रूस-यूक्रेन संघर्ष: भारत ने शांति का पक्ष लिया है

इसलिए अलग-अलग वजहों से ये देश आज एक साथ खड़े दिखते हैं।

Update: 2022-03-07 01:45 GMT

यूक्रेन पर रूस के हमले के बाद से संयुक्त राष्ट्र में रूस के खिलाफ आए प्रस्ताव पर मतदान के दौरान भारत तीनों बार अनुपस्थित रहा और उसने दोनों पक्षों से बातचीत के जरिये इसका हल ढूंढ़ने की अपील की है। इसके जरिये भारत ने विदेश नीति के मसले पर एक ऐसी पहल की है, जो भारत के दृष्टिकोण को बहुत बेहतर तरीके से व्यक्त करती है। इससे स्पष्ट है कि भारत न तो रूस के साथ है, न अमेरिका के साथ और न ही यूरोपीय देशों के साथ।

यूरोपीय देशों में अभी जो स्थिति बनी है, वह भयावह होती जा रही है। हमारे देश के बहुत से बच्चे अब भी यूक्रेन में फंसे हुए हैं, इसलिए एक तरह से भारत भी इससे जुड़ा हुआ है। भारत समेत दुनिया भर की अर्थव्यवस्था पर इसका बहुत बुरा परिणाम पड़ने वाला है। शेयर बाजार पूरी तरह से अस्थिर हो गया है। महंगाई लगातार बढ़ती चली जा रही है। जिन लोगों को पेंशन नहीं मिलती है, उनके लिए तो परेशानी है ही, जिन लोगों को पेंशन मिलती है, उनके लिए भी महंगाई बढ़ने के कारण मुश्किल बढ़ जाएगी।
भारत ने जो फैसला किया है, वह इन सब चीजों को ध्यान में रखते हुए ही फैसला लिया है। मौजूदा स्थिति में पता नहीं चल पा रहा कि यह युद्ध कब तक चलेगा। पश्चिम और नाटो देशों ने यूक्रेन एवं रूस को ऐसे कगार पर खड़ा कर दिया कि उन्हें युद्ध करना पड़ रहा है। ऐसे में भारत ने बातचीत के जरिये शांति की जो पहल की है, वह जरूरी है। भारत ने युद्ध में प्रत्यक्ष रूप से न जुड़े अन्य देशों को भी एक नई दिशा दिखाई है कि वे भारत के साथ जुड़कर बातचीत से समस्या के समाधान का दबाव बनाएं। सभी रूस को समझाएं कि युद्ध किसी समस्या का हल नहीं है, दोनों देश आपस में सुलह करें और जब तक सुलह हो नहीं जाती, तब तक मानवीय कानूनों का पूरी तरह से पालन करें। निर्दोष लोगों, सेना और अर्थव्यवस्था पर इसके जो बुरे परिणाम हो रहे हैं, वे खत्म हों और कम से कम हों।
अमेरिका और अन्य नाटो देशों ने यूक्रेन की मदद करने की बात की है कि हम आपको हथियार देंगे, आप लड़िए, लेकिन यह तो कोई अच्छी बात नहीं है। भारत ने रूस को यह तो नहीं कहा है कि आपने यूक्रेन पर हमला करके अच्छा किया है। ऐसे में कैसे कहा जा सकता है कि भारत ने रूस का पक्ष लिया है? भारत ने सिर्फ शांति का पक्ष लिया है। हमने इसलिए शांति का पक्ष लिया है, क्योंकि हमने युद्ध की, आतंकवाद की विभीषिका झेली है।
मुझे नहीं लगता कि भारत के मौजूदा रुख से भारत-अमेरिका के रिश्ते पर असर पड़ना चाहिए, लेकिन ऐसी कोशिशें हो रही हैं। बहुत से लोग हैं, जो नहीं चाहते कि भारत और अमेरिका के बीच रिश्ते बेहतर रहें। चीन के साथ भी हमारे रिश्ते उतने खराब नहीं थे। प्रधानमंत्री मोदी ने भी काफी प्रयास किया कि चीन के साथ रिश्ते और बेहतर हों, लेकिन हमने देखा कि चीन के अपने ही अलग तेवर थे। उसकी महत्वाकांक्षा महाशक्ति देश बनने की है। इसके लिए जरूरी है कि अपने अड़ोस-पड़ोस के देशों और उससे संबंधित पुराने समझौतों को दबाया जाए। उसकी वजह से हमें क्वाड में शामिल होना पड़ा। ऐसा नहीं था कि हम क्वाड के माध्यम से कोई नया रणनीतिक समीकरण बनाना चाहते थे, कि चीन के ऊपर हम हमला करें। भारत यही कहता रहा कि चीन आक्रामक होने के बजाय शांति के मार्ग पर चले और अपने पड़ोसी देशों के साथ अंतरराष्ट्रीय कानूनों का पालन करे। हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भी हम यही कहते रहे कि सभी देशों के लिए कानून के अनुसार मुक्त आवाजाही का मार्ग मिले। दूसरी बात, हम चीन की वजह से क्वाड में शामिल हुए, रूस की वजह से नहीं। हम हमेशा यह कहते रहे हैं कि रूस के साथ हमारे रिश्ते अच्छे हैं। और अब अगर रूस और चीन साथ में मिल जाते हैं, तो उससे हमें नुकसान ही होगा। इसलिए हम खुलकर रूस का विरोध नहीं करना चाहते हैं। हथियारों के लिए हम रूस पर निर्भर हैं, हालांकि इस मामले में हमारी निर्भरता घट रही है। लेकिन अन्य देशों से जरूरत के हिसाब से हथियार आपूर्ति न होने की वजह से हमें रूस के साथ हथियारों के लिए नए-नए अनुबंध करने पड़ते हैं।
भारत संयुक्त राष्ट्र में प्रतिनिधित्व बढ़ाने और अपनी बड़ी भूमिका की बात करता आया है। लेकिन यूक्रेन मुद्दे पर संयुक्त राष्ट्र में भारत का जो रुख है, उससे थोड़े समय के लिए भारत की भावी योजना और महत्वाकांक्षा पर निश्चित रूप से इसका असर पड़ सकता है। भारत की घरेलू राजनीति में भी और अमेरिका व नाटो के भीतर भी ऐसी बहस चल रही है कि भारत ने संयुक्त राष्ट्र में रूस के खिलाफ मतदान करने के बजाय अनुपस्थित रहकर ठीक काम नहीं किया है। लेकिन मुझे विश्वास है कि इसके दूरगामी परिणाम बुरे नहीं होने चाहिए, क्योंकि भारत वही काम कर रहा है, जिसके लिए संयुक्त राष्ट्र बना है।
संयुक्त राष्ट्र युद्ध करने के लिए तो नहीं बना है, वह इसलिए बना है कि किसी भी तरह के संकट की स्थिति में उसका कूटनीतिक हल निकाला जाए। और भारत संयुक्त राष्ट्र के भीतर यही कह रहा है कि बातचीत से हल निकाला जाए। द्वितीय विश्वयुद्ध के जो विजेता देश थे, वे संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता लेकर बैठ गए। जबकि पिछले 75 वर्षों में जितने भी हमले हुए हैं और जितनी बर्बादी हुई है, वह अधिकतर विकासशील देशों में हुई है, जो स्थायी सदस्य नहीं हैं। इसलिए भारत जैसे लोकतांत्रिक देश को, जो हमेशा शांति के पक्ष में और विकासशील देशों के हित में बात करता रहा है, स्थायी सदस्यता मिलनी चाहिए। संयुक्त राष्ट्र ने जहां कहीं भी शांति सेना भेजी है, उसमें भारत ने अपने सैन्य जवान भेजे हैं।
कुछ लोग कह रहे हैं कि मौजूदा संकट में भारत, चीन और पाकिस्तान एक साथ खड़े हैं, लेकिन इसे दूसरी तरह से देखने की जरूरत है। भारत एक बड़ी आबादी वाला देश है, जिसकी अपनी शांतिपूर्ण सभ्यता और संस्कृति रही है। चीन भी बड़ी आबादी वाला देश है और अपनी पुरानी सभ्यता का प्रतिनिधित्व करता है। पाकिस्तान ने अभी जो रुख अपनाया है, वह चीन, रूस तथा अन्य इस्लामी देशों, जहां नाटों के कारण अब तक सर्वाधिक बर्बादी हुई है, के साथ अपने रिश्तों के कारण लिया है। इसलिए अलग-अलग वजहों से ये देश आज एक साथ खड़े दिखते हैं।

सोर्स: अमर उजाला 


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