किसी भी खुशहाल समाज या देश के लिए मांगने वालों को देखना सहज नहीं। यह जानते-समझते देश की कई सरकारें गुजर गईं, लेकिन देखने के आदर्श नहीं बना पाईं। किसे देखें, किसे नजरअंदाज करें। अब कहीं जाकर सरकार को पहल करनी पड़ी ताकि देखने से जहां कहीं देश असहज हो, वहां कर लगा दिया जाए। वैसे भी देश की कर प्रणाली केवल सरकारों को सहज बनाने के लिए आम लोगों की असहजता देखती भी कहां है, सो फैसला हुआ कि सर्वप्रथम भीख मांगने वाले को देखना अब कर के दायरे में आएगा। जो भी कोई देश के भिखारियों को देख-देख कर रहम खाने की तवज्जो देना चाहता है, पहले इसके एवज में कर अदा करे। इसी तरह देश में जहां भी देख कर शर्म महसूस होने की नौबत आती, वहां देखने वालों पर कर लगा देने से यह भी बजट की कमाई का साधन हो गया। धीरे-धीरे यह सूची लंबी होने लगी और जहां कहीं भी जनता को देश अच्छा नहीं लगता, वह खुशी-खुशी कर अदा करने लगी। कर की दरें बेशर्मी की हद और गंदगी की गुंजाइश पर तय होने लगीं। गंदगी, बेशर्मी, भीख व लाचारी जैसे शब्द अब बजटीय हो गए तथा इस तरह कर उगाही से देश की छवि सुधरने लगी। इधर सरकार बेशर्मी और गंदगी के कारण कमाने लगी, उधर जनता इनसे बचने लगी।
पहली बार सरकार को मालूम हुआ कि देश भिखारियों, बेशर्मों और गंदगी फैलाने वालों के कारण इतना आत्मनिर्भर होने लगा है कि खुद सरकार को अब पता नहीं चल पा रहा कि वह इस मद में कमा कितना लेगी। सरकार जितना आयकर से नहीं कमा रही थी, उससे अधिक अब आयकर की चोरी देखने वालों पर कर लगा कर कमाने लगी। जिस किसी को इलेक्टोरल बान्ड बेशर्म लग रहे हैं, उसे अब इसके लिए कर देना पड़ रहा है। मंत्रालय इतने सतर्क हो गए कि जो कोई मुफ्त में भारत की गंदगी देख रहा था, उस पर कर लगा कर उसे देखने की काबिलीयत से दूर करने लगे। मरीज ने सरकारी अस्पताल की गंदगी देखी नहीं कि उसके तीमारदार पर कर लग गया। पहली बार नगर निकाय तसल्ली से कर इसलिए वसूलने लगे कि शहरों की गंदगी देखने वालों पर कर ठोंका जा रहा था। बेशर्मों को देखने की तो इससे भी ज्यादा कर अदायगी होने लगी, नतीजतन आम जनता को अब कहीं बेशर्म नजर नहीं आ रहे। उसके लिए बेशर्म वे हो गए, जो सत्ता में नहीं हैं। जनता समझ गई है कि अगर उसे मनोरंजन कर से मुक्त फिल्में देखनी हैं, तो क्या कुछ तथा किस हद तक की बेशर्मी चुपचाप देख लेनी चाहिए। एक समय था जब रेडियो पर अच्छी खबरें सुनने के लिए पचास रुपए का लाइसेंस लेना पड़ता था, लेकिन अब जनता मुफ्त के लिए कुछ भी सुन और चुन लेती है। वह खबरिया चैनलों की बेशर्मी, एंकरों की गंदगी को देख कर भी अनदेखा कर देती है ताकि कहीं ऐसा देखने पर भी सरकार कर ही न लगा दे। अब देश और देश के नागरिक मुफ्त में मांग कर भी शर्मिंदा नहीं होते।
नेताओं के ऊल जुलूल भाषण सुन कर भी बुरा नहीं मानते। देश अपनी शर्मिंदगी पर भी खुश है क्योंकि सरकार को इस हालत पर कर उगाहने में मजा आने लगा है। देश के अस्सी करोड़ लोग फ्री में राशन खा रहे हैं और यही देख कर जिन्हें शर्मिंदगी हुई, वही बुरा देखने के बदले इसका कर चुका रहे हैं। अब तो जनता जिस कमाई को तरस रही, जिस दिहाड़ी को तरस रही है, उसे पाने से पहले करंसी की गंदगी से डर रही है। पता नहीं किस दिन कोई नोट गंदा निकल आए और इसे देखने पर कर लगा दिया जाए। नोटबंदी के बाद हमारे कारण दो हजार का नोट बेशर्म हो गया या हमारे देखते-देखते उसकी बेशर्मी बढ़ गई कि अब सरकार को बचाने आगे आना पड़ा। महंगाई के बावजूद दो हजार का नोट सरकार ने हटा दिया, वरना इसकी बेशर्मी पर कर लग जाता। अब हम महंगाई व बेरोजगारी के मुद्दों को इसलिए अनदेखा कर रहे हैं ताकि कहीं सरकार को पता न चल जाए कि देश की इस तरह की गंदगी को भी लोग देख रहे हैं। ऐसे में जिस दिन बेशर्म महंगाई और बेरोजगारी देख ली, सरकार कर लगा देगी। सरकार अस्सी करोड़ लोगों को मुफ्त में अनाज खिला रही है और यह हमें गरीबी देखने जैसा लगा, तो भुगत रहे हैं न इसका कर। जनता होशियार हो गई है। एक ओर प्रधानमंत्री को 91 बार गाली दे दी गई और हम इसे विपक्ष की बेशर्मी नहीं मान रहे हैं। पता है क्योंकि जिस दिन प्रधानमंत्री की गाली जनता को बुरी लगी, देश इस बुराई का भी कर तो हमसे ही वसूल लेगा।
निर्मल असो
स्वतंत्र लेखक
By: divyahimachal