धर्म जो धारण किया जा सके

उस दिन गंगा दशहरा था। मैंने बृजघाट के पुल से दोनों तरफ गंगा को निहारा

Update: 2022-06-11 16:46 GMT

शशि शेखर

उस दिन गंगा दशहरा था। मैंने बृजघाट के पुल से दोनों तरफ गंगा को निहारा। दूर-दूर तक सिर्फ और सिर्फ स्नान करते हुए लोगों का विशाल समूह। कोई कोलाहल नहीं, आवेग नहीं, अफरा-तफरी भी नहीं। अगर कुछ था, तो बस प्रवाह और निरंतरता।
बचपन से सुनता आया हूं- धारयति इति धर्म:, यानी जो धारण करने योग्य है, वही धर्म है। चारों ओर पसरे श्रद्धालुओं के लिए यह भाव पीढ़ियों की विरासत है। ध्यान रहे, इन लोगों के लिए अपनी आस्थाएं पोसते वक्त दूसरों को कोसना कतई जरूरी नहीं। मुस्लिम आक्रांताओं के काल में इनमें से कुछ के भाई-बंधुओं ने दूसरा धर्म धारण कर लिया, पर वे भी अपने जातिगत नामों का मोह नहीं छोड़ पाए। आज तक चौहान, त्यागी, मलिक, पटेल और ऐसे तमाम उपनाम हैं, जो इधर भी हैं, उधर भी। लगभग डेढ़ हजार वर्षों का इतिहास इन इधर-उधर के लोगों ने मिलकर बनाया है। इस दौरान वे बिला संकोच अपने धारण किए हुए धर्म का निर्वाह भी करते रहे।
इधर कुछ सालों से ऐसे तर्कों से सामाजिक विमर्श को प्रभावित करने की कोशिश की जा रही है, जिन्हें अब तक वर्जित माना जाता था। इन स्वघोषित इतिहासविदों को टीवी चैनलों के टीआरपी रोग का सहारा मिला और हमारी शामें इनका शिकार बन गईं। राम और रहीम को बांटते-बांटते ये लोग इतना फिसले कि फिसलते चले गए। पिछले दिनों भाजपा की प्रवक्ता नूपुर शर्मा और इसी पार्टी की दिल्ली इकाई के मीडिया प्रमुख नवीन कुमार जिंदल ने जोश में सीमा का कुछ ज्यादा अतिक्रमण कर दिया। वे बिसरा बैठे कि शियाओं, सुन्नियों, देवबंदियों, बरेलवियों और न जाने किन-किन में बंटा हुआ इस्लामी समाज दो मुद्दों पर कभी समझौता नहीं करता- पहला, पैगंबर मोहम्मद साहब और दूसरा, पवित्र धार्मिक पुस्तक कुरान।
सलमान रुश्दी ने भी जब अपनी किताब द सैटेनिक वर्सेज में तथाकथित तौर पर आपत्तिजनक बातें दर्ज की थीं, तब समूचा इस्लामी जगत इकट्ठा हो गया था। नतीजतन, आज तक रुश्दी सुरक्षा के साये में कैद हैं। तमाम प्रकाशकों और प्रशंसकों ने उनसे तभी पल्ला झाड़ लिया था। आज भी उन्हें सुनने और पढ़ने वालों में ज्यादातर लोग या तो इस्लाम विरोधी हैं अथवा कौतूहल के मारे हैं।
अब यही हाल नूपुर शर्मा और जिंदल का हो रहा है। सत्ता की सीढ़ियां जल्दी चढ़ने की फिराक में वे फिसल गए। अब उनकी पार्टी ने उनसे किनारा कर लिया। देश के विभिन्न शहरों में उनके खिलाफ मुकदमे दर्ज कर दिए गए हैं। अपने और करीबी परिजनों के जीवन की चिंता के साथ उन्हें लंबे समय तक कानूनी जद्दोजहद का भी सामना करना होगा।
बिला वजह इस विष-वमन ने भारत सरकार के सामने भी तमाम मुश्किलात खड़ी कर दी हैं। अरब देशों के अलावा ईरान और तमाम इस्लामी देशों ने न केवल इस पर सीधा प्रतिरोध दर्ज कराया, बल्कि आंखें तरेरने की भी कोशिश की। ईरान के विदेश विभाग ने तो गजब ही कर दिया। अपने मंत्री की भारत यात्रा के दौरान सम्मान का शुक्रिया अदा करने के बजाय खबर फैला दी कि हमारे विदेश मंत्री ने भारत के सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल से मुलाकात के दौरान भारत में पनप रहे 'नकारात्मक वातावरण' पर चर्चा की। भारत के विदेश मंत्रालय के खंडन के बाद ईरान ने अपनी वेबसाइट पर इस विस्तृत जानकारी को तरमीम कर दिया। इससे पहले तमाम इस्लामी देशों ने आवश्यकता से अधिक प्रतिक्रिया जताई। अल कायदा ने तो हिन्दुस्तान के तमाम हिस्सों में आत्मघाती हमलों की धमकी तक दे डाली। पिछले कई वर्षों से ये तमाम तत्व चुप थे।
यही नहीं, कानपुर को तो दंगे का सामना करना पड़ा। अगले जुमे, यानी गए शुक्रवार को भी समूचे देश में दोपहर की नमाज के बाद प्रदर्शन हुए। कई जगह पथराव, आगजनी और पनपती हिंसा को काबू में करने के लिए पुलिस ने बल प्रयोग तक किया। रांची में तो हिंसा के बाद 12 थाना क्षेत्रों में धारा-144 लगानी पड़ी। लगभग सभी जगह प्रदर्शनकारी नूपुर और जिंदल को सूली पर चढ़ाने की मांग तक कर रहे थे। मौका देख एआईएमआईएम ने भी बहती गंगा में हाथ धोने शुरू कर दिए हैं। अगर सियासी दखल का यह सिलसिला बढ़ा, तो भावनाओं का उफान बेलगाम हो सकता है।
प्रदर्शनों का यह सिलसिला कब और किस मोड़ पर कितनी कीमत वसूलकर खत्म होगा, कोई नहीं जानता।
यहां याद करना जरूरी है। मोदी सरकार ने लगभग दो साल पहले, जब साहसपूर्वक जम्मू-कश्मीर से न केवल अनुच्छेद 370 खत्म किया था, बल्कि उसका पूर्ण राज्य का दर्जा समाप्त करते हुए विभाजन भी कर दिया था, उस समय पाकिस्तान की हरचंद कोशिशों के बावजूद इन्हीं इस्लामी देशों ने इसे धार्मिक मुद्दा मानने से इनकार कर दिया था। यही वह मुकाम था, जहां से इमरान खान की सत्ता की लड़खड़ाहट शुरू हुई थी। भारत के मौजूदा विभाजनकारियों के लिए यह विस्मय का कारण था।
इसकी वजह यह थी कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद पहल करके इन देशों के साथ बेहद गरिमा एवं गरमाहटपूर्ण रिश्ते स्थापित किए थे। लेकिन गैर-जिम्मेदाराना बयानबाजी ने इस मैत्रीभाव को न केवल चोटिल किया, बल्कि विदेश और गृह मंत्रालय का भी काम बढ़ा दिया। यही नहीं, इससे अल्पसंख्यकों के अन्य तबकों में भी तरह-तरह की आशंकाएं पैदा हो गईं।
इससे पहले किसान आंदोलन के दौरान भी सिखों के लिए ऐसी ही अनर्गल बातें कही गई थीं। सयानों ने तभी खतरा जताया था कि संवेदनशील मुद्दों पर यदि पार्टियों के अधिकृत प्रवक्ता सार्वजनिक तौर पर ऐसी बयानबाजी करेंगे, तो माहौल बिगड़ सकता है। यह महीना 'ऑपरेशन ब्लू स्टार' की बरसी का भी है। उससे पहले और बाद में कैसी कत्ल-ओ-गारत मची थी! महान सिख कौम ने न केवल उसे गरिमापूर्वक भुलाया, बल्कि अपने बीच से देश विरोधी तत्वों को भी समाप्त करने में सक्रिय भूमिका अदा की। देश की नई पीढ़ी तो उन दिनों के दर्द से वाकिफ नहीं थी, पर ऐसे अनर्गल प्रलापों ने जख्मों के निशानों की नुमाइश करने की कोशिश की। इसे हर हाल में रोकना होगा। विदेशी सरजमीं पर बैठे मृतप्राय अलगाववादियों को भी इससे जीवनदान मिलता है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि सरकार, संगठन और संघ में बैठे हुए समझदार लोग इस सत्य-तथ्य को समझते हैं। यही वजह है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने पिछली 2 जून को सार्वजनिक तौर पर स्पष्ट कर दिया कि संघ राम जन्मभूमि आंदोलन के बाद कोई और आंदोलन नहीं चलाएगा। उन्होंने यहां तक कहा कि रोज एक नया मामला नहीं उठाना चाहिए, अब हमको कोई आंदोलन नहीं करना। केंद्र सरकार ने भी 32 लोगों के खिलाफ भड़काऊ बयानबाजी और अन्य संगीन धाराओं में मुकदमे दर्ज कर अपनी मंशा जाहिर कर दी है। सरकारी सूत्रों का कहना है, अभी इस सूची में कई नाम जुड़ सकते हैं।
क्या इतना काफी है?
यकीनन, यह प्रवाद तब तक नियंत्रित नहीं होगा, जब तक सभी दलों के अगुआ अपने प्रवक्ताओं के ऊपर स्पष्ट तौर पर लगाम कसने का उपक्रम नहीं करेंगे। इसी तरह, सभी दलों को अपने नेताओं-कार्यकर्ताओं के लिए स्पष्ट आचार संहिता बनाकर सार्वजनिक करनी होगी। गंगा को साफ करने के लिए पहले गंगोत्री को निर्मल और पावन बनाना जरूरी है।

सोर्स- Hindustan Opinion Column

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