बिहार की कहानी उलटी

तीन कृषि कानूनों के खिलाफ किसान संगठनों के भारत को काफी समर्थन मिला।

Update: 2020-12-09 10:03 GMT

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। तीन कृषि कानूनों के खिलाफ किसान संगठनों के भारत को काफी समर्थन मिला। 19 राजनीतिक दलों ने इसका साथ दिया। संकेत यह है कि ये आंदोलन अब देश भर में फैलता जा रहा है। किसानों को यह समझाना सरकार के लिए मुश्किल बना हुआ है कि नए कानून किसानों के हित में हैं। यह समझाने के लिए नरेंद्र मोदी सरकार ने कुछ रोज पहले में बिहार के 2006 में एपीएमसी (कृषि उत्पाद विपणन समितियां) एक्ट को खत्म करने के फैसले का जिक्र किया। कहा गया कि उससे किसानों को लाभ हुआ और अब उसी तर्ज पर देश भर में ये कानून बनाया गया है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने ये भी हाल में ये कहा था कि कृषि बिल से किसानों के फसल खरीद में कोई कठिनाई नहीं होने वाली है। लेकिन एक वेबसाइट ने आरटीआई के जरिए हासिल सरकारी दस्तावेजों के आधार पर बताया है कि बिहार के कृषि मंत्रालय ने केंद्र सरकार को पत्र लिखकर कहा था कि बिहार में यहां न तो पर्याप्त गोदाम हैं, और न ही खरीदी की व्यवस्था अच्छी है।


इस कारण किसानों को कम दाम पर अपनी उपज बेचनी पड़ती है। इस साल 22 मई को राज्य के कृषि सचिव एन. सरवना कुमार ने केंद्र को लिखे अपने पत्र में कहा कि राज्य के उत्पादन लागत को ध्यान में रखते हुए धान की एमएसपी 2,532 रुपये प्रति क्विंटल और मक्का की एमएसपी 2,526 रुपये प्रति क्विंटल तय की जानी चाहिए। जबकि केंद्र ने धान की एमएसपी 1,868 रुपये और मक्का की एमएसपी 1,850 रुपये प्रति क्विंटल तय की है, जो बिहार सरकार के प्रस्ताव से काफी कम है। उन्होंने कहा कि बिहार प्रमुख मक्का उत्पादक राज्य है। धान यहां की प्रमुख खरीफ फसल है। लेकिन मार्केटिंग इन्फ्रास्ट्रक्चर, गोदाम और खरीद सुविधाएं आदि न होने के कारण किसानों को कम मूल्य पर अपने उत्पाद बेचने पड़ते हैं, जिससे उन्हें लाभ नहीं मिल पाता है। यानी बिहार सरकार ने खुद ये स्वीकार किया है कि उनके वहां खरीद व्यवस्था सही नहीं है। यह स्वीकारोक्ति बिहार के सहकारिता विभाग के उस दावे के भी विपरीत है, जो कि पिछले सितंबर में इसी वेबसाइट की एक एक स्टोरी के जवाब में बिहार सकरार ने कहा था। तो यह सरकारी दावे की हकीकत है। इसके बावजूद सरकार चाहती है कि किसान उसकी बातों पर भरोसा करें, तो अब शायद यह नहीं होने वाला है।


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