आना से डिजिटल करेंसी तक रूपए ने देखे हैं कई उतार-चढ़ाव
देश में एक अनुमान के अनुसार भारत में हर साल 5 मिलियन नोट चलन से बाहर हो जाते हैं
देश में एक अनुमान के अनुसार भारत में हर साल 5 मिलियन नोट चलन से बाहर हो जाते हैं, जिनका कुल वजन 4500 टन के बराबर होता है. यह बात चिंताजनक है कि जितनी मात्रा में भारत को नोट छापने के लिए स्याही और कागज की जरूरत पड़ती है उतना उत्पादन यहाँ नही हो पाता है और सरकार को विदेशों से इन दोनों चीजों का आयात करना पड़ता है. डिजिटल करेंसी के आने के बाद यह उम्मीद की जा सकती है कि नोट छपाई का दबाव काफी होगा. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने वर्ष 2022-2023 में देश की डिजिटल करेंसी जारी करने की घोषणा की है. देश में मुद्रा आना से डिजिटल करेंसी में कैसे आ रही है,इसकी कहानी बेहद दिलचस्प है.
मुगल काल में आई सिक्कों में एकरूपता
देश में मुद्रा दो तरह से प्रचलन में है. सिक्के के रूप में और कागजी स्वरूप में. रुपए और सिक्के निर्माण का अलग अर्थशास्त्र है. माना यह जाता है कि सिक्कों की प्रणाली में एकरूपता मुगल काल में आई थी. हैदराबाद के निजाम के सिक्के अलग थे और सिखों के सिक्के अलग थे. कुछ मुद्राएं ऐसी थीं जो सीमित सर्किल में स्वीकार्य थीं. 19वीं शताब्दी में टकसाल से ढलकर निकलने वाले सिक्कों में पाई सबसे छोटी थी. पैसे का तृतीयांश तथा औपचारिक तौर पर आने का 12 वां हिस्सा पाई के बराबर होता था.
तीन पाई का एक पैसा, चार पैसे का एक आना और 16 आने का एक रुपया. इस प्रकार एक रुपया 192 पाइयों का होता था. दूसरे विश्व युद्ध के बाद भारत में मुद्रास्फीति और धातुओं की कमी की स्थिति सामने आई तथा धातुओं का आयात करना पड़ा. बढ़ती कीमतों के ऐसे हालात में 1942 के बाद तांबे की पाई की ढलाई बंद कर दी गई. इसे पुनः: प्रचलन में लाने प्रस्ताव आजाद भारत में भी आया. लेकिन, तत्कालीन वित्त सचिव केजी अंबेगांवकर ने अस्वीकार कर दिया. पाई की गाथा को विराम देने वाले अंतिम शब्द रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर सीडी देशमुख ने बढ़े दिलचस्प तरीके से लिखे.
आना भारतीय गणतंत्र का पहला सिक्का
धेला दमडी के रूप में भी मुद्रा प्रचलन में रही है. कई हिन्दी मुहावरों में इनका उपयोग किया जाता है. जब पाकिस्तान भारत से अलग हुआ, तो पाकिस्तान भारतीय मुद्रा पर निर्भर था क्योंकि उनके पास उनकी अपनी पर्याप्त मुद्रा नहीं थी. इसलिए वे भारतीय रुपये के नोटों पर पाकिस्तान सरकार की मुहर लगाते थे.
आजाद भारत में आना की शुरुआत 15 अगस्त 1950 को हुई. इसे भारतीय गणतंत्र का पहला सिक्का होने का गौरव प्राप्त है. इसमें राजा के चित्र के स्थान पर शौर्य के प्रतीक अशोक स्तंभ की आकृति उकेरी गई मौद्रिक प्रणाली में सोलह आना का एक रुपया होता था. एक रुपए के सिक्के पर मक्के की बालियों की आकृति उकेरी गई . यह प्रगति और उन्नति को प्रदर्शित करने वाला था. देश में एक शताब्दी तक दशमलवकरण चलता रहा.
सितंबर 1955 में भारतीय सिक्का ढलाई अधिनियम में संशोधन किया गया, ताकि देश में सिक्का निर्माण के लिए मेट्रिक प्रणाली को स्वीकार किया जा सके. यह अधिनियम एक अप्रैल 1957 से लागू किया गया. रुपए के मूल्य और नाम में कोई परिवर्तन नहीं किया गया. तथापि 16 आना अथवा 64 पैसे के स्थान पर सौ पैसे में विभाजित किया गया. नया दशमलव पैसा सार्वजनिक स्वीकार्यता के लिए 1 जून 1964 तक नया पैसा कहा जाता था.
परंतु इसके बाद नया शब्द हटा दिया गया. साठ के दशक में वस्तुओं के मूल्य में वृद्धि के साथ छोटे मूल्य वर्ग के सिक्के कांस्य,निकेल-पीतल,ताम्र निकेल और एलुमिनियम कांस्य में ढाले जाते थे. बाद में केवल एल्यूमीनियम का उपयोग किया जाने लगा. यह परिवर्तन तीन पैसे के नए षट्कोणीय सिक्कों के साथ लागू किया गया. वर्ष 1968 में बीस पैसे का एक सिक्का जारी किया गया,लेकिन यह ज्यादा प्रचलन में नहीं आ पाया.
उसी तरह, जिस तरह आज दो हजार रूपए का नोट धीरे-धीरे प्रचलन से बाहर हो रहा है. सिक्कों की लागत मूल्य के चलते सत्तर के दशक में एक,दो और तीन पैसे के सिक्के बंद कर दिए गए. 1988 में दस,पच्चीस और पचास पैसे के सिक्के जारी किए गए. नोटों की लागत के कारण 1990 के दशक में एक,दो और पांच रुपए के नोटों को इसी मूल्य वर्ग में सिक्कों में बदल दिया.
शेर शाह सूरी ने चांदी के सिक्के को दिया था रूपए का नाम
कागज की जिस मुद्रा को रुपया कहा जाता है यह चांदी के सिक्के के तौर पर प्रचलन में आया था. यह शेरशाह सूरी की देन था. शेरशाह सूरी ने 1540 से 1545 तक दिल्ली पर शासन किया. शेर शाह सूरी अफगानी थ. दिल्ली में उसका शासन अल्पकाल के लिए ही रहा. शेर शाह सूरी द्वारा जारी किए गए चांदी के रुपए का वजन 178 ग्रेन था. यह बीसवीं सदी के पूर्वार्ध तक उसी रूप में प्रचलन में रहा. चांदी के सिक्के के साथ स्वर्ण के सिक्के भी जारी किए गए जिन्हें मुहर के नाम से जाना जाता था. जिनका वजन 169 ग्रीन था. मुगल कालीन सिक्कों का इतिहास भी लंबा है. विभिन्न धातुओं के सिक्के ज्यादा प्रचलन में रहे हैं.
कागजी मुद्रा अधिनियम,1841 ने भारत सरकार को नोट जारी करने का एकाधिकार दे दिया. जिसके कारण निजी प्रेसिडेंसी बैंकों द्वारा नोट जारी किया जाना समाप्त हो गया. भारत में कागजी मुद्रा प्रचलन में लाने का श्रेय सर जेम्स विल्सन को जाता है. वे भारत के वायसराय की कार्यपालिका परिषद में पहले वित्त सदस्य थे. भारत सरकार ने भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना होने तक मुद्रा नोट जारी करने का कार्य करता रही. युद्ध के समय के उपाय के रूप में जब अगस्त 1940 में एक रूपए का नोट फिर से शुरू किया गया. तब भारत सरकार ने उसे सिक्के की हैसियत से जारी किया. भारत सरकार ने 1944 तक एक रूपए का नोट जारी करने का कार्य किया.
आजादी से पहले भी नोट ने देखें कई उतार-चढ़ाव
नोट से उसे जारी करने वाले बैंकों की कई दिलचस्प कहानियां जुड़ी हुई हैं. नोट का प्रारंभिक निर्गमकर्ता जनरल बैंक ऑफ बंगाल एंड बिहार (1773-75) था.यह एक राज्य प्रायोजित संस्था थी. इसमें स्थानीय विशेषज्ञ भी अपना योगदान देते थे. बैंक सफल था,लाभ में था फिर भी सरकार द्वारा बंद कर दिया गया. एलेक्जेंडर एजेंसी हाउस द्वारा बैंक ऑफ हिन्दोस्तान (1770-1832) की स्थापना की गई. तीन बार जनता का विश्वास खोने के बाद भी यह बनी रही. 1832 में जब इसकी मूल फर्म एलेक्जेंडर एंड कंपनी डूबी तक बैंक ऑफ हिन्दोस्तान भी डूब गया.
बैंक नोटों के परिचालन में सरकारी समर्थन और राजस्व भुगतान में नोटों की स्वीकार्यता अत्यंत महत्वपूर्ण घटक है. तथापि बैंक नोटों का व्यापक प्रयोग अर्ध सरकारी प्रेसिडेंसी बैंकों द्वारा जारी किए गए नोटों के साथ चलन में आया. इसमें सर्वाधिक उल्लेखनीय है बैंक ऑफ बंगाल जिसकी स्थापना पचास लाख रुपए की पूंजी के साथ 1806 में बैंक ऑफ कलकत्ता के रूप में की गई थी. इन बैंकों की स्थापना सरकारी चार्टर द्वारा की गई थी. इनका सरकार के साथ घनिष्ठ संबंध था. इन बैंकों को अपने-अपने सर्किल में परिचालन के लिए नोट जारी करने का विशेषाधिकार चार्टर के तहत दिए गए थे.
बैंक ऑफ बंगाल द्वारा जारी किए गए नोटों को मोटे तौर तीन श्रृंखलाओं में वर्गीकृत किया जा सकता है. यूनिफेस्ड श्रृंखला,वाणिज्य श्रृंखला और ब्रिटानिया श्रृखंला. बैंक ऑफ बंगाल के प्रारंभिक नोट यूनिफेस्ड थे और स्वर्ण मुहर (कलकत्ता में सोलह सिक्का रुपए)के रूप में उन्नीसवीं शताब्दी की प्रारंभिक अवधि में सुविधाजनक मूल्य वर्ग में अर्थात सौ रूपए,ढाई सौ रुपए पांच सौ रुपए आदि में जारी किए गए थे. बाद में बैंक ऑफ बंगाल के नोटों पर बेल बूटे की डिजाइन में लाक्षणिक नारी की प्रतिमा उकेरी जाने लगी. यह घाट पर बैठकर किए जाने वाले वाणिज्य को साकार करती थी.
नोटों को दोनों तरफ मुद्रित किया गया था. मुख भाग पर बैंक का नाम और मूल वर्ग उर्दू,बांगला और नागरी में मुद्रित किया गया था. ऐसे नोटों के पृष्ठ भाग में अलंकरण के साथ बैंक का नाम दर्शाने वाली पट्टी मुद्रित की गई थी. उन्नीसवीं शताब्दी की मध्यावधि में वाणिज्य अवधारणा का स्थान ब्रिटानिया ने ले लिया. जालसाजी को रोकने के लिए इन नोटों पर जटिल आकृतियां और अनेक रंग होते थे.
जापान ने की थी भारतीय मुद्रा के साथ जालसाजी
दूसरे प्रेसीडेंसी बैंक की स्थापना 1840 में बंबई में की गई जिसका प्रमुख वाणिज्यिक केन्द्र के रूप में विकास हुआ. बैंक का इतिहास विविधतापूर्ण रहा. कपास के भाव में तेजी रूक जाने से स्थिति संकटपूर्ण हो गई. 1868 में बैंक ऑफ बॉम्बे बंद हो गया. यद्यपि उसी वर्ष उसका पुनर्गठन किया गया. बैंक ऑफ बॉम्बे द्वारा जारी किए गए नोटों पर आउन हॉल और माउंटस्अुअर्ट एलफिन्स्टन तथा जॉन मॅल्कोल्म के चित्र मुद्रित किए गए थे.
युद्ध के दौरान भारतीय मुद्रा को अस्वीकार करने के लिए जापानी कारगुजारियों में आमतौर पर गवर्नर सीडी देशमुख द्वारा हस्ताक्षरित दस रुपए के नोटों में उच्च गुणवत्ता वाली जालसाजी की गई. जिसके चलते नोट का डिजाइन बदला गया. जार्ज छठवें के आधे चित्र के स्थान पर पूरा चित्र लगाया गया. अतिरिक्त सुरक्षा उपाय के तौर पर सुरक्षा धागा शुरू किया. यह श्रृंखला 1950 तक तब स्वतंत्र भारत के नोट जारी नहीं हो तब तक चलती रह. भारत सरकार ने एक रूपए के नए नोट का डिजाइन 1949 में जारी किया.
जन्म शताब्दी वर्ष पर नोटों पर आए महात्मा गांधी
स्वतंत्र भारत के नोटों पर महात्मा गांधी कैसे आए इसकी भी कहानी है. स्वतंत्र भारत के लिए प्रतीकों का चयन किया जाना था. नोटों पर से राजा का चित्र हटाया जाना था. महात्मा गांधी का व्यक्तित्व सामने था. डिजाइन भी बना ली गई. परंतु अंतिम विश्लेषण के समय गांधी के चित्र के स्थान पर सारनाथ के सिंह की आकृति के लिए आम राय बनी. नोट के डिजाइन पहले जैसा ही था.
1969 में महात्मा गांधी की जन्म शताब्दी समारोह के सम्मान में स्मारक डिजाइन श्रृंखला शुरू की गई. जिसकी पृष्ठभूमि में सेवा ग्राम आश्रम बैठे गांधी जी का चित्र था. पांच सौ रूपए का नोट महात्मा गांधी के चित्र के साथ अक्टूबर 1987 में जारी हुआ. 1996 में नई महात्मा गांधी श्रृंखला आरंभ की गई. इसमें वाटरमार्क खिडकी द्वार सुरक्षा धागा बदल दिया गया था. नेत्रहीनों के उत्कीर्णन विशेषता भी इसमें जोड़ी गई. इन नोटों पर वाटरमार्क में सिंह और अशोक स्तंभ को दर्शाया जानी जारी रहा.
रुपया का बहुवचन बना रूपए1953 में नए नोटों पर मुख्य रूप से हिंदी प्रदर्शित की गई. रुपया के बहुचन पर भी विचार हुआ.अतत: समाधान रुपए के रूप में सामने आया. 1954 में एक हजार,पांच हजार और दस हजार रुपए के नोट पुन: प्रारंभ किए गए. छठे दशक में आई मंदी के चलते नोटों का आकार छोटा किया गया. 1972 में बीस रूपए और 1975 में पचास रुपये के मूल्यवर्ग के नोट शुरू किए गए. भारत सरकार ने हज यात्रियों के लिए भी दस रूपए और सौ रुपए के नोट जारी किए थे. इन्हें तब बंद कर दिया गया जब जब केवल खाडी के देशों में प्रचलन के लिए जारी नोट चलन से वापस लिए.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
दिनेश गुप्ता
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. सामाजिक, राजनीतिक और समसामयिक मुद्दों पर लिखते रहते हैं. देश के तमाम बड़े संस्थानों के साथ आपका जुड़ाव रहा है