आरक्षण का अस्त्र

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण के प्रावधान को असंवैधानिक ठहराए जाने के बाद अब वहां इस मुद्दे पर राजनीति शुरू होगई है।

Update: 2021-05-07 02:04 GMT

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण के प्रावधान को असंवैधानिक ठहराए जाने के बाद अब वहां इस मुद्दे पर राजनीति शुरू होगई है। महाराष्ट्र सरकार ने गेंद केंद्र सरकार के पाले में डालते हुए कहा है कि जिस तरह उसने अनुच्छेद तीन सौ सत्तर और अन्य मसलों पर विशेष प्रावधान किए, उसी तरह मराठा आरक्षण मामले में भी दखल दे। पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने कहा है कि राज्य सरकार की तरफ से अदालत में अपना पक्ष सही तरीके से नहीं रखा गया, जिसके चलते यह प्रावधान रद्द हो गया।

सर्वोच्च न्यायालय ने मराठा आरक्षण को यह कहते हुए रद्द कर दिया है कि पचास फीसद से अधिक आरक्षण का प्रावधान किए जाने से समानता के सिद्धांत को ठेस पहुंचती है। हालांकि फडणवीस सरकार के समय 2018 में आरक्षण संबंधी सभी कानूनी पहलुओं पर विचार करने के बाद ही इसे पारित किया गया था। यह पहला मामला नहीं है, जब किसी राज्य सरकार द्वारा लागू आरक्षण की सीमा पचास प्रतिशत से अधिक होने पर अदालत ने उसे रद्द कर दिया। इसके पहले राजस्थान, हरियाणा जैसे कई राज्यों में ऐसा हो चुका है, फिर भी हैरानी की बात है कि तत्कालीन महाराष्ट्र सरकार ने मराठा आरक्षण को पचास फीसद से अधिक की सीमा पार करने के बावजूद पारित किया।
दरअसल, शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण का मसला अब राजनीतिक दलों के लिए अपना वोट बैंक बढ़ाने का जरिया बनता गया है। इसलिए अक्सर जो भी पार्टी सत्ता से बाहर रहती है वह आरक्षण की मांग कर रही जातियों को उकसाती, उनके लिए आरक्षण की मांग उठाती और सत्ता में आने पर उसे लागू करने के वादे करती देखी जाती है।
भारतीय संविधान में आरक्षण का प्रावधान उन जातियों और समुदायों के लिए किया गया था, जो समाज में सुविधाओं से वंचित रहते आए हैं। मगर इस प्रावधान के पीछे मकसद यह भी था कि जब वंचित जातियां और समुदाय आरक्षण का लाभ पाकर समाज की मुख्य धारा से जुड़ जाएंगे या उनकी आर्थिक स्थिति सुदृढ़ हो जाएगी तो धीरे-धीरे आरक्षण के प्रावधान को समाप्त कर दिया जाएगा। मगर यह मकसद शायद भुला दिया गया। अब वे जातियां भी अपने लिए शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण की मांग करती देखी जाती हैं, जो समाज में आर्थिक रूप से संपन्न मानी जाती रही हैं।
राजस्थान में गुर्जर, हरियाणा में जाट और गुजरात में पाटीदार ऐसी ही जातियों में शुमार रही हैं। मगर पिछले कुछ सालों से ये जातियां आरक्षण की मांग करते हुए कई बार उग्र आंदोलन पर उतरती देखी गई हैं। महाराष्ट्र में मराठा भी अपेक्षाकृत संपन्न समुदायों में ही गिने जाते रहे हैं।
जब अन्य पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया था, तब एक सुझाव यह भी जोरदार तरीके से दिया गया था कि जाति के आधार पर आरक्षण देने के बजाय आर्थिक स्थिति के आधार पर दिया जाना चाहिए। जो लोग आरक्षण का लाभ लेकर अब आर्थिक रूप से संपन्न वर्गों की श्रेणी में आ गए हैं, उन्हें इस प्रावधान से बाहर कर दिया जाना चाहिए। मगर कोई भी राजनीतिक दल इस सुझाव पर अमल करने की दिशा में आगे कदम नहीं बढ़ा पाया।
अब मराठा आरक्षण को रद्द करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने भी कहा है कि अगर सरकारें किसी कमजोर तबके के उत्थान के लिए कुछ करना चाहती हैं, तो उसके दूसरे भी तरीके हो सकते हैं। मराठा आरक्षण पर सर्वोच्च न्यायालय का ताजा फैसला राज्य सरकारों के लिए एक और सबक है कि इस दिशा में तर्कसंगत ढंग से विचार किया जाना चाहिए।

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