पं. परमानंद : रफ्तार-ए-इंकलाब उनमें बहुत तेज थी, ...जुल्म मिटाना हमारा पेशा, गदर का करना ये काम अपना
यह अजेय क्रांतिकारी 96 वर्ष की उम्र में हमसे बिछुड़ गए। संयोग से यह वही दिन था, जब 1915 में उन्हें फांसी की सजा सुनाई गई थी।
राठ कस्बे के एक भीड़ भरे तिराहे पर क्रांतिकारी पं. परमानंद की उपेक्षित प्रतिमा को देखना हमें पीड़ा से भर रहा है। बुंदेलखंड का यह इलाका हमीरपुर जिले में आता है, जहां से करीब 20 किलोमीटर दूर सिकरौधा गांव में 1887 में उनका जन्म हुआ था। इस जगह उनके नाम पर एक विद्यालय संचालित है। महोबा में भी उनकी आदमकद प्रतिमा है, जिसे साहित्य परिषद की ओर से स्थापित किया गया है। 'गदर पार्टी' से जुड़े इस मशहूर क्रांतिकारी ने सिंगापुर में इस संगठन के लिए कार्य करते हुए सेना में कई जोशीले भाषण दिए, जिसका नतीजा यह निकला कि वहां की दो रेजीमेंटों ने हुकूमत के खिलाफ बगावत कर दी।
सरकार इस पर सचेत हो गई और पंडित जी को पकड़े जाने की जुगत की जाने लगी। वह किसी तरह हिंदुस्तान आ गए, पर यहां भी उन्होंने अपना काम जारी रखा। 1915 में पकड़े जाने पर 'गदर पार्टी' वालों पर सरकार ने हुकूमत को उखाड़ फेंकने का मुकदमा चलाया, जिसमें उन्हें फांसी की सजा मिली, जिसे बाद में आजीवन कालापानी में तब्दील कर दिया गया। पंडित जी के साथ जिन लोगों को फांसी की सजा सुनाई गई, उनमें करतार सिंह सराभा प्रमुख थे।
जिस दिन सवेरे करतार को फांसी होने वाली थी, पंडित जी ने एक घंटा पहले अपनी कोठरी से आवाज दी, 'करतार, क्या कर रहे हो?' करतार बोले, 'कविता लिख रहा हूं। सुनोगे?' और करतार ने गाकर सुनाया, जो कोई पूछे कौन हो तुम, तो कह दो बागी नाम हमारा। जुल्म मिटाना हमारा पेशा, गदर का करना ये काम अपना। नमाज-संध्या यही हमारी, श्रीपाठ पूजा सब यही है। धरम करम सब यही है प्यारो, यही खुदा और राम अपना। तेरी सेवा में ऐ भारत अगर तन जाए, सिर जाए, तो मैं समझूं कि है मरना यहां पर भक्ति-पथ मेरा।
जवाब में पंडित जी ने करतार से कहा था, हम तुम्हारे मिशन को पूरा करेंगे साथियो, कसम हर हिंदी तुम्हारे खून की खाता है आज। यानी जैसे कवि वैसे श्रोता। कविता तब क्रांति के पहियों पर चलती थी। पंडित जी अंडमान भेजे गए। वहां के जेलर बारी के अत्याचारों से कैदी इस कदर तंग थे कि इंदुभूषण नाम के क्रांतिकारी ने आत्महत्या कर ली। उल्लासकर दत्त को इसी उत्पीड़न ने विक्षिप्त कर दिया। वहां पंडित जी को नारियल काटने और उसके छिलके की रस्सी बनाने का काम दिया गया, जिसे करने से उन्होंने इनकार कर दिया।
बारी बोला, 'काम क्यों नहीं करता?' पंडित जी ने शांत भाव से कहा, 'क्या मैं काम करने का नौकर हूं?' बारी चीखा, 'तुम बदमाश हो।' पंडित जी तैश में आ गए, 'बदमाश तू और तेरा बाप।' अब बारी ने वही करना चाहा, जो वह दूसरे कैदियों के साथ करता आ रहा था, यानी पंडित जी की मरम्मत। वह गुस्से में उठ ही रहा था कि पंडित जी शेर की तरह गरजते हुए उसकी ओर लपके और उसे जमीन पर पटक दिया। बारी पर खूब लात-घूंसे पड़े। बाद में लोगों ने दौड़कर उसे बचाया।
नतीजा यह हुआ कि इस गुस्ताखी के लिए पंडित जी को टिकठी में बांधकर तीस बेंत लगाए गए। पंडित जी की शुरुआती शिक्षा इलाहाबाद में हुई, जहां उन्हें पंडित सुंदरलाल मिले, जो कर्मवीर निकालते थे। उसकी प्रतियां वितरित करने का काम पंडित जी के सुपुर्द किया गया। उन्हीं के साथ बम बनाना सीखा। पुलिस को भनक लगी, तो कॉलेज से निकाल दिए गए। मदनमोहन मालवीय ने तब उनकी मदद की और वह काशी हिंदू विश्वविद्यालय में पहुंच गए, जहां बाबू शिवप्रसाद गुप्त का साथ मिला।
वह यूरोप यात्रा पर गए, तो पंडित जी को भी साथ ले गए। उसी समय लाला हरदयाल का पत्र उनके पास आया, 'अमेरिका चले आओ।' वहां लाला जी और दूसरे क्रांतिकारियों की मदद से 'गदर पार्टी' का गठन किया गया, जिसके सेक्रेटरी बनाए गए पंडित जी। 'गदर पार्टी' के करीब छह हजार क्रांतिकारी देश में आकर 26 सैनिक छावनियों में फैल गए थे। लेकिन एक भेदिये के कारण वह क्रांति विफल हो गई। मुकदमे में 27 क्रांतिकारियों को मृत्युदंड सुनाया गया, जिनमें से सात फांसी चढ़े। वह गदर आंदोलन को बड़ी चोट थी।
पंडित जी अंडमान से छूटकर आए, तो 1942 में फिर पकड़े गए। आजादी के बाद उन्होंने नेहरू के अनुरोध पर भी लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ा। मैं 1979 में पंडित जी से मिला, तब वह बहुत बूढे़ हो चुके थे। उनके चेहरे पर ऋषियों जैसी लंबी सफेद दाढ़ी थी। दोनों हाथों में कंपन होने लगा था। आखिरी दिनों में उनकी रिहाइश दिल्ली बनी। लगभग 45 हजार पुस्तकों का अध्ययन करने वाले इस क्रांतिकारी को कानपुर विश्वविद्यालय ने डी.लिट् और गोरखपुर विश्वविद्यालय ने 'राजर्षि' की उपाधि दी।
वह जाति से 'पंडित' नहीं थे। उनकी विद्वता ने उन्हें यह नाम दिया था। वह अक्सर नौजवानों से कहा करते थे कि कोई पका-पकाया निदान कभी नहीं मिलता। लड़ाई लड़ते रहो, तो उसमें रास्ता खुद-ब-खुद निकलता है। जब कभी उनसे क्रांतिकारी बनने की गाथा पूछी जाती, तो वह कहते, 'देश के स्वातंत्र्य-युद्ध में मैं पूरी योजना बनाकर कूदा था। मैंने संपूर्ण एशिया को साम्राज्यवादी शिकंजे से मुक्त कराने के लिए संग्राम शुरू किया था।
छिटपुट वारदात या व्यक्तिगत कार्रवाई को मैंने कभी पसंद नहीं किया। इसी महान उद्देश्य को लेकर हमने 'एशिया लिबरेशन कमेटी' बनाई, जिसके सचिव मौलाना बरकतउल्ला थे। चीन के सनयात सेन तथा जापान के प्रधानमंत्री काउंट ओकूमा भी इस कमेटी में थे। लाला हरदयाल तो हमें पूरा सहयोग देते थे।' 13 अप्रैल, 1982 को यह अजेय क्रांतिकारी 96 वर्ष की उम्र में हमसे बिछुड़ गए। संयोग से यह वही दिन था, जब 1915 में उन्हें फांसी की सजा सुनाई गई थी।
सोर्स: अमर उजाला