अगर कृषि कानूनों को वापस लिया जाना किसानों के लिए खुशी है तो उन परिवारों को याद करने का दिन भी है, जिनके अपने इस एक साल के दौरान पुलिस, गोदी मीडिया और मौसम की मार का सामना करते हुए शहीद हो गए. आज उन 700 किसानों को याद करने का दिन है, जिनके लिए आज भी इस देश के प्रधानमंत्री ने एक शब्द नहीं कहा. क्या आप यकीन कर सकते हैं कि एक आंदोलन के लिए इस देश के सात सौ किसान शहीद हो गए और उस देश के प्रधानमंत्री ने इस एक साल के दौरान एक शब्द नहीं कहा.
इन तस्वीरों में आप किस किस को नाम से पहचानेंगे और किस किस का नाम लेंगे. ये उन शहीदों की तस्वीरें हैं, जिन्हें इस देश में आतंकवादी कहा गया. कहान सिंह, धन्ना सिंह, गज्जन सिंह, जनक राज, गुरदेव सिंह, गुरजंत सिंह, बलजिंदर सिंह,लखवीर सिंह, करनैल सिंह, राजिंदर कौर, गुरमेल कौर, मेवा सिंह, अजय कुमार, कश्मीर सिंह ,बाबू सिंह, वीना रानी, सुखमिंदर सिंह धेपी,सोहन लाल शर्मा, मोनित बसु, विकलांग किसान मनोज शर्मा, रवि कुमार बंगा को याद कीजिए, सात सौ किसानों की मौत हुई है और इन लोगों ने किसी संगठन के भड़काने के नाम पर अपनी जान नहीं दी. ग्वालियर के सरदार सुरिंदर सिंह तो भाजपा के ही कार्यकर्ता थे. आजीवन बीजेपी के लिए काम करते रहे. लेकिन आंदोलन में क्या आ गए, बीजेपी के लिए बेगाने हो गए. उनकी मौत पर भी बीजेपी ने शोक नहीं जताया.
किसान आंदोलन के दौरान अलग अलग कारणों से मरने वाले किसान छोटे किसान थे लेकिन सरकार इन्हें पिज्जा खाने वाला किसान बोल रही थी. एक कमरे के दायरे में गुज़ारा करने वाली कुसुम देवी के पति अमरपाल की 25 दिसंबर 2020 को टिकरी बोर्डर पर मौत हो गई थी. बच्चे आज भी पिता को याद करते हैं. कानून वापस लिए जाने की खबर उन्हें ठीक भी लगी और बुरी भी. पति की मौत याद आ गई. उसी तरह मंशा जिले के खीवा दयालुवाला गांव के लखविंदर सिंह अपनी मां को याद कर भावुक हो उठे. उनकी मां सुखविंदर कौर किसान आंदोलन का हिस्सा थीं, नहीं रहीं. सिंघु बोर्डर पर एक ट्रक ने सुखविंदर कौरस अमरजीत कौर और गुरमैल कौर को कुचल दिया था.
राम मनोहर लोहिया इसी देश की संसद के सदस्य थे, जिन्होंने कहा था "अगर सड़कें ख़ामोश हो जाएंगी तो संसद आवारा हो जाएगी". भारत का किसान खेती के हर सीजन में घाटा सहता है, घाटे और कर्ज़े के कारण वह टूट चुका है, आत्महत्या करने के लिए मजबूर हो जाता है. वह ग़रीब किसान इस देश के लोकतंत्र के फायदे के लिए हर मौसम में मार खाता रहा. मरता रहा. अपनों के द्वारा बिछाई जा रही कीलों और बरसाए जा रहे कोड़ों की मार सहता रहा. क्या यह कोई मामूली बात है?
दौसा से बीजेपी की सांसद जसकौर मीणा ने कहा है कि आंदोलन में शामिल किसान आतंकवादी है और AK-47 लेकर बैठे हैं कांग्रेस ने इनके बयान को ट्विट किया है और इसे समाचार एजेंसी पीटीआई ने भी खबर के रूप में जारी किया है.
12 दिसम्बर 2020 के PT से पीयूष गोयल "दिल्ली में किसान नहीं... खालिस्तान और पाकिस्तान जिंदाबाद वाले लोग बैठे हैं.
आंदोलन पर बैठे किसानों को बीजेपी के वरिष्ठ विधायक और बिहार के कृषि मंत्री अमरेंद्र प्रताप सिंह ने आंदोलन पर बैठे किसानों को दलाल कहा है.
इन भाषणों को याद करना चाहिए. याद रखना चाहिए. प्रधानमंत्री जिस समय कह रहे थे कि वे किसानों से सिर्फ एक फोन कॉल की दूरी पर हैं, उसी समय किसानों की राह में कीलें बिछाई जा रही थीं. मिस्ड कॉल से बीजेपी दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी बन गई लेकिन आज तक किसानों के फोन पर प्रधानमंत्री का मिस्ड कॉल नहीं आया. आज भी नहीं.
अंग्रेज़ों ने हाथ और पांव में बेड़ियां पहनाईं, लेकिन आज़ाद भारत की सरकार ने कीले गाड़ दीं, ताकि किसानों के पांव ठहर जाएं. भारत का किसान जो हर दिन अपने खेतों से कांटे निकालता रहता है, सरकार के बिछाए इन कांटों को झेल गया. प्रधानमंत्री किसानों को समझ नहीं रहे थे बल्कि अपनी ताकत समझा रहे थे कि सरकार चाहे तो क्या क्या कर सकती है. किसानों के दिल्ली आने के रास्ते में बड़े-बड़े बोल्डर लगा दिए गए हैं, कंटेनर लगा दिया गया है ताकि उसे पार कर किसान दिल्ली न आ सकें. किसानों को दिल्ली नहीं आने दिया. सुभाष चंद्र बोस का नारा था, दिल्ली चलो, जब यह नारा किसानों का हुआ तो दिल्ली वाली सरकार को खटक गया. मैं दिल्ली के लोगों की भी बात कर रहा हूं जो साल भर ट्रैफिक जाम में रहते हैं, लेकिन किसानों के कारण ट्रैफिक का जाम ज्यादा खटकने लगा. किसानों ने देख लिया कि लोकतंत्र का रास्ता जाम कर दिया गया है. आज किसानों ने जाम से परेशान इस लोकतंत्र का एक छोटा सा रास्ता खोल दिया है.
टूल किट का बवाल खड़ा किया कि अंतर्राष्ट्रीय ताकतें देश के खिलाफ लगी हैं. 20 साल की दिशा रवि के साथ क्या हुआ. गोदी मीडिया को आगे कर एक भीड़ खड़ी की गई किसानों के खिलाफ. गोदी मीडिया के ज़रिए पहले मिडिल क्लास को किसानों के विरोध में खड़ा किया गया फिर उस मिडिल क्लास को महंगाई से मरता छोड़ दिया गया. मिडिल क्लास के पास महंगाई का समर्थन करने के अलावा कोई चारा ही नहीं रहा. वह किसानों के पास जाता भी तो किस मुंह से जाता.
क्या प्रधानमंत्री और गृहमंत्री ने यह वीडियो देखकर तब किसानों को नहीं समझा होगा जब उनके मंत्री की जीप इन किसानों को कुचल रही थी और गोदी मीडिया के ज़रिए देश की जनता को झूठ परोसा जा रहा था कि किसान हिंसक थे. तभी यह वीडियो आया था, जिसमें आप गृहमंत्रालय की लाल कालीन पर गृह राज्य मंत्री अजय मिश्रा को इस तरह चल कर जाते हुए देखते रहे जैसे जीप से कुचलने के बाद इस कालीन पर आहत किसानों की आत्मा रौंदी जा रही हो.जिस दरवाज़ें पर यह वीडियो खत्म होता है वह गृहमंत्री अमित शाह का कमरा है. क्या प्रधानमंत्री ने अपने मंत्री अजय मिश्रा के उस बयान को नहीं सुना होगा जिसमें वो कह रहे थे कि दो मिनट लगेगा यहां से खाली करा देने में.
अगर किसानों के प्रति नीयत होती, नीयत में पवित्रता होती तो इतना सब होने के बाद भी अजय मिश्रा मंत्री पद पर नहीं रहते जिनका बेटा इस केस में जेल में हैं और सुप्रीम कोर्ट हर सुनवाई में फटकार रहा है कि बचाने की कोशिश हो रही है. तालाबंदी के बीच किसानों को अंधेरे में रखकर अध्यादेश लाया जाता है. किसान आंदोलन करते हैं फिर संसद में कानून पास होता है. सरकार कोर्ट में किसानों के खिलाफ केस लड़ती है. इसलिए जब कृषि कानूनों को वापस लेने के लिए प्रधानमंत्री मोदी प्रकाश परब को चुनते हैं तो बहुत सारे उनके फैसलों और चुप्पियों को भी रोशनी में लाना ज़रूरी है जिन्हें अंधेरे में रखने की कोशिश की जा रही है.
"मैं आज देशवासियों से क्षमा मांगते हुए सच्चे मन से और पवित्र हृदय से कहना चाहता हूं कि शायद हमारी तपस्या में ही कोई कमी रही होगी जिसके कारण दिए के प्रकाश जैसा सत्य खुद किसान भाइयों को हम समझा नहीं पाए"
जिन किसानों को साल भर आतंकवादी कहा जा रहा था, उन्हें कब दीये के प्रकाश जैसा सत्य समझाने की कोशिश हुई. जनवरी के बाद से सरकार ने किसानों से बात नहीं की है. तपस्या किसानों ने की लेकिन प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि उनकी तपस्या में कोई कमी रह गई. 700 किसानों ने जान दी लेकिन तपस्या प्रधानमंत्री कर रहे थे. आज भी उन्होंने किसानों के आंदोलन को कुछ किसानों का आंदोलन कहा. यानी कानून वापस हुआ है, किसान आंदोलन के प्रति नज़रिया वापस नहीं हुआ है. सरकार अब भी इन किसानों को अमीर किसान, कुछ किसान की तरह देख रही है.
हां लाभार्थी किसानो को लाया गया था. ये थी सरकार की तपस्या. किसानों के खिलाफ किसान सम्मेलन के ज़रिए अपना किसान खड़ा करने की. तपस्या यह साबित करने की थी कि किसानों के आंदोलन में कुछ किसान हैं, अमीर किसान हैं. सरकार ने किसान आंदोलन के खिलाफ भयंकर प्रचार युद्ध छेड़ दिया. राज्य सभा में कांग्रेस सांसद नासिर हुसैन और राजमणि पटेल के सवाल के जवाब में कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने कहा था कि सितंबर 2020 से जनवरी 2021 केवल पांच महीने में सवा सात करोड़ से अधिक की राशि खर्च की गई. कृषि कानूनों से जुड़े भ्रामक बातों के प्रचार को खत्म करने के ऊपर. करीब 68 लाख रुपये की लागत से फिल्में बनाई गईं किसानों को समझाने के लिए. (यहां पर हरियाणा वाला वीडियो) अगर प्रधानमंत्री किसानों के लिए तपस्या कर रहे होते तो सर फोड़ने वाले वीडियो के बाद हरियाणा की सरकार उस अफसर के बचाव में नहीं आती और जिसके खिलाफ कार्रवाई के लिए किसानों को आंदोलन नहीं करना होता. अगर प्रधानमंत्री तपस्या कर रहे होते तो अजय मिश्रा आज मंत्री नहीं होते.
शायद तपस्या में इस बात की कमी रह गई होगी कि कीलें कम बिछी होंगी, सर कम फोड़े गए होंगे, किसानों पर जीपें कम चली होंगी. अगर बात तपस्या और नीयत की होती तो यह बात किसानों को बुलाकर कही जा सकती थी लेकिन प्रधानमंत्री ने इसका एलान भी एकतरफा तरीके से किया. जिस तरीके से अध्यादेश के ज़रिए यह कानून लाया गया था. किसानों को पता है कि यूपी का चुनाव है, इसलिए वापस हुआ है, ताकि उनके बीच बीजेपी के नेता जा सकें. शायद इसीलिए किसानों ने तुरंत आंदोलन के खत्म होने का एलान नहीं किया. वे कह रहे हैं कि कानून वापस लेना एक मांग है, उनकी और भी मांग हैं जैसे MSP की गारंटी देना. बिजली संशोधन विधेयक की वापसी की मांग भी अभी बाकी है.
प्रधानमंत्री राष्ट्र के नाम संदेश के लिए अलग-अलग समय का चुनाव करते हैं. आज सुबह 9 बजे जब आप दफ्तर जाने की आपा-धापी में थे, नहा रहे थे, नाश्ता कर रहे थे और ट्रैफिक जाम में थे तब उनका राष्ट्र के नाम संदेश आया. उनके भाषण में नेक नीयत, पवित्रता, शुद्ध विशुद्ध, हित, उज्ज्वल भविष्य, कल्याण, प्रगतिशीलता, प्रयास जैसे शब्दों की भरमार थी. उन्होंने कहा कि साल भर किसानों को विनम्रता से समझाने की कोशिश की गई. प्रधानमंत्री अगर संसद में इस कानून को लेकर दिए गए भाषण को एक बार सुन लें तो तपस्या की तरह विनम्रता पर भी उन्हीं की कापीराइट फिक्स हो जाएगी. आप ध्यान से सुनिए इस भाषण में प्रधानमंत्री उन्ही शब्दों का मज़ाक उड़ा रहे हैं जिनसे भाषण बनता है, किसी आंदोलन की तस्वीर बनती है.
"हम लोग कुछ शब्दों से बड़े परिचित हैं. श्रमजीवी, बुद्धिजीवी. लेकिन मैं देख रहा हूं पिछले कुछ दिनों में एक नई जमात इस देश में पैदा हुई है. एक नई बिरादरी सामने आई है और वो है आंदोलनजीवी. ये जमात आप देखोगे, वकीलों का आंदोलन है, वो वहां नज़र आएंगे, स्टूडेंट का आंदोलन है, वो वहां नज़र आएंगे. मज़दूर का आंदोलन है, वो वहां नज़र आएंगे. कभी परदे के पीछे कभी परदे के आगे. एक पूरी टोली है ये. जो आंदोलनजीवी हैं, वो आंदोलन के बिना जी नहीं सकते और आंदोलन को जीने के लिए रास्ते खोजते रहते हैं. हमें ऐसे लोगों को पहचानना होगा."
कानून लाने और वापस लाने के बीच प्रधानमंत्री कितना बदले हैं या उनकी मजबूरियां बदली हैं, ये देखना आपका भी काम है. यह जानने की बात तो है कि केवल कानून वापस हुआ है या इस आंदोलन को लेकर नज़रिया भी? जिस नज़रिए में आंदोलन के प्रति घृणा थी, क्या वो भी वापस हुई है.
राहुल गांधी ने आज अपना यह वीडियो ट्विट किया है, जिसमें उन्होंने 14 जनवरी 2021 को कहा था कि किसानों की ताकत के आगे सरकार मजबूर होगी ये कानून वापस लेने को. राहुल गांधी का तब भी मज़ाक उड़ा, लेकिन राहुल ने इस कानून के खिलाफ स्पष्टता से स्टैंड लिया. तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी ने अपने सांसदों को आंदोलन स्थल पर भेजा, उनसे बात की. समाजवादी पार्टी ने हमेशा आंदोलन का साथ दिया और अन्य विपक्षी दलों ने भी. अखिलेश यादव ने ट्विट किया है कि समाजवादी पार्टी को मिल रहे समर्थन से घबराकर चुनावी फैसला हुआ है. सरकार यही कहती रही कि विपक्ष किसान को भड़का रहा है, ये कुछ किसान हैं. तो फिर सरकार बताए कि कुछ किसानों को ही भड़काया था तो ये कानून क्यों वापस लिया, यूपी चुनाव के कारण या आंदोलन के कारण.
2015 में मोदी सरकार भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन का बिल लेकर आई. उस समय बहुमत के जोश से लबालब सरकार कुछ भी कर सकती थी लेकिन राहुल गांधी ने सिर्फ सूट-बूट की सरकार कह दिया कि लाखों रुपये का सूट नीलाम करना पड़ा. अगर राज्यसभा में सरकार के पास बहुमत होता तो यह संशोधन कानून बन जाता. फिर उसके बाद राज्यों के ज़रिए उन संशोधनों को लागू कराया गया. इसी साल अगस्त में हरियाणा ने भूमि अधिग्रहण कानून में एक संशोधन किया है, PPP प्रोजेक्ट के लिए ज़मीन लेने से पहले सत्तर प्रतिशत किसानों की रज़ामंदी ज़रूरी नहीं होगी. सवाल यही है कि क्या भूमि अधिग्रण की तरह यह कानून भी अब पिछले दरवाज़े से टुकड़ों टुकड़ो में राज्यो के रास्ते लागू किया जाएगा? एक संयोग और है. 2015 में भी बिहार का चुनाव होने वाला था, इसलिए भूमि अधिग्रहण बिल पास कराने की ज़िद सरकार ने छोड़ दी और एक कमेटी को भेज भूल गई. 2019 में बिल लैप्स हो गया. यूपी चुनाव न होता तो क्या कानून वापस होता?
क्या यह संयोग था कि यूपी चुनाव की तरह 2015 में बिहार चुनाव था इसलिए इस बिल को कमेटी के हवाले कर दिया, जो 2019 में लैप्स हो गई. इसलिए चुनाव का होते रहना बहुत ज़रूरी है. किसानों ने इस आंदोलन में कई पड़ाव हासिल किए. हिन्दू मुस्लिम में बांटने का प्रयास हुआ तो मुज़फ्परनगर दंगों को लेकर माफी मांगी. मुज़फ्फरनगर की महापंचायत में राकेश टिकैत ने अल्ला-हू-अकबर, जय श्री राम और वाहे गुरु के नारे को ज़िंदा किया. उसी मैदान और मंच से पश्चिमी यूपी में हिन्दू मुस्लिम नफरत की आग फैलाई गई थी, उसी मंच से उस आग पर पानी डाल दिया गया. दंगों को लेकर किसानों का प्रायश्चित करना छोटी घटना नहीं है. मुमकिन है फिर से नफरत की यह आंधी चलने लगे, लेकिन किसानों को याद रहेगा कि जब लाठियां पड़ेगीं तो यही एकता उनकी जान बचाएगी.
यह आंदोलन केवल कृषि मुद्दों के लिए नहीं था. UAPA के तहत बंद किए गए उन सामाजिक कार्यकर्ताओ की रिहाई का मसला भी इनसे जुड़ गया, जिनके बारे में अखिलेश यादव और राहुल गांधी कभी साफ साफ नहीं कहते हैं. मगर किसानों ने इन सभी का बैनर उठाकर बता दिया कि वे लोकतंत्र और नागरिक अधिकारों के लिए लड़ने आए हैं. संयुक्त किसान मोर्चा ने बाद में खुद को इससे अलग कर लिया, लेकिन विचाराधीन कैदियों का यह मामला आंदोलन की स्मृति का हिस्सा बना रहा. वरवरा राव, सुधा भारद्वाज, शरज़ील इमाम, उमर खालिद, गौतम नवलखा, सुरेन्द्र गाडलिंग, ख़ालिद सैफ़ी. स्टैन स्वामी, गौतन गिलानी, नताशा नरवाल, देवंगाना कालिता,. नताशा नरवाल के पिता महावीर नरवाल को किसानों ने मंच पर भी बुलाया. नताशा के पिता अब इस दुनिया में नहीं हैं और न स्टैन स्वामी.
सरकार के अनुसार यह आंदोलन कुछ किसानों का हो सकता है, मगर इस आंदोलन में जो सवाल उठे उनका संबंध कुछ से ही नहीं, बहुतों से था. किसानों ने हर अपमान को सहा है और आंदोलन की ताकत को स्थापित किया है. उस सिविल सोसायटी को खड़ा कर दिया जिसे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार युद्ध का चौथा मोर्चा बता रहे थे. जिस आधार पर डोभाल ये बात कह रहे थे उस आधार पर किसान आंदोलन और नागिरकता कानून विरोधी आंदोलन को भी निशाना बनाया गया. हम नहीं जानते कि किसानों का आंदोलन आखिरी आंदोलन है या शुरूआत है. शायद पुलिस और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बेहतर जानते होंगे.
उस दिल्ली की सरकार के बुलावे पर जाने के बाद भी नीचे बैठकर अपनी रोटी खाई है. यह दृश्य किसान आंदोलन का सबसे बड़ा प्रतिकार है. यह अपने आप में आंदोलन के भीतर एक आंदोलन था, जो किसान पूरे देश और उसकी सरकार को खिलाता है, उस सरकार से बातचीत के वक्त खुद से बनाकर लाई गई रोटी खाता है. प्रधानमंत्री अगर तपस्या कर रहे होते तो उसी वक्त इन किसानों का हाथ पकड़ कर ज़मीन से उठा लेते और कहते कि या तो आप हमारे साथ खाइये या मैं नीचे बैठकर आपके साथ खाऊंगा. इसलिए तपस्या प्रधानमंत्री ने नहीं की, किसानों ने की.
सुप्रीम कोर्ट ने पूछा था कि कानून पर रोक लगा दी है तो आंदोलन क्यों. किसानों ने कहा था कि वे वापस लेने की मांग कर रहे हैं. अगर आंदोलन न चलता तो कानून वापस नहीं होता. किसानों आंदोलन की तपस्या महिला किसानों की भागीदारी के बिना पूरी नहीं हो सकती थी. जो केवल ट्रैक्टर की ट्राली पर बैठकर नहीं आईं बल्कि ट्रैक्टर चला कर भी आईं. कार्यकर्ता बनी और उसमें से नेता बनीं. कानून को समझा और दूसरों को समझाया. रोटियां बेलने नहीं बल्कि आंदोलन का नेतृत्व करने आईं. चंदा जमा करने और प्रबंध करने आई थीं. शौचालय नहीं थे कोई छत नहीं था फिर भी यहां टिकी रहीं. लाठियों की मार सहीऔर जेल भी गईं. आठ मार्च के महिला दिवस के मौके पर टिकरी बोर्डर पर बसों से लाखों महिलाएं आ गईं. किसान संसद के दौरान जंतर मंतर पर महिला किसानों ने भी संसद लगाई.तपस्या की तस्वीर ये है न कि प्रधानमंत्री का भाषण.
किसानों को पता था कि कृषि कानूनों को वापस होना ही है, बिना इस यकीन के वे यहां तक आंदोलन को खींच नहीं पाते. आंदोलन स्थ्ल पर कभी पानी की सप्लाई काट दी गई तो कभी बिजली की. मुकदमे हुए तब भी टिके रहे. कई साथी मर गए तब भी टिके रहे. याद कीजिए राकेश टिकैत का रोना और दिवंगत अजीत सिंह का फोन जाना कि हम आपके साथ हैं. आज चौधरी अजीत सिंह इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन उस एक फोन ने हार चुके आंदोलन में जान डाल दी थी.
किसान आंदोलन को आप नागरिकता कानून के विरोध में हुए आंदोलन से अलग नहीं कर सकते. उस आंदोलन के साथ जो ज्यादतियां हुईं, बर्बरता हुई वो किसान आंदोलन के साथ भी हुई लेकिन किसी कारण से किसान आंंदोलन ने सांप्रदायिक सोच का बेहतर मुकाबला किया.
शाहीन बाग का आंदोलन मुस्लिम अल्पसंख्यक के खांचे में बिठा दिया गया और यही कोशिश किसान आंदोलन में सिख किसानों को लेकर हुई, उन्हें खालिस्तानी कह दिया गया लेकिन सिख किसानों और बाकी किसानों ने मिलकर इस प्रोपेगैंडा का बेहतर मुकाबला किया. गोदी मीडिया को हरा दिया और अपने बीच से भगा दिया. इस मामले में शाहीन बाग को ऐसा साथ नहीं मिला. जबकि उन पर गोलियों से हमला करवाया गया और गोली मार देने के नारे लगाए गए. अमित शाह का बयान है कि वोटिंग मशीन ऐसे दबाना है कि शाहीन बाग तक करंट पहुंचे. प्रधानमंत्री ने कपड़ों से पहचानने की बात की थी. दोनों आंदोलनों में दो अलग अल्पसंख्यक समुदाय के अलग-अलग अनुभव हैं. लेकिन शाहीन बाग़ के आंदोलन ने इस बात की याद दिलाई कि टिककर लंबे समय के लिए आंदोलन करना होगा. शाहीन बाग की असफलता किसान आंदोलन की सफलता है.असम में जब विधान सभा चुनाव हो रहे थे, तब बीजेपी ने नागरिकता कानून लागू करने की बात ही छोड़ दी. यूपी में चुनाव होने वाले हैं तो बीजेपी ने कृषि कानून लागू करने की बात छोड़ दी. किसानों ने आज आपको लोकतंत्र वापस किया है, उनके सम्मान में आज ठीक से घी लगी एक रोटी एक्सट्रा खा लीजिए, ब्रेक ले लीजिए