अभाव के स्कूल
इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है कि जिन स्कूलों में बच्चे रोजाना पढ़ने जाते हों, वहां उनके पीने के लिए साफ पानी की उपलब्धता नहीं हो।
इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है कि जिन स्कूलों में बच्चे रोजाना पढ़ने जाते हों, वहां उनके पीने के लिए साफ पानी की उपलब्धता नहीं हो। अगर आजादी के सात दशक बाद भी देश के ज्यादातर राज्यों में यही स्थिति कायम हो तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि इस मसले पर नीति-निर्माताओं और उन्हें अमल में लाने वाली संस्थाओं की कार्यशैली कैसी रही होगी। आज भी हालत यह है कि देश के केवल आठ राज्यों में ही स्कूलों में पीने के पानी की सुविधा सुनिश्चित की जा सकी है और मेघालय, त्रिपुरा, अरुणाचल प्रदेश जैसे राज्य इस अभियान में बहुत पीछे हैं।
बाकी राज्यों में भी इस मामले में स्थिति चिंताजनक है। यह तस्वीर शिक्षा, महिला, बाल विकास एवं युवा मामलों पर संसदीय समिति की एक रिपोर्ट में उभरी है। जाहिर है, यह स्थिति स्कूली शिक्षा व्यवस्था की बेहतरी के लिहाज से बेहद अफसोसनाक है। इसके मद्देनजर संसदीय समिति ने 2021-22 के अंत तक हर शैक्षणिक संस्थान में 'नल से जल मिशन' के तहत पाइप के जरिए सुरक्षित पेयजल की आपूर्ति सुनिश्चित करने की सिफारिश की है। समिति ने शिक्षा मंत्रालय से यह भी कहा है कि वह इस संबंध में ग्रामीण विकास मंत्रालय और जल शक्ति मंत्रालय के साथ समन्वय करे।
यह एक सामान्य-सा तथ्य है कि जिस स्कूल में बच्चों को पीने का साफ पानी नहीं मिले, वहां न सिर्फ उनकी पढ़ाई-लिखाई बाधित होगी, बल्कि सेहत भी बुरी तरह प्रभावित होगी। और देश के सिर्फ आठ राज्यों को छोड़ कर अगर बाकी राज्यों में सरकारें स्कूलों में पेयजल की व्यवस्था नहीं कर पा रही हैं तो इसे कैसे देखा जाएगा! जबकि शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे क्षेत्र किसी भी सरकार के प्राथमिक दायित्वों में शुमार किए जाते हैं।
इन दोनों क्षेत्रों में अगर बुनियादी ढांचा बेहतर है, तभी बेहतर नतीजों के साथ-साथ अन्य मामलों में वास्तविक विकास की उम्मीद की जा सकती है। सामान्य स्थितियों में अगर बच्चे स्कूल जाते हैं तो पढ़ाई के साथ-साथ उनकी नियमित जरूरतों में पीने का पानी सबसे अहम है। फिर शौचालय या अन्य जरूरतों के लिए भी पानी की जरूरत होती है। लेकिन अगर स्कूलों में पेजयल नहीं है तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि दूसरे कामों के लिए पानी की उपलब्धता कैसी होगी और उनका उपयोग कितना सुरक्षित होता होगा!
अध्ययनों में ये तथ्य आ चुके हैं कि स्कूलों में पीने के साफ पानी के अलावा शौचालयों के अभाव के चलते बहुत सारी लड़कियां बीच में ही पढ़ाई छोड़ देती हैं। सरकारी स्कूलों के प्रति आकर्षण कम होने का एक सबसे बड़ा कारण वहां पेयजल और साफ शौचालयों की व्यवस्था में कमी भी रहा है। दूसरी ओर, समूचे शैक्षिक परिदृश्य में बीच में स्कूली शिक्षा के दायरे से बाहर हो जाने की समस्या एक बड़ी चिंता के रूप में अब भी कायम है। इसके लिए आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियां भी जिम्मेदार होती हैं।
लेकिन अगर सरकारों की इच्छाशक्ति के अभाव में बच्चों की पढ़ाई बाधित होती है तो इससे ज्यादा अफसोसनाक कुछ और नहीं हो सकता। जबकि स्कूल के भवन, पेयजल और शौचालय की व्यवस्था बुनियादी सुविधाओं के अंतर्गत आते हैं और इसे सुनिश्चित करना सरकार की प्राथमिक जिम्मेदारी होनी चाहिए। शिक्षा का अधिकार अधिनियम के तहत भी इसकी व्यवस्था करना सरकार का दायित्व है। सवाल है कि अर्थव्यवस्था के दूसरे तमाम मानकों पर विकास का दावा बढ़-चढ़ कर करने वाली सरकारों की नजर में स्कूलों की बुनियादी जरूरतों को लेकर ऐसा उपेक्षा-भाव क्यों दिखता है? क्या इसकी वजह यह है कि सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले ज्यादातर बच्चे कमजोर आर्थिक पृष्ठभूमि से आते हैं और उनकी जरूरतों की आसानी से अनदेखी की जा सकती है?