श्राद्ध पक्ष: पीढ़ियों का द्वंद्व और हमारे बुजुर्ग
यदि कभी प्यार से वह हमें हल्की चपत लगा दें, तो समझो हम निहाल हो गए। लेकिन हमारे देश में वृद्धाश्रमों की लगातार बढ़ती संख्या इस बात की परिचायक है कि बुजुर्ग हमारे लिए उपेक्षित और अवांछित हो गए हैं। यह ठीक नहीं है।
श्राद्ध पक्ष चल रहा है। हमें वे बुजुर्ग याद आ रहे हैं, जिनकी उंगली थामकर हम जीवन की राहों में आगे बढ़े। उनकी प्रेरणा से आज हम बहुत आगे बढ़ गए हैं, लेकिन हमारी इस प्रगति को देखने के लिए आज वे हमारे बीच नहीं हैं। घर के किसी कोने पर या मुख्य स्थान पर उनकी तस्वीर पर रोज बदलती माला हमें कुछ बताती है।
देश में साठ वर्ष से अधिक उम्र के बुजुर्ग लोगों की आबादी करीब 13.8 करोड़ है। राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय की 2021 की रिपोर्ट बताती है कि अगले एक दशक में यानी 2031 में उनकी आबादी 41 फीसदी वृद्धि के साथ 19.4 करोड़ हो जाएगी। ऐसे में देश में लगातार बढ़ रही वृद्धाश्रमों की संख्या यह बताती है कि बुजुर्ग अब हमारे लिए 'अवांछित' हो गए हैं। उन्हें हमारी जरूरत हो या न हो, पर हमें उनकी जरूरत नहीं है। बार-बार हमें टोकते रहते हैं, वे हमें अच्छे नहीं लगते। हम स्वतंत्रता चाहते हैं, इसलिए हमने उन्हें अपनी मर्जी से जीने के लिए वृद्धाश्रमों में छोड़ दिया।
वसुधैव कुटुम्बकम् की अवधारणा खंडित हो चुकी है। एकल परिवार बढ़ रहे हैं, ऐसे परिवार में एक बुजुर्ग की उपस्थिति आज हमें खटकने लगती है, वजह साफ है, वे अपनी परंपराओं को छोड़ना नहीं चाहते और हम हैं कि परंपराओं को तोड़ना चाहते हैं। पीढ़ियों का द्वंद्व सामने आता है और झुर्रियां हाशिये पर चली जाती हैं। इसकी वजह भी हम हैं। हम कोई भी फैसला लेते हैं, तो उनसे राय-मशविरा नहीं करते। इससे उस पोपले मुंह के अहं को चोट पहुंचती है। उस वक्त हमें उनकी वेदना का आभास भी नहीं होता।
यह बात अलग है कि अब स्वयं बुजुर्ग भी कई रूढ़िवादी परंपराओं को त्यागकर मंदिर जाने के लिए नाती या पोते की बाइक पर पीछे निश्चिंत होकर बैठ जाते हैं। यह उनकी अपनी आधुनिकता है, जिसे उन्होंने सहज स्वीकारा है। पर जब वह देखते हैं कि कम वेतन पाने वाले पुत्र के पास ऐशो-आराम की तमाम चीजें मौजूद हैं, धन की कोई कमी नहीं है, तो वे आशंका से घिर जाते हैं।
पुत्र को समझाते हैं- बेटा! घर में मेहनत की कमाई के अलावा दूसरे तरीके से धन आता है, तो वह गलत है। पर पुत्र को उनकी सलाह नागवार गुजरती है। कुछ समय बाद जब वह धन बोलता है और उसके परिणाम सामने आते हैं, तब उसके पास रोने या पश्चाताप करने के लिए किसी बुजुर्ग का कंधा नहीं होता।
बुजुर्ग हमारी धरोहर हैं, अनुभवों का चलता-फिरता संग्रहालय हैं। उनके पोपले मुंह से आशीर्वाद के शब्दों को फूटते देखा है कभी आपने? उनकी खल्वाट में कई योजनाएं हैं। दादी मां का केवल 'बेटा' कह देना हमें उपकृत कर जाता है, हम कृतार्थ हो जाते हैं। यदि कभी प्यार से वह हमें हल्की चपत लगा दें, तो समझो हम निहाल हो गए। लेकिन हमारे देश में वृद्धाश्रमों की लगातार बढ़ती संख्या इस बात की परिचायक है कि बुजुर्ग हमारे लिए उपेक्षित और अवांछित हो गए हैं। यह ठीक नहीं है।