कांग्रेस की गिरती साख और गांधी परिवार के संकट के बीच शरद पवार 2024 में पीएम बनने की ताक में हैं?
राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के संस्थापक शरद पवार राजनीति के पुराने और चतुर खिलाड़ी हैं
अजय झा.
राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (NCP) के संस्थापक शरद पवार (Sharad Pawar) राजनीति के पुराने और चतुर खिलाड़ी हैं, जिनमें लोहा गर्म होने पर हथौड़ा मारने की अद्भुत काबिलियत है. बंटे हुए विपक्ष के दुर्भाग्यपूर्ण प्रदर्शन से ज्यादा गर्म और कुछ हो भी नहीं सकता, विशेष तौर पर देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस (Congress) में, जिसमें वे 1999 तक खुद शामिल थे, कांग्रेस ने हाल में एक बार फिर अपने खराब प्रदर्शन को दोहराया और पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में उसके लिए निराशाजनक परिणाम रहे.
कांग्रेस पार्टी पूरी तरह से अस्त-व्यस्त है और कांग्रेस पार्टी के भीतर अध्यक्ष सोनिया गांधी और उनके दो बच्चों – राहुल गांधी और प्रियंका गांधी – के नेतृत्व की गुणवत्ता पर सवाल उठाए जा रहे हैं. जहां गांधी परिवार पार्टी में अपने पदों और शायद भारतीय राजनीति में अपने अस्तित्व को बचाने की कोशिश कर रहा है, उन पर प्रहार करने के लिए इससे अधिक सही समय नहीं हो सकता था. चुनाव परिणाम घोषित हुए बमुश्किल तीन सप्ताह बीत चुके हैं कि एनसीपी हाल में अपनी एक अलग नैरेटिव लेकर सामने आई. पार्टी ने यह सुझाव दिया कि चूंकि कांग्रेस पार्टी एक बड़े संकट का सामना कर रही है, इसलिए संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) – जिसने 2004 और 2014 के बीच एक दशक तक देश पर शासन किया – की कमान अब एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार को सौंप देनी चाहिए.
यूपीए एक मरा हुआ घोड़ा है
मंगलवार को पवार की मौजूदगी में एनसीपी की युवा शाखा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में इस संबंध में एक प्रस्ताव पेश करके पारित किया गया. सोनिया गांधी को यूपीए की बागडोर पवार को सौंपने की मांग का शिवसेना ने समर्थन किया. हालांकि, एक दिन बाद, एनसीपी ने एक आधिकारिक स्पष्टीकरण दिया कि यह पार्टी का आधिकारिक रुख नहीं था और यह प्रस्ताव एक उत्साही कार्यकर्ता द्वारा पेश किया गया था. ऐसा कोई प्रस्ताव अगर एकांत में लाया और पारित किया जाता तो फिर भी बात समझ में आ सकती थी. लेकिन यह सब कुछ तो खुद पवार के सामने हुआ और उन्होंने तब चुप्पी साध रखी थी. राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी पवार ने शायद यह दांव इसलिए चला होगा, ताकि वे इस पर अन्य दल की प्रतिक्रिया जान सकें.
इस बात में अब किसी प्रकार का संदेह नहीं है कि यूपीए एक मरा हुआ घोड़ा है, जिसे केवल राष्ट्रीय चुनावों के दौरान ही कोड़े मारे जाते हैं और फिर से जीवंत किया जाता है. अब इसके सरपट दौड़ने की उम्मीद नहीं है, 2014 में यूपीए के सत्ता से बाहर होने के बाद से, पिछले आठ वर्षों के दौरान कांग्रेस पार्टी एक के बाद एक हार के साथ खत्म होती जा रही है. कांग्रेस पार्टी को केवल दो राज्यों तक सिमट चुकी है और गांधी परिवार डेथ वारंट को पढ़ने का इच्छुक नहीं दिख रहा है. ऐसे में यूपीए को अगले दो वर्षों के भीतर खुद को दोबारा खड़ा कर, 2024 के आम चुनावों में भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए से सत्ता छीनने के लिए चमत्कार से भी कुछ ज्यादा की जरूरत पड़ेगी.
तथ्य यह है कि अधिकांश क्षेत्रीय शक्तियां यूपीए का हिस्सा नहीं हैं. सत्ता से बाहर होने के बाद से शिवसेना को छोड़कर कोई भी पार्टी इसमें शामिल नहीं हुई है. यहां तक कि यह भी संदेहास्पद है कि शिवसेना औपचारिक रूप से यूपीए में उसके घटक के रूप में शामिल हो गई है, क्योंकि शिवसेना एमवीए (महाराष्ट्र विकास आघाडी) के बैनर के तहत महाराष्ट्र में एनसीपी और कांग्रेस पार्टी के साथ सत्ता साझा करती है. चाहे वह पश्चिम बंगाल की सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस हो या तेलंगाना की सत्तारूढ़ तेलंगाना राष्ट्र समिति, आंध्र प्रदेश की सत्तारूढ़ वाईएसआर कांग्रेस पार्टी हो या ओडिशा की सत्तारूढ़ बीजू जनता दल हो, या फिर दिल्ली और पंजाब में सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी हो, राज्यों में शासन कर रही बीजेपी की तमाम विरोधी पार्टियों ने 2024 के आम चुनावों से पहले गठबंधन बनाकर उसे चुनौती देने का कोई संकेत नहीं दिया है.
प्रधानमंत्री पद के दावेदार के तौर पर पेश होंगे शरद पवार?
इसके विपरीत, तीन मुख्यमंत्री, पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी, तेलंगाना के. के. चंद्रशेखर राव और दिल्ली के अरविंद केजरीवाल प्रधानमंत्री बनने की अपनी-अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने में लगे हैं. वे सभी अलग-अलग दिशाओं में आगे बढ़ रहे हैं, क्योंकि कांग्रेस पार्टी पीएम इन वेटिंग के तौर पर राहुल गांधी के दावे से पीछे हटने को तैयार नहीं है, जिन्हें दो बार मतदाता अस्वीकार कर चुके हैं. और इन्हीं परिस्थतियों में पुराने और बेहद चतुर शरद पवार के लिए अवसर पैदा होता है, ताकि वे सभी से अपने दोस्ताना संबंधों को इस्तेमाल कर खुद को संयुक्त विपक्ष की ओर से प्रधानमंत्री पद के दावेदार के तौर पर पेश कर सकें.
पवार के करीबी सहयोगी प्रफुल्ल पटेल ने शिवसेना के मुखपत्र सामना के लिए 2020 के अंत में लिखे एक लेख में आरोप लगाया कि एक मंडली (सोनिया गांधी के आसपास रहने वाले विश्वस्त लोग) ने दो बार पवार को प्रधानमंत्री बनने से वंचित कर दिया – पहली बार 1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद, और फिर 1996 में. "1991 में लोकसभा चुनाव के दौरान राजीव गांधी की दुर्भाग्यपूर्ण मृत्यु के बाद, कांग्रेस सदमे में थी. स्थिति को संभालने के लिए पवार को पार्टी अध्यक्ष बनाने की मांग की गई थी. हालांकि, दरबारियों की मंडली ने एक मजबूत नेता के विचार का विरोध किया और पीवी नरसिम्हा राव को पार्टी प्रमुख बनाने की योजना बनाई, " पटेल ने लिखा. राव ने 1991 में प्रधानमंत्री के रूप में पदभार संभाला था.
"1996 में, कांग्रेस ने 145 सीटें जीती थी. एचडी देवगौड़ा, लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव के साथ-साथ वामपंथी नेताओं ने कहा कि अगर पवार को पीएम बनाया गया तो वे कांग्रेस का समर्थन करेंगे, लेकिन राव नहीं माने और कांग्रेस को बाहर से देवगौड़ा का समर्थन करने के लिए मजबूर होना पड़ा. जब राव ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दिया तो उन्होंने अपने उत्तराधिकारी के रूप में सीताराम केसरी के नाम को आगे बढ़ाया ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि पवार को न चुना जाए," पटेल ने अपने लेख में यह दावा करने के साथ ही लिखा – पवार का प्रधानमंत्री बनने का सपना अब भी पूरा हो सकता है.
81 वर्ष की उम्र में भी महत्वाकांक्षा बरकरार है
यह नहीं भूलना चाहिए कि पवार ने किस तरह सितंबर 2021 में कांग्रेस पार्टी की तुलना पुराने जमींदारों से की थी. "हर सुबह वे (पुराने जमींदार) जमीन को देखते हुए उठते हैं और दावा करते हैं कि ये जमीन कभी उनकी हुआ करती थी. कांग्रेस की भी ऐसी ही सोच है. उन्हें इस वास्तविकता को स्वीकार करना चाहिए कि वह कमजोर हो गई है और अब उस हालत में नहीं है, जिसमें पहले हुआ करती थी," पवार ने एक मराठी वेब चैनल मुंबई तक के साथ एक साक्षात्कार में यह बात कही थी.
पवार भले ही 81 वर्ष के हैं, लेकिन उनकी महत्वाकांक्षा बरकरार है. उनका दिमाग हमेशा की तरह तेज चलता है. प्रधानमंत्री पद की महत्वाकांक्षा उनके भीतर लगातार पल रही है और 2024 उनके सपने के पूरा होने का आखिरी मौका हो सकता है. कांग्रेस पार्टी की साख गिरती जा रही है, ऐसे में बड़ा दांव चलने का सही समय आ गया है, गांधी परिवार गहरे संकट से जूझ रहा है और कोई भी ऐसा नेता नहीं है जो खंडित विपक्ष को एक साथ लाने में सक्षम हो. यह बताता है कि एनसीपी की युवा शाखा द्वारा पारित प्रस्ताव एक उत्साही कार्यकर्ता का काम नहीं था, बल्कि एक प्लान का हिस्सा है, जिसके जरिए यह जानने की कोशिश की जा रही है कि कौन कितने पानी में है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)