किसान आंदोलन के चलते आम नागरिक जाम में फंसे
जाम में फंसे लोगों का कुसूर सिर्फ इतना था कि वे आम नागरिक थे। वे किसान आंदोलन के कारण पहले भी परेशान होते रहे हैं और यदि किसान संगठन अपनी मनमानी पर आमादा रहते हैं तो आगे भी इसी तरह परेशान होंगे। यह तय है कि उनकी कहीं कोई सुनवाई नहीं होने वाली। इसलिए नहीं होने वाली, क्योंकि जो अदालतें हत्या, हिंसा, दंगे, दुष्कर्म के आरोपितों को जमानत देते वक्त अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर चली जाती हैं, वे आम तौर पर आम लोगों की तकलीफों से तब भी अनजान बनी रहती हैं, जब वे उनका दरवाजा खटखटाते हैं। यदि अदालतें कभी आम लोगों की शिकायतों का संज्ञान लेती भी हैं कि ऐसे दार्शनिक फैसले सुना देती हैं कि धरना-प्रदर्शन के नाम पर सड़कों पर कब्जा नहीं किया जा सकता।
सड़कों पर अनिश्चितकालीन कब्जा नहीं किया जा सकता
आखिर यह तथ्य है कि शाहीन बाग के धरने और किसान आंदोलन को लेकर ऐसे ही फैसले दिए जा चुके हैं, लेकिन उनका कहीं कोई असर इसलिए नहीं पड़ा, क्योंकि फैसले में यह भी जोड़ दिया गया कि सड़कों पर अनिश्चितकालीन कब्जा नहीं किया जा सकता। आंदोलनकारियों ने इसका यही मतलब निकाला हो तो अचरज नहीं कि कुछ दिन सड़कों पर कब्जा किया जा सकता है। चूंकि अनिश्चितकालीन को परिभाषित नहीं किया गया, इसलिए कोई भी यह मानकर चल सकता है कि वह तीन दिन से लेकर 365 दिन तक सड़क जाम किए रह सकता है। क्या यह उचित नहीं होता कि सुप्रीम कोर्ट यह स्पष्ट करता कि अनिश्चितकालीन से उसका आशय क्या है-एक दिन, दो दिन, 30 दिन या 365 दिन?
सुप्रीम कोर्ट ने अनिश्चितकालीन को परिभाषित करने की जरूरत क्यों नहीं समझी
कायदे से सुप्रीम कोर्ट को यह सुनिश्चित करना चाहिए था कि किसान संगठन सड़कों पर काबिज न रहें, क्योंकि जब उसने सड़कों पर अनिश्चितकालीन तक काबिज न रहने वाला फैसला दिया था, तब किसान संगठनों को दिल्ली की सीमा से लगी सड़कों पर बैठे हुए महीनों हो गए थे। कोई नहीं जानता कि सुप्रीम कोर्ट ने अनिश्चितकालीन को परिभाषित करने की जरूरत क्यों नहीं समझी? इसी तरह यह प्रश्न भी अनुत्तरित है कि कोरोना संकट की दूसरी लहर के दौरान बात-बात पर सरकारों को फटकार लगाने वाली अदालतों को यह क्यों नहीं सूझा कि कृषि कानून विरोधी प्रदशर्नकारियों से सड़कों को खाली कराने की जरूरत है? यह जरूरत न तो किसी हाई कोर्ट ने समझी और न ही सुप्रीम कोर्ट ने। यह जरूरत इसके बावजूद भी नहीं समझी गई कि प्रदशर्नकारियों के बीच कोरोना संक्रमण फैलने और उसके चलते मौतें होने के समाचार सामने आ रहे थे। इस दौरान ऐसे भी समाचार आए कि आंदोलन में शामिल होने आई एक युवती से सामूहिक दुष्कर्म किया गया और कुछ अन्य युवतियों से छेड़छाड़ भी की गई। एक समाचार एक शख्स को पेट्रोल छिड़ककर जिंदा जला देने का भी आया, लेकिन न तो पुलिस ने अराजकता की हदों को पार कर रहे प्रदर्शनकारियों से सड़कें खाली करने को कहा और न ही सरकारों ने। अदालतें भी कान में तेल डाले बैठी रहीं।
लोग किसान संगठनों की धरनेबाजी से आजिज आ चुके हैं, लेकिन सुप्रीम कोर्ट सुध ही नहीं लेता
यह अराजकता की आग में घी डालने के अलावा और कुछ नहीं कि कृषि कानून विरोधी प्रदर्शनकारियों से सड़कें खाली कराने की जरूरत कोई नहीं समझ रहा है। सबसे हैरानी की बात यह है कि कृषि कानूनों पर विशेषज्ञ समिति की रपट मिल जाने के बाद भी सुप्रीम कोर्ट उस पर फैसला सुनाने का समय नहीं निकाल पा रहा है। यह रपट 19 मार्च को सौंप दी गई थी और तब से इसकी कोई खबर नहीं कि सुप्रीम कोर्ट उस पर कब विचार करेगा? क्या यह विचित्र नहीं कि बीते तीन माह में सुप्रीम कोर्ट विशेषज्ञ समिति की रपट का अवलोकन करने का समय नहीं निकाल सका? क्या वह यह चाहता है कि किसान संगठन इसी तरह सड़कों पर बैठकर आम लोगों को परेशान करते रहें। यदि नहीं तो फिर वह उन लाखों आम नागरिकों की सुध क्यों नहीं ले रहा है, जो किसान संगठनों की धरनेबाजी से आजिज आ चुके हैं। आखिर उन्हें किस बात की सजा मिल रही है? क्या इसकी कि वे अपनी तकलीफ बयान करने के लिए सड़क पर उतरना और उत्पात करना जरूरी नहीं समझते? यद्यपि इसकी गारंटी नहीं कि कृषि कानूनों पर विशेषज्ञ समिति की रपट पर फैसला सुनाने के बाद अड़ियल किसान संगठन अपनी धरनेबाजी बंद कर देंगे, लेकिन इतना तो है ही कि यदि अदालत का फैसला इन कानूनों के पक्ष में आता है तो किसान संगठन नैतिक रूप से और अधिक कमजोर हो जाएंगे और शायद वे आए दिन के धरना-प्रदर्शन या फिर ट्रैक्टर रैलियों के जरिये आम लोगों को परेशान करने में शर्म महसूस करें।