आज शहीद-ए-आजम भगत सिंह की चर्चा करते हुए जो पहली चीज याद आती है, वह है बहुचर्चित असेंबली बम कांड के सिलसिले में जनवरी, 1930 में दिया गया उनका ऐतिहासिक बयान. उसमें उन्होंने कहा था, 'पिस्तौल और बम इंकलाब नहीं लाते, बल्कि इंकलाब की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है और यही चीज थी, जिसे हम प्रकट करना चाहते थे.'
इस बात को गांठ बांध लेने के बाद क्रांति को लेकर किसी तरह की भ्रम या रोमांटिसिज्म की गुंजाइश नहीं बचती. उस दौर में एक ओर क्रांतिकारियों द्वारा ऐलान किया जा रहा था कि उन्हें ऐसे नौजवान चाहिए, जो आशा की अनुपस्थिति में भी भय व झिझक के बिना युद्ध जारी रख सकें और मृत्यु के वरण को तैयार हों, तो दूसरी ओर उन्हें 'बम की पूजा' जैसे आरोप भी झेलने पड़ रहे थे. क्रांतिकारियों ने 23 दिसंबर, 1929 को वायसराय लार्ड इरविन की स्पेशल ट्रेन को बम से उड़ाने की कार्रवाई की, तो महात्मा गांधी ने 'बम की पूजा' शीर्षक लेख लिखकर क्रांतिकारियों की आलोचना की थी.
तब क्रांतिकारियों के सिद्धांतकार भगवतीचरण वोहरा ने भगत सिंह से सलाह कर 'बम का दर्शन' लिखकर उन्हें जवाब दिया था. क्रांतिकारी कभी यह छिपाते नहीं थे कि वे ब्रिटिश साम्राज्यवाद से इसलिए युद्धरत हैं कि समाजवादी समाज व्यवस्था की स्थापना करना चाहते हैं. गिरफ्तारियों के बाद वे चाहते थे कि उनसे युद्धबंदियों जैसा बर्ताव हो. भगत सिंह प्रायः कहा करते थे कि गोरे अंग्रेजों की जगह काले या भूरे साहबों के आ जाने भर से देश और देशवासियों की नियति नहीं बदलेगी.
भगत सिंह और उनके दो साथियों- राजगुरू और सुखदेव- की शहादत के लिए पहले 24 मार्च, 1931 की तारीख तय थी, लेकिन जनाक्रोश भड़कने के डर से लाहौर सेंट्रल जेल में इन्हें 23 मार्च को ही शहीद कर दिया गया था. ये शहीद 13 अप्रैल, 1919 को जलियांवाला बाग में हुए भयावह नरसंहार से विचलित और प्रतिरोध के अहिंसक तरीकों से निराश होकर क्रांतिकारी बने थे.
लाहौर में 30 अक्तूबर, 1928 को साइमन कमीशन के विरोध प्रदर्शन में पंजाब केसरी लाल लाजपत राय गोरी पुलिस की लाठियों से घायल हुए और 17 नवंबर, 1928 को उन्होंने अंतिम सांस ली. इन क्रांतिकारियों ने एक माह बाद ही उक्त लाठीचार्ज के जिम्मेदार अंग्रेज अधिकारी सांडर्स को मार दिया था. उनका उद्देश्य यह जताना था कि काकोरी कांड के नायकों की शहादतों के बावजूद नौजवानों का खून ठंडा नहीं पड़ा है.
बाद में आठ अप्रैल, 1929 को भगत सिंह ने बटुकेश्वर दत्त के साथ दिल्ली में केंद्रीय असेंबली में दमनकारी कानूनों के विरोध में बम और पर्चे फेंके, पर इसके बाद वे भागे नहीं, वहीं खुद को गिरफ्तार करा लिया और अपने खिलाफ चली अदालती कार्रवाई को क्रांतिकारी चेतना और विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए इस्तेमाल किया.
वर्ष 1907 में आज के ही दिन पंजाब के लायलपुर जिले के एक गांव में, जो अब पाकिस्तान में है, भगत सिंह का जन्म हुआ. तब उनके पिता किशन सिंह और चाचा अजीत सिंह व स्वर्ण सिंह क्रांतिकारी गतिविधियों के सिलसिले में जेलों में थे. तीनों को उसी दिन रिहाई मिली, तो माना गया कि नवजात शिशु अच्छा भाग्य लेकर आया है. उसका नाम भगत रखा गया, पंजाबी में जिसका अर्थ भी है-भाग्यशाली. लेकिन बाद में अनीश्वरवादी भगत सिंह को न भाग्य में और न ही भगवान में भरोसा रह गया.
साल 1925-26 में उन्होंने बलवंत सिंह नाम से अपने क्रांतिकारी जीवन की शुरुआत की और जल्दी ही उसके कई आयाम विकसित कर लिये. ऐतिहासिक काकोरी मामले में मृत्युदंड प्राप्त रामप्रसाद बिस्मिल को छुड़ाने में असफलता के बावजूद वे निराश नहीं हुए और हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के (जो बाद में हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी में बदल गया) 'पीले पर्चे' यानी संविधान में एक ऐसे समाज के निर्माण का संकल्प दोहराया, जिसमें एक मनुष्य द्वारा दूसरे का शोषण संभव न हो.
कहते हैं कि शहादत के लिए ले जाये जाने से पहले वे लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे. उन्हें जब दिल्ली से मियांवाली सेंट्रल जेल स्थानांतरित किया गया, तो उन्होंने वहां कैदियों से भेदभाव के खात्मे और उनके अधिकार के लिए लंबी भूख हड़ताल भी की थी.जानना जरूरी है कि भगत सिंह की शहादत के बाद उनकी माता विद्यावती को 'पंजाब माता' की उपाधि दी गयी,
तो पंजाबी के लोकप्रिय कवि संतराम 'उदासी' ने अपनी एक कविता में सवाल उठाया था कि क्या भगत सिंह ने सिर्फ पंजाब के लिए जान दी थी? अगर देश के लिए दी थी, तो उनकी माता को 'देशमाता' का खिताब क्यों नहीं? गीतकार शंकर शैलेन्द्र ने 1948 में ही भगत सिंह को संबोधित अपनी एक कविता में कहा था- 'भगत सिंह, इस बार न लेना काया भारतवासी की, देशभक्ति के लिए आज भी, सजा मिलेगी फांसी की!' सवाल है कि क्या तब से आज तक कोई सार्थक परिवर्तन हुआ है?
क्रेडिट बाय प्रभात खबर