न्याय का सवाल: न्यायिक तंत्र को और अधिक समर्थ, त्वरित और संवेदनशील बनाने की भी जरूरत

न्याय का सवाल

Update: 2021-09-05 05:14 GMT
संजीव तिवारी. बार काउंसिल आफ इंडिया की ओर से आयोजित एक समारोह में सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश की उपस्थिति में कानून मंत्री किरन रिजिजू ने यह बिल्कुल सही कहा कि न्याय में देरी का मतलब न्याय न होना है, लेकिन यह बात तो पहले भी कई बार कही जा चुकी है और इसी तरह के मौकों पर कही जा चुकी है। विडंबना यह है कि इसके बावजूद हालात जस के तस हैं। अपने देश में न्याय में देरी बहुत आम है। कभी-कभी तो यह देरी एक किस्म की अंधेरगर्दी और अन्याय का परिचायक भी बन जाती है। समस्या केवल यह नहीं है कि लोगों को समय पर न्याय मिलने में देरी होती है, बल्कि यह भी है कि लंबित मुकदमों का बोझ लगातार बढ़ता चला जा रहा है।
यह बोझ इतना अधिक हो गया है कि अब उसे समाज और शासन के लिए वहन करना मुश्किल हो रहा है। न्याय में देरी से हमारी व्यवस्था के सभी अंग भली तरह परिचित हैं और उनके प्रतिनिधियों की ओर से समय-समय पर इसे लेकर चिंता भी जताई जाती है, लेकिन कहीं कोई उल्लेखनीय और उम्मीदजनक बदलाव होता नहीं दिखता। उचित यह होगा कि व्यवस्था के सभी अंग और विशेष रूप से न्यायपालिका और कार्यपालिका की ओर से मिलकर न्याय में देरी के कारणों का निवारण प्राथमिकता के आधार पर किया जाए।
इस समय कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच जो समन्वय दिख रहा है उसका उपयोग न्याय व्यवस्था को बेहतर बनाने और लोगों को समय पर इंसाफ दिलाने में किया जाना चाहिए। जब लोगों को समय पर न्याय मिलेगा तो उनका व्यवस्था पर भरोसा भी बढ़ेगा और स्वयं का आत्मविश्वास भी। यह स्थिति देश के विकास में तो सहायक बनेगी ही, न्यायिक व्यवस्था को प्रतिष्ठा भी प्रदान करेगी। बार काउंसिल के जिस कार्यक्रम में कानून मंत्री ने न्याय में देरी को रेखांकित किया उसी में सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश एनवी रमना ने न्यायाधीशों की नियुक्ति पर सरकार के सकारात्मक रवैये की अपेक्षा करते हुए यह आशा व्यक्त की कि जैसे सुप्रीम कोर्ट के जजों के लिए प्रस्तावित नामों का अनुमोदन किया गया वैसे ही हाई कोर्ट के जजों के मामले में भी होगा। यह अपेक्षा उचित ही है।
न्यायाधीशों की नियुक्तियां समय पर होनी चाहिए, लेकिन वे उच्चतर न्यायपालिका ही नहीं, निचली अदालतों में भी होनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट को इसकी चिंता करनी ही चाहिए कि निचली अदालतों की क्षमता में भी वृद्धि हो। ऐसा करते हुए उसे यह भी समझना होगा कि केवल न्यायाधीशों के रिक्त पदों को भरने से बात बनने वाली नहीं है। न्यायिक तंत्र को और अधिक समर्थ, त्वरित और संवेदनशील बनाने की भी जरूरत है।
 दैनिक जागरण
Tags:    

Similar News

-->