राहुल गांधी और सिद्धू की लोकसभा में एंट्री एक साथ ही 2004 में हुई थी. इसे एक संयोग ही माना जाना चाहिए कि 17 वर्षों के बाद दोनों में राजनीतिक परिपक्वता की कमी आज भी दिख रही है. कोई परिपक्व नेता चुनाव के ठीक पहले ऐसी हरकतें, जिससे पार्टी को नुकसान हो नहीं कर सकता. और सिद्धू जैसे नेता पर विश्वास कोई परिपक्व नेता नही कर सकता.
पहले पद लेते हैं फिर देते हैं इस्तीफा
सिद्धू को कांग्रेस पार्टी में शामिल हुए अभी पांच साल भी नहीं हुआ है और यह उनका पहला इस्तीफा भी नहीं है. सिद्धू के इस्तीफे के पीछे कभी कोई ठोस कारण नहीं होता है. 2004 और 2009 के बीच सिद्धू अमृतसर सीट से लगातार तीन बार बीजेपी के टिकट पर लोकसभा के लिए चुने गए. 2014 के चुनाव में सहयोगी अकाली दल के दबाव में बीजेपी ने सिद्धू को लोकसभा चुनाव का टिकट नहीं दिया. इसके एवज में बीजेपी ने उन्हें अप्रैल 2016 में राज्यसभा सदस्य बनाया और तीन महीने से भी कम समय में सिद्धू ने राज्यसभा और बीजेपी से इस्तीफा दे दिया. उस समय भी सवाल उठा था कि अगर सिद्धू को बीजेपी छोड़ना ही था तो फिर उन्होंने राज्यसभा की सदस्यता क्यों स्वीकार की.
एक बार फिर से वही नज़ारा दिखा है. जुलाई में काफी जद्दोजहद के बाद सिद्धू को पंजाब कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया. सिद्धू तीन महीनों तक भी पद पर नहीं रहे और अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया. सवाल घूम कर वहीं आता है कि अगर सिद्धू को किसी पद पर बैठना ही नही है तो वह पद ग्रहण करते ही क्यों हैं?
बीजेपी छोड़ने के बाद सिद्धू ने अपनी पार्टी बनाई और चंद महीनों में ही उसे भंग कर दिया. फिर आम आदमी पार्टी में उनके शामिल होने की बात हुई और यह तय हो गया कि आम आदमी पार्टी की तरफ से वह मुख्यमंत्री के दावेदार बनाये जाएंगे. पर ऐन वक़्त पर सिद्धू ने आम आदमी पार्टी को ठेंगा दिखा दिया और कांग्रेस में शामिल हो गए. कांग्रेस ने उन्हें विधायक और मंत्री बनाया पर दो वर्ष में ही सिद्धू ने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया.
क्या सच में सिद्धू कांग्रेस की ईंट से ईंट बजा देंगे
पंजाब में चुनाव के नज़दीक आते ही सिद्धू ने मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. मजबूरन पार्टी ने उन्हें यह सोच कर सुनील जाखड़ जैसे नेता को हटा कर अध्यक्ष पद सौंप दिया कि वह चुनाव में पार्टी की जीत के लिए काम करेंगे. अध्यक्ष बनने के कुछ समय बाद सिद्धू ने पार्टी की ईंट से ईंट बजाने की धमकी दे डाली, अगर उन्हें निर्णय लेने का अधिकार नहीं दिया गया तो. कांग्रेस पार्टी उनके सामने झुक गयी और अमरिंदर सिंह को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा. सिद्धू के चहीते चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाया गया. अब चन्नी को मुख्यमंत्री बनाने के कुछ ही दिनों बाद सिद्धू ने कल सच में ही कांग्रेस पार्टी की ईंट से ईंट बजाने का कार्यक्रम शुरू कर दिया.
माना जा रहा था कि चन्नी सिर्फ चुनाव तक ही मुख्यमंत्री रहेंगे और चुनाव जीतने की स्थिति में सिद्धू मुख्यमंत्री बनेंगे. कांग्रेस के पंजाब प्रभारी हरीश रावत ने घोषणा तक कर दी कि अगला चुनाव सिद्धू के नेतृत्व में लड़ा जाएगा. कांग्रेस आलाकमान ने बाद में सफाई दी कि चुनाव सिद्धू और चन्नी दोनों के नेतृत्व में लड़ा जाएगा, जो शायद सिद्धू को रास नहीं आया.
राहुल गांधी ने सिद्धू जैसे अस्थिर नेता को क्यों सौंपी पार्टी की बागडोर
माना जा रहा है कि सिद्धू चन्नी से नाराज़ हैं और उन्हें यह महसूस होने लगा था कि चन्नी उनकी अवहेलना आलाकमान के सह पर कर रहे हैं. चन्नी ने कुछ मंत्रियों को सिद्धू के विरोध के वावजूद अपने मंत्रीमंडल में शामिल किया और विभागों के बंटवारे में, और सरकार में कुछ बड़े पदों पर नियुक्तियों में भी चन्नी ने सिद्धू की नहीं मानी. लगता है कि चन्नी को अस्थायी मुख्यमंत्री बनना या फिर एक कठपुतली बनना पसंद नहीं था. अभी स्थिति स्पष्ट नहीं है कि चन्नी ने सिद्धू की अनदेखी अपने मर्ज़ी से की या फिर पार्टी आलाकमान नहीं चाहता था कि सिद्धू का कद बहुत बढ़ जाए.
बहरहाल राहुल गांधी की बुद्धिमत्ता पर शक स्वाभाविक है कि सिद्धू जैसे अस्थिर नेता को कैसे उन्होंने चुनाव के कुछ ही महीनों पहले पार्टी की बागडोर सौंप दी. जब निर्णय उनका था तो नतीजा भी उन्हें ही भुगतना पड़ेगा. सिद्धू ने अपने इस्तीफे से पहले जाखड़ और अमरिंदर सिंह की छुट्टी करवा दी थी और अब कोई चमत्कार ही कांग्रेस पार्टी की पंजाब में लुटिया डूबने से बचा सकती है. 2016 में जब सिद्धू ने राज्यसभा और बीजेपी से इस्तीफा दिया था तो वह बीजेपी की ईंट से ईंट नही बजा पाए थे, पर इतना तय है कि अगर कांग्रेस आलाकमान उन्हें मनाने में असफल रही तो सिद्धू कांग्रेस पार्टी की ईंट से ईंट ज़रूर बजा देंगे.