीम कोर्ट ने केरल सरकार से जवाब मांगा जो सोमवार देर रात आया। कहा गया कि व्यापारियों के दबाव में आदेश दिया। सवाल है कि फिर सबरीमाला में दर्शन की छूट क्यों दी? सुप्रीम कोर्ट ने 20 जुलाई को सरकार को लताड़ तो लगाई, पर आदेश रद नहीं किया, क्योंकि उसकी मियाद उसी दिन पूरी हो रही थी।
मकसद इस मुद्दे के कानूनी पहलुओं पर टिप्पणी करने का नहीं है। सवाल अलग-अलग रवैये से बनने वाली आम धारणा का है। कहते हैं न्याय होना ही नहीं चाहिए, होते हुए दिखना भी चाहिए। ऐसा बार-बार क्यों होता है कि अदालतें हिंदू त्योहारों के प्रति एक रवैया अपनाती हैं और दूसरे त्योहारों के प्रति दूसरा? इसी से लोगों के मन में सवाल उठता है कि क्या देश में दो विधान हैं। यदि नहीं तो फिर ऐसा क्यों होता है कि एक ही कानून की जो व्याख्या हिंदुओं के मामले में प्रस्तुत की जाती है, वह दूसरे पंथों के मामले में बदल जाती है? ऐसा लगता है कि कानून के व्याख्याकार भी अपने को सेक्युलर कहने वाले दलों की ही तरह सोचते हैं। ये दल और इनके नेता हिंदुओं के खिलाफ किसी भी हद तक जाने को तैयार रहते हैं। कभी भगवा आतंकवाद तो कभी सांप्रदायिक हिंसा विरोधी विधेयक के जरिये कहा जाता है कि दंगा होने पर हिंदू ही आरोपी होंगे और उन्हें ही साबित करना होगा कि वे निर्दोष हैं। क्या इन दलों को हिंदुओं के वोट की जरूरत नहीं? मुसलमान मतदाताओं को लुभाने के लिए क्या हिंदुओं का विरोध जरूरी है? पता नहीं पर हो तो ऐसा ही रहा है। नेता ऐसा क्यों करते हैं? अदालतें और सरकारें ऐसा क्यों करती हैं? उसकी वजह इन सबको अच्छी तरह से पता है। इस सच्चाई को जानकर ही राजनीतिक दल और नेता हिंदुओं को अपमानित भी करते हैं और वोट भी लेते हैं, क्योंकि हिंदू कभी हिंदू की तरह नहीं सोचता। वह अपनी धाॢमक अस्मिता पर जातीय अस्मिता को वरीयता देता है। वह सामान्य तौर पर जातीय पहचान के अनुरूप ही आचरण करता है। हिंदुओं के मन में अपने धर्म के प्रति एक तरह की उदासीनता का भाव है। उन्हें जाति चले जाने का जैसा दर्द या डर होता है, वैसा धर्म के चले जाने से नहीं होता। जाति से लगाव है, धर्म सामाजिकता है। जाति से प्रेम करते हैं और धर्म का निर्वाह। मुसलमान इसके ठीक उलट है। उनके लिए धर्म पर खतरा अस्तित्व पर खतरा है। वह संगठन की शक्ति को पहचानता है। इसलिए वह समाज, सरकार से लेकर न्यायालय तक ज्यादा प्रभावी है। इसलिए अदालत भी उनके बारे में किसी विषय पर विचार करते हुए यह तसल्ली कर लेना चाहती है कि इस मुद्दे पर शरिया या इस्लाम में क्या कहा गया है? संविधान की नजर में सारे नागरिक बराबर हैं, पर दोनों समुदायों के लिए उसी संविधान के प्रविधानों की व्याख्या अलग-अलग की जाती है। हिंदुओं के रीति-रिवाज पर्यावरण और लोगों की सुविधा- असुविधा की कसौटी पर कसे जाते हैं। बाकियों के रीति-रिवाज, त्योहार उनकी धाॢमक मान्यताओं की कसौटी पर। यह इस देश का न्यू नार्मल हो गया है। हमने स्वीकार कर लिया है कि यही वास्तविकता है और इसे बदला नहीं जा सकता। देश की सर्वोच्च अदालत भी हिंदुओं के बारे में कोई फैसला देती है तो संविधान की नाक की सीध में चलती है। जैसे ही मुसलमानों का मामला आता है, जज साहबान कुर्सी पर कसमसाने लगते हैं कि इस फैसले का असर क्या होगा?
भाजपा को हिंदुत्ववादी कहा जाता है। उसका मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारतीय संस्कृति की बात करता है। हिंदू संस्कृति बोलने से बचता है। हिंदू या सनातन संस्कृति ही भारतीय संस्कृति है, यह कहना पोलिटिकली करेक्ट नहीं माना जाता। भाजपा को भी वोट हिंदू के नाम पर नहीं मिलता। उसे भी जातियों का गणित बिठाना पड़ता है। धर्म आत्मा है और राजनीति शरीर, यह बात जब तक सनातन धर्म को मानने वालों की समझ में नहीं आएगी तब तक पिटते और पिछड़ते रहेंगे।