संसद में श्री राजनाथ का यह उद्घोष कि भारत अपनी एक इंच जमीन भी किसी को नहीं लेने देगा, समस्त भारत के एक साथ उठ कर खड़ा होने का प्रतीक है। उनके वक्तव्य को संसद के दोनों सदनों के प्रत्येक दल के सदस्य ने गंभीरता से लिया है। मगर यह एक शुरूआत है जिसे हमें अंजाम तक पहुंचाना होगा और चीन को उसकी वास्तविक सीमा रेखा बतानी होगी क्योंकि उसके कब्जे में 1962 से 38 हजार वर्ग कि.मी. भूमि पड़ी हुई है जिसमें 1963 में नाजायज मुल्क ने पांच हजार वर्ग कि.मी. का और इजाफा चीन के साथ नया सीमा समझौता करके किया था और अपने कब्जे वाली कश्मीर की भूमि उसे सौगात में दे दी थी। फिर भी चीनी सेनाओं को पीछे लौटने के लिए मजबूर करके श्री सिंह ने भारत की दृढ़ इच्छा शक्ति का परिचय दिया है और सिद्ध किया है कि सामने वाला चाहे जितना शक्तिशाली ही क्यों न हो मगर भारत की समन्वित ताकत के आगे नहीं टिक सकता।
रक्षामन्त्री ने यह भी साफ कर दिया कि मई 2020 के बाद से अब तक चीन ने पेंगोंग झील के दोनों तरफ जो भी सैनिक निर्माण किया था उसे भी हटा दिया जायेगा और भारत की फौजें पहले की भांति लद्दाख के इस इलाके में अपने स्थान पर डटी रहेंगी। इसमें भी कोई दो राय नहीं है कि सबसे पहले स्वयं श्री सिंह ने विगत वर्ष जून महीने में यह स्वीकार किया था कि चीनी सैनिक बड़ी संख्या में लद्दाख के इलाके में भारतीय सीमा की तरफ घुस आये हैं जिन्हें वापस भेजने के लिए दोनों देशों के बीच कूटनीतिक व राजनयिक स्तर पर वार्ता शुरू की जायेगी।
एेसी वार्ताओं के कई दौरों के बाद चीन को झुकाने में भारत सफल हो पाया है। खास कर विगत सितम्बर महीने के बाद से स्वयं श्री सिंह से लेकर विदेश मन्त्री व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने चीन के अपने-अपने समकक्षों के साथ बात करके यह परिणाम पाया है। इससे स्पष्ट होता है कि रक्षामन्त्री के दिमाग में कहीं न कहीं यह जरूर है कि चीन से अपनी हड़पी हुई भूमि भी एक दिन वापस लेनी है। उन्होंने इसके साथ यह बताने में भी संकोच नहीं किया कि चीन अरुणाचल के 90 हजार वर्ग कि.मी. इलाके की भूमि पर भी विवाद पैदा करने से नहीं चूकता है। यह इस बात को रेखांकित करता है कि रक्षामन्त्री चीन से सीमा विवाद का निपटारा स्थायी रूप से चाहते हैं।
दरअसल चीन के साथ सम्बन्धों में कभी-कभी गफलत का आलम भी रहा है। खास कर तिब्बत जैसे स्वायत्तसासी स्वतन्त्र देश को 2003 में उसका अंग मान कर भारत ने इसी गफलत का परिचय दिया था क्योंकि लद्दाख के क्षेत्र में भारत की सीमाएं तिब्बत से ही लगती थीं और उसके साथ भारत के एेतिहासिक सांस्कृतिक, आर्थिक व सामाजिक मधुर सम्बन्ध थे। 1962 में उसने धोखे से लद्दाख के ऊपरी इलाके की जमीन पर ही कब्जा किया था। अब बदलते विश्व और इसकी राजनीति में चीन एक आर्थिक ताकत के रूप में उभर चुका है और पूरे दक्षिण एशिया व एशिया में अपनी दादागिरी चलाना चाहता है।
भारत इस क्षेत्र में उसे अपना सबल प्रतिद्वन्द्वी लगता है और अमेरिका से आर्थिक प्रतियोगिता के चलते वह भारत को अपने दबाव में रखना चाहता है। मगर वह भूल जाता है कि आज का भारत 1962 का भारत नहीं है बल्कि यह भी परमाणु शक्ति बन चुका है और इसकी आर्थिक में भी बहुत तेजी के साथ इजाफा हो रहा है। अतः सामरिक द्वन्द का हौवा खड़ा करना चीन के ही विरुद्ध जायेगा। दक्षिण एशिया में भारत की रणनीतिक स्थिति एेसी है कि चीन को भी इसकी जरूरत है और अमेरिका को भी। मगर यह सब कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि भारत अपना कूटनीतिक 'कार्ड' किस चतुराई के साथ चलता है।
श्री राजनाथ सिंह की घोषणा से तो यही उजागर होता है कि भारत ने अपना 'पत्ता' इस तरह चला है कि चीन को अपनी गलती महसूस हो गई है और वह नियंत्रण रेखा का सम्मान इस पर पूर्ववत् यथास्थिति बनाये रखने और दोनों देशों के बीच हुए सभी समझौतों को मानने की ओर अग्रसर हो रहा है परन्तु इस कार्य में भारत की जांबाज सेना को भी बराबर का श्रेय जाता है जिसके जवानों ने अपनी जान बाजी लगा कर भारतीय सीमाओं की रक्षा की।