सरदार अहमद बढ़ई: लखनऊ के एक शायर की दास्तां, जो गुरबत और गुमनामी में भी रहे असरदार

दुनिया में कुछ रिश्ते बहुत अजीब से होते हैं. आप चाहकर भी उन्हे नाम नहीं दे सकते. सरदार अहमद से मेरा कुछ ऐसा ही नाता था

Update: 2021-07-31 13:47 GMT

हेमंत शर्मा  | दुनिया में कुछ रिश्ते बहुत अजीब से होते हैं. आप चाहकर भी उन्हे नाम नहीं दे सकते. सरदार अहमद से मेरा कुछ ऐसा ही नाता था. सरदार अहमद से मेरी दोस्ती नहीं थी, पर आत्मीयता बहुत थी. मैं उनकी वल्दियत, सकूनत से भी वाक़िफ़ नहीं हूं. पर उनकी शख़्सियत और पुरखुलूसी से अब भी सराबोर हूं. उनके वालिद ने उनका नाम रखा था सरदार, पर वे थे बड़े ही असरदार. उनके व्यक्तित्व और प्रकृति में उनके नाम की सार्थकता थी. सरदार अहमद लखनऊ के एक फ़र्नीचर कारख़ाने में बढ़ई थे. या यों कहें फ़र्नीचर के रंगसाज थे. लगभग रोज़ दुपहरी मेरी उस कारख़ाने में बैठकी होती थी. कारख़ाने के मालिक नवीन तिवारी की लखनऊ की कला, तहज़ीब और सौन्दर्यशास्त्र में दखल थी. कई रसूखदार लोग वहां आते थे. प्रबुद्ध लोगों का जमावड़ा होता था. सरदार साहब फर्नीचर पर हाथ दिखाने के अलावा अदब में भी हाथ आजमाते थे. अक्सर फर्नीचर पर रेगमाल करते करते वे एक दो ताज़ा शेर भी जड़ देते. इसलिए जब भी मैं उस कारख़ाने में जाता, सरदार साहब से मिले बगैर नहीं आता था. सरदार साहब बाज वक्त फुटकर पुर्ज़ों पर ही अपने असरार लिख कर मुझे थमा देते.

उनका हुलिया और पहनावा आज भी मेरे सामने तैरता है. इकहरा बदन ,गोरे चिट्टे, सफ़ेद कुर्ता पायजामा और दुपलिया टोपी में सरदार अहमद अवध की खण्डहर होती नवाबी विरासत के नमूने से दिखते थे. उनकी दुश्वारी यह थी कि उनके फेफड़ों में कुछ गड़बड़ थी. इसलिए सरदार अहमद की सांस हमेशा फूलती रहती. वे जैसे तैसे अपना घर चलाते थे. उनका परिवार बड़ा था पर घर छोटा. सरदार अहमद अपने ठीहे पर बैठकर बड़ी तल्लीनता और एकाग्रता से कुर्सियों पर पॉलिश चढ़ाते थे. अपने पास वे एक केटली रखते और पहुंचते ही चाय मंगवाने की ज़िद करते. उनके हाथ की कारीगरी के मुरीद दूर दूर तक थे.
लखनऊ को तहज़ीब और अदब का शहर कहा जाता है. यहां बढ़ई, नाई.और दर्ज़ी भी अदब और तहज़ीब वाले होते हैं. मजाज और कृष्ण विहारी नूर के इस शहर में कई ऐसे भी शायर हुए हैं जिन्होंने शान से अपने नाम के आगे लखनवी लगाकर इस शहर को अपने साथ जोड़े रखा. पर इसी नगरी में कुछ ऐसे भी शायर हुए जिन्हें मौक़ा ही नहीं मिला और ग़ुरबत ने उन्हें गुमनामी के अंधेरे में ढकेल दिया. शायरी की दुनिया में सरदार अहमद ऐसी ही गुमनाम पर मक़बूल शख़्सियत थे. गुमनाम इसलिए थे कि उनकी शायरी की समझ के हिसाब से उन्हें बेहद कम लोग जानते थे. फिर मकबूल इसलिए थे कि जो उन्हें जानते थे, उनके लिखने और पढ़ने के अंदाज़ के मुरीद थे. निहायत ही ज़हीन सरदार अहमद के हाथ से गुजरकर कोई भी लकड़ी संगमरमरी आभा बिखेरती थी. ये उनके हाथों का जादू था.
सरदार साहब की अदब में दिलचस्पी गजब की थी. उन्हें उर्दू के अलावा हिंदी और अंग्रेज़ी का भी व्यवहारिक ज्ञान था.'क्लासिकल साहित्य' में उनकी रुचि उस वक्त के साहित्यकारों की सोहबत से बनी थी. शायरी में उनकी दखल ने उन्हें शायर 'यास यगाना चंगेज़ी'का शागिर्द बना दिया. वे मजाज लखनवी के भी सम्पर्क में रहे. सरदार अहमद अक्सर 'मजाज़' लखनवी के साथ बीते पलों का ज़िक्र भी करते और बताते कि कैसे मजाज़ साहब से वे शायरी सुना करते और बदले में उनके लिए ज़रूरी रसायनिक इंतज़ाम करते. एहसान 'दानिश' भी उनके पसंदीदा शायरों में थे. सरदार पांच वक्त के नमाजी थे पर इस्लाम में व्याप्त बुराइयों पर उनके विचार ऐलानिया थे. जातीय या साम्प्रदायिक विभाजन से कोसों दूर वे रंगसाजी में अक्सर नए प्रयोग करते. अपनी इस विद्या को किसी के साथ साझा करने में संकोच नहीं करते थे, इसी कारण उनके अनेको शागिर्द बने.
अपने हुनर के उस्ताद सरदार साहब ने न जाने कितने नए लड़कों को पालिश सिखायी. उनकी सूझबूझ ऐसी थी कि वे नई नई फ़िनिश जिसकी तकनीक भी उस समय तक इस देश में नहीं आईं थी, को केवल फ़ोटो देखकर बना लेते. सरदार साहब अनोखे और अनंत रंगों को चुनौती सिर्फ़ लाख और स्पिरिट से देते थे. एक बार एशियन पेन्ट्स या किसी बड़ी कंपनी ने पहली बार दानेदार पेंट लॉन्च किया जो इंटीरियर डेकोरेटर्स के लिए नया था. घर की अंदरूनी दीवारों पर ही लगाए जाने वाले इस पेंट की प्रति वर्ग फुट क़ीमत इतनी ज़्यादा थी कि बहुत रईस लोग ही इसे लगवा पाते थे. जब सरदार साहब को ये पेंट दिखाया गया तो क़ीमत सुनकर वे चौंक उठे. फिर बोले कि मैं कोशिश करता हूं और एक दिन बाद ही उन्होंने हुबहू जो सैम्पल बनाया वो लगभग 1/20 लागत पर तैयार हुआ था. उनके भीतर जीवन के आख़िरी वक्त तक सीखने और कुछ नया करने का जज़्बा बरकरार रहा.
सरदार अहमद शराब नहीं पीते थे. पर शराब की महत्ता पर बेबाक़ लिखते थे. वे अक्सर शराब पर कोई नया शेर लिख देते. मैं जब भी उस फर्नीचर कारख़ाने पर जाता तो उनके साथ थोड़ा वक्त ज़रूर बिताता. वे अपने शेर सुनाते. मेरा उनसे एक वादा था कि मैं एक रोज़ उनका दीवान छपवाउंगा. मुझे ग्लानि है कि मैं यह नहीं कर पाया और वे चले गए. पता नहीं उनकी कोई पाण्डुलिपि भी है या नहीं या पुर्ज़ों पर लिखे शेर उन्हीं के साथ चले गए. मैं जब लखनऊ से अपना घर दुआर ले दिल्ली आया तो सरदार साहब भी मेरे साथ दिल्ली आए. दिल्ली में मेरे घर के फर्नीचरों को तरतीब से लगवाने और पॉलिश कर उन्हें नया करने के लिए. तीन रोज़ तक वे घर पर ही रहे. यह मेरे साथ उनका अपनापा था. मेरे लिए वे अरब से जन्नत-उल-फ़िरदौस इत्र मंगवाते थे.
उनके न रहने के बाद उनकी कोई पांडुलिपि तो नही मिली मगर उनके कुछ शेर मुझे जरूर याद हैं.
"शराब पैर की हालत बहाल रखती है,
दवा मरीज़ को बरसों संभाल रखती है."
सरदार अहमद शराब पर लिखते जरूर थे, मगर पीते नही थे. मशहूर कवि हरिवंश राय बच्चन ऐसी हालात पर लिख गए हैं-
"स्वयं नहीं पीता, औरों को, किन्तु पिला देता हाला,
स्वयं नहीं छूता, औरों को, पर पकड़ा देता प्याला,
पर उपदेश कुशल बहुतेरों से मैंने यह सीखा है,
स्वयं नहीं जाता, औरों को पहुंचा देता मधुशाला."
हालांकि बच्चन जी इस सबके बावजूद सोमरस के शौकीन थे. मगर सरदार अहमद का मिजाज एकदम अलग था. सरदार अहमद ने एक रोज शराब की बोतल पर यह गजब का शेर लिखा.
"क़द कितना ख़ुशनुमां है बदन किस कदर है गोल
जौहरशनास है तो इन्हें मोतियों में तौल.."
बोतल में बंद शराब पर मैंने अनेक कलाम सुने हैं. पर शराब की बोतल का इस कदर खूबसूरत वर्णन अनोखा था. इस शेर में सरदार साहब ने बोतल को देह रूप में देखा था. बोतल की लंबाई और शरीर को श्रृंगार के सांचे में ढालते हुए उन्होंने इसका मोल समझ सकने की खातिर किसी जौहरशनास यानि जौहरी की जरूरत पर जोर दिया. वे एक ऐसे बढ़ई थे जो जितनी बारीकी से फर्नीचर तराशते थे, उतनी ही बारीकी से लफ्ज़ों को भी तराशते थे.
मेरे लिए सरदार अहमद बढ़ई समाज की उस महान परंपरा की अनमोल धरोहर थे जिसका जिक्र रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों में है. भारत में बढ़ई समाज लकड़ी का काम करने वाला एक व्यवसायिक समूह है जिसमें बहुतायत हिन्दू होते हैं. इनमें एक छोटा वर्ग मुसलमानों का भी है जिनके पास बेहतर कारीगरी की एक समृद्ध विरासत है. हिन्दू बढ़ई, शर्मा या विश्वकर्मा लिखते हैं. बढ़ई संस्कृत शब्द 'वर्घिका' से निकला है जिसका मतलब है काटना. मुसलमान बढ़ई में दो अन्तरविवाही उप खण्ड हैं. देशी और मुल्तानी. ये मुस्लिम लोहार की तरह 'सैफी' उपनाम से जाने जाते हैं. संस्कृत में लकड़ी को 'काष्ठ' और जो लकड़ी का काम करते हैं उन्हें 'काष्ठकार'कहा जाता है. काष्ठकार को खाती, त्वष्टा, तक्षा, तरुभेदी, वर्धकी, विश्वकर्मा, सूत्रकार, स्यंदनकार और अंग्रेजी में Carpenter सन्दर्भो के अनुसार कहते है. संस्कृत में बढ़ई को तक्षन् या तक्षक कहा जाता है . तक्षन का मतलब है छीलना, चीरना, काटना, छेनी से तराशना, गढ़ना, बनाना जैसे अर्थ काष्ठकला के संदर्भ में ही हैं. बढ़ई के लिए वर्धकिः शब्द का जिक्र 'वाल्मीकि रामायण', महाभारत और कालिदास के महाकाव्य 'मेघदूतम्' में भी हुआ है. डॉ रामविलास शर्मा के मुताबिक बढ़ई का काम कुछ गणसमाजों में बहुत महत्वपूर्ण था, नतीजतन इस शब्द का प्रयोग कारीगर विशेष के लिए होने लगा. औद्योगीकरण से पहले बढ़ई को गंवई समाज में वास्तुकार या मुख्य अभियन्ता जैसा रुतबा मिलता था.

ग्रीक भाषा में बढ़ई का सम्बन्ध सामान्य कौशल से है. कहीं कहीं इन्हें सुधार भी कहा जाता है. इनका पारंपरिक काम बढ़ई (काष्ठकारी) होता है. सूत्रधार संस्कृत शब्द है. संस्कृत में सूत्र का अर्थ है धागा (जिसका उपयोग आरी के निशान को चिह्नित करने के लिए किया जाता है) और धरा मतलब धारण करना. सुथार नाम सूत्रधार का तद्भव रूप हैं. पौराणिक कथाओं के अनुसार, सूत्रधार विश्वकर्मा के पुत्र माया के वंशज हैं. ऋग्वेद के अनुसार विश्वकर्मा ब्रह्मांड के दिव्य इंजीनियर हैं. स्कंद पुराण में उनके पांच बच्चे थे मनु, माया, तवस्तार, शिल्पी और विश्वजना. ऐसा माना जाता है कि विश्वकर्मा समुदाय के लोग उनके पांच उप-समूहों के अग्रदूत थे, जो कि लोहार, बढ़ई के गोत्रों (कुलों) के थे.

पुराणों में विश्वकर्मा कहीं-कहीं भृगु से और कहीं अंगिरा से संबंध रखते हैं. लगता है हर कुल में अलग-अलग विश्वकर्मा हुए हैं. हमारे देश में विश्वकर्मा नाम से एक ब्राह्मण समाज भी है जो जांगीड़ ब्राह्मण, सुतार, सुथार और दूसरे निर्माण कला एवं शास्त्र ज्ञान में पारंगत होते हैं. शिल्पज्ञ विश्वकर्मा ब्राह्मणों को प्राचीनकाल में रथकार वर्धकी, एतब कवि, मोयावी, पांचाल, रथपति, सुहस्त सौर और परासर आदि शब्दों से जाना जाता था. उस समय आजकल के सामान लोहकार, काष्ठकार, सुतार और स्वर्णकारों जैसे जाति भेद नहीं थे. प्राचीनकाल में शिल्प कर्म बहुत ऊंचा समझा जाता था और सभी जाति, वर्ण समाज के लोग ये काम करते थे. वैदिक शास्त्रों के मुताबिक़-

"विश्वकर्माSभवत्पूर्व ब्रह्मण स्त्वपराSतनुः. त्वष्ट्रः प्रजापतेः पुत्रो निपुणः सर्व कर्मस."

यानी प्रत्यक्ष आदि ब्रह्मा विश्वकर्मा त्वष्टा प्रजापति का पुत्र पहले उत्पन्न हुआ और वह सब कामों में निपुण था.
बढ़ईयों के इष्टदेव विश्वकर्मा हैं. पर यहां तर्क और बहस की गुंजाइश है क्योंकि विश्वकर्मा कई मिलते हैं. प्रभास पुत्र विश्वकर्मा, भुवन पुत्र विश्वकर्मा तथा त्वष्टापुत्र विश्वकर्मा आदि अनेक विश्वकर्मा हुए हैं. प्रथम विश्वकर्मा वास्तुदेव और अंगिरसी के पुत्र थे. विश्वकर्मा के बड़े बेटे मनु लौह संहिता में अभ्यस्त होकर लौह संबंधी शिल्प में कुशल बने. मनु ऋग्वेद और उपवेद आयुर्वेद के रचयिता व ज्ञाता थे. इनका गोत्र सानग था, जिसके 25 उपगोत्र चले, जो आगे लौहार कहलाए. उनके दूसरे बेटे मय थे. इनका गोत्र सनातन था, जिनके 25 उपगोत्र हुए. मय के वंशज काष्ठ शिल्प में पारंगत थे और उन्होंने लकड़ी और उससे संबंधित वस्तुओं के अद्भुत नमूने पेश किए. इसी वंश के लोग आगे चलकर तरखान कहलाए. इनके वंशंज काष्ठकार के रुप में जाने जाते हैं.

जीसस भी शुरूआती दिनों में बढ़ई थे. इसके सन्दर्भ मिलते हैं कि ईसा ने यूसुफ का पेशा सीख लिया और लगभग 30 साल की उम्र तक उसी गांव में रहकर बढ़ई का काम करते रहे. अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन के पिता भी बढ़ई थे. अमेरिकी सीनेटर बर्नी सैण्डर जिन्हें डेमोक्रेटिक पार्टी ने राष्ट्रपति पद के उम्मीदवारी के लिए नामित किया था, वह भी बढईगीरी कर चुके थे. शहीद उधम सिंह ने भी ब्रिटेन में बढ़ई का पेशा अपनाया. भारत के एक राष्ट्रपति भी जीवन के शुरूआती दिनों में बढ़ई थे. तब की प्रधानमंत्री इन्दिरा गॉघी ने उनसे कहा की मुझे कैबिनेट का विस्तार करना है. तो झटके में वे जबाब दे गए कि मैंने तो वह काम बहुत पहले छोड़ दिया है. इन्दिरा जी अचम्भित हुईं पर तब तक राष्ट्रपति जी को मुद्दा समझ में आ चुका था.

तो मित्रो,बढ़ई परंपरा का एक बेहद ही यशस्वी, समृद्ध, धार्मिक और शास्त्रीय इतिहास है. बढ़ई गिरी क्या है? इसे सरदार साहब तफ़सील से बताते थे. वे मन्नर भाई के साथ मिलकर पूरी बढ़ईगिरी समझाते कि कैसे रुखाना से लकड़ी को पतला किया जाता है. चौधरा से चिकना किया जाता है. पटाली से बने हुए वस्तु को काटकर अलग किया जाता है. वरमा, छेदा, तथा छेनी का प्रयोग करते हैं. बाटी से (बरमा से छेद करने के बाद) अन्दर की खुदाई किया जाता है. वसुला का प्रयोग लकड़ी को छीलने के लिए किया जाता है. आकृति, तथा डिजाइन बनाने के लिए प्रकाल की सहायता ली जाती है. गौन्टा का उपयोग खराद मशीन मे लगी बची लकड़ी को हटाने के लिए किया जाता है. फरुई लोहे का सपाट सा होता है. इसका प्रयोग औजार को रखकर 'काष्ठ-कला' को बनाने के लिए होता है. तरघन फरुई के लकड़ी के नीचे का बेस (आधार) होता है. बघेली मोटी लकड़ी से बना होता है जो कुनिया मशीन तथा फरुई के लिए सहारे का काम करता है. बघेली भी दो होते हैं. अगला बघेली,और पिछला बघेली. खरैया पथ्थर का बना होता है. इसका प्रयोग औजार को तेज करने के लिए किया जाता है.

इस ज्ञान, समझ और कारीगरी के भंडार सरदार साहब का हृदय बेहद विशाल था. अपनी सीमित आय से भूखे को भोजन कराना या दान देना उनका दैनिक कार्यक्रम था. मेरे पास सरदार अहमद के बहुत से किस्से हैं. वे मुझे कभी भी उन्हें भूलने नही देते. ऐसा ही एक किस्सा डॉ कुमार का है. लखनऊ के मशहूर मनोचिकित्सक डॉ कुमार उन दिनों अक्सर इस फर्नीचर कारख़ाने मे आते थे. कोई ज़रूरी नहीं है कि मैं डाक्टर का पूरा नाम बताऊं. बस इतना समझ लीजिए कि डॉ कुमार का अतीत सिन्धु घाटी की सभ्यता की तरह गौरवशाली और वर्तमान किसी बिगड़े रईस की तरह का संभ्रांत था.

डॉ कुमार ख़ानदानी कायस्थ थे और अच्छी उर्दू लिख पढ़ लेते थे. अंग्रेज़ी पर भी उन्हें अधिकार हासिल था. पर बोलते इतना कि सामने वाले के पास सुनने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता. उनसे डॉक्टरी हो नहीं पा रही थी. इसलिए उन्हे शायरी का शौक़ चढ़ा. उन्होंने मनोरोगियों के लिए एक क्लिनिक खोल ली. धीरे धीरे वहीं चार बेड भी पागलों के लिए लगा दिए. एक दिन डॉ साहब ने वहां भर्ती पागलों को अपनी नव प्रसूत कविता सुनाना शुरू किया. पर पागल इस कदर पागल नहीं थे कि उनकी कविता झेल लेते. चारों पागलों ने मिल कर डॉ साहब की पिटाई कर दी. थाना पुलिस हुआ. डॉ साहब ने पागलों को अपनी क्लिनिक से भगा दिया. उसके बाद फिर कभी उन्होंने पागल भर्ती नहीं किए. हालांकि यह विषयान्तर था पर डॉ कुमार की काव्यचेतना को बताने के लिए यह जरूरी तथ्य था.

डॉ कुमार का सरदार अहमद से जब परिचय हुआ तो वे बहुत खुश हुए. अक्सर ही दोनों एक दूसरे को चुनिंदा शेर सुनाते. उन्हीं दिनों डॉ साहब को हिन्दी कविता का कीड़ा काट गया और वे धुआंधार कविता कहने लगे जिनमें तुकभिड़ंत ज़्यादा और सार कम होता. एक दिन डॉ साहब अपनी कोई नई रचना लिए बड़े उत्साह से आए और सरदार साहब को सुनाने लगे. सरदार साहब के चेहरे पर कई विचित्र भाव आए और गए. डॉ कवि के जाने के बाद जब हमने सरदार साहब से पूछा कि कविता कैसी लगी. तो वे बोले 'भइया डॉक्टर साहब की रचना तो बच्चों के नर्सरी राइम की बहर पर हैं.' जैसे – "हाथी को खड़ा किया खड़ा है , बांस को गाड़ दिया गड़ा है!!" इसमें कविता कहां है? सरदार अहमद की इतनी बेबाक़ और सटीक टिप्पणी जब डॉ० कुमार को जब पता चली तो न पूछिए क्या हाल हुए उनके.

आए दिन ऐसा होता कि डा कुमार पर कोई मिसरा उतर आता जिसे वे सरदार साहब को सुनाते और कहते कि आप इसका गिरह लगाकर पूरा कीजिए. जाड़े के दिन थे. कटकटाती ठंड में आग जलाकर सरदार साहब पॉलिश कर रहे थे. बीच बीच में वो आग भी तापते. डॉ कुमार ने उन्हें देखते ही कहा, सरदार साहब एक मिसरा है. सरदार अहमद ने कहा, "अता कीजिए." डॉ साहब बोले "सारी रज़ाई जल गयी, बैठे हैं तापने" सरदार साहब ने बगैर उनकी तरफ़ देखें उसी लबो लहजे में पूरा किया "ऐसा भी …तिया कहीं देखा है आपने." शेर मुकम्मल हो चुका था. डॉ साहब दांत किटकिटाते हुए उल्टे पांव कारख़ाने के बाहर हो गए. और फिर कभी सरदार साहब से मिसरा पूरा कराने नहीं आए.

सरदार अहमद के ऐसे न जाने कितने किस्से हैं. फिर एक रोज़ वो वक्त भी आ गया जब सरदार साहब बस किस्सों में ही रह गए. हमने एक बेहद ही काबिल और उम्दा शख्सियत को गुमनामी के अंधेरों में खो दिया. उनके जाने के बाद उस कारख़ाने में उनके ठीहे की जगह कोई भी न भर सका. सरदार साहब हमारे दिलों में जिंदा हैं. आज भी जब लखनऊ जाता हूं. उनकी याद कदमों के साथ चलती है. शायद यही उनकी सबसे बड़ी दौलत है जो उनके न रहने के सालों बाद भी कायम है.


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