कश्मीर के रहनुमा

नजरबंदी के बाद एक बार फिर कश्मीरी राजनेता अनुच्छेद तीन सौ सत्तर को लेकर लामबंद होने लगे हैं।

Update: 2020-10-16 03:49 GMT
जान ता से रिश्ता वेबडेस्क। नजरबंदी के बाद एक बार फिर कश्मीरी राजनेता अनुच्छेद तीन सौ सत्तर को लेकर लामबंद होने लगे हैं। पीडीपी नेता और जम्मू-कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती के रिहा होते ही नेशनल कान्फ्रेंस के नेता फारूक अब्दुल्ला सक्रिय हो उठे और उन्होंने अपने घर पर कश्मीरी नेताओं की बैठक बुला दी। बैठक से एक दिन पहले उन्होंने यहां तक तल्खबयानी कर डाली कि कश्मीर में अनुच्छेद तीन सौ सत्तर की वापसी में चीन मदद कर सकता है। इस पर स्वाभाविक ही उनकी चौतरफा निंदा शुरू हो गई। कर्ण सिंह ने भी उनके इस बयान पर कड़ी आपत्ति जताई। फिर फारूक अब्दुल्ला अपने बयान से मुकरते और सफाई देते नजर आए। महबूबा मुफ्ती ने हुंकार भरी कि वे कश्मीरियों का हक दिला कर रहेंगी, अनुच्छेद तीन सौ सत्तर को वापस लागू कराने के लिए संघर्ष करेंगी। पिछले साल पांच अगस्त को जब जम्मू-कश्मीर का विशेषाधिकार समाप्त किया गया था, उससे एक दिन पहले भी कश्मीरी नेताओं ने साझा बैठक करके गुपकार समझौता किया था, जिसमें अनुच्छेद तीन सौ सत्तर के पक्ष में रणनीति बनाई गई थी। मगर इन नेताओं को गिरफ्तार या नजरबंद कर लिया गया था। अब सारे नेता रिहा हो चुके हैं और फिर से गुपकार समझौते पर लामबंद होने लगे हैं।

इन नेताओं का अनुच्छेद तीन सौ सत्तर हटाने का विरोध समझा जा सकता है। नेशनल कान्फ्रेंस और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी का आधार मुख्य रूप से जम्मू-कश्मीर में है। अब पिछले कुछ सालों में इन दोनों दलों का जनाधार सिकुड़ते-सिकुड़ते कश्मीर तक सीमित होता गया है। जम्मू और लद्दाख क्षेत्र में भाजपा और कांग्रेस की पकड़ अधिक है। कश्मीरी लोगों को बरसों से बरगलाया जाता रहा है कि कश्मीर भारत का अंग नहीं, बल्कि स्वतंत्र राज्य है। अलगाववादी ताकतें कश्मीर को आजाद करने की मांग उठाती रही हैं। उधर पाकिस्तान कश्मीर पर अपना हक जताता रहा है। इस तरह घाटी का राजनीतिक समीकरण कश्मीरी अवाम की भावनाओं का दोहन करने पर टिका रहा है। ऐसे में जब अनुच्छेद तीन सौ सत्तर हटा कर कश्मीर का विशेषाधिकार खत्म कर दिया गया, तो वहां के राजनीतिक दलों को लगने लगा कि अब उनका राजनीतिक आधार ही खत्म हो जाएगा। इसलिए उनकी बेचैनी समझी जा सकती है। ऐसा नहीं कि वे संवैधानिक प्रावधानों से वाकिफ नहीं हैं। अनुच्छेद तीन सौ सत्तर एक अस्थायी प्रावधान था, जिसे कालांतर में समाप्त किया जाना था। मगर राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी की वजह से यह कदम उठाने का साहस किसी सरकार ने नहीं दिखाया था।

अब जब जम्मू-कश्मीर का विशेषाधिकार समाप्त हो गया है, करीब सवा साल में वहां के आम लोग भी धीरे-धीरे समझ चुके हैं कि कश्मीर की आजादी बस एक राजनीतिक खामखयाली थी और उन्हें भारतीय शासन व्यवस्था की मुख्यधारा में शामिल होकर ही बेहतरी के रास्ते मिल सकते हैं। पाकिस्तान के तमाम दावे और प्रयास विफल साबित हो चुके हैं। जम्मू-कश्मीर के तीन में से दो हिस्सों के बाशिंदे विशेषाधिकार खत्म करने के पक्ष में हैं। सिर्फ घाटी में अलगाववादी ताकतों के प्रभाव वाले कुछ लोग इसके समर्थन में देखे जा सकते हैं। ऐसे में नेशनल कान्फ्रेंस और पीडीपी बेशक लामबंद हो रहे हैं, पर उनके साथ कितने लोग खड़े होंगे, दावा नहीं किया जा सकता। इस मामले में अब किसी तरह का बाहरी दबाव भी संभव नहीं है, जिसका लाभ इन दलों को मिलने की संभावना हो सकती है। इसलिए उनका लामबंद होना, एक प्रकार से कश्मीरी लोगों के हक में कम, अपना अस्तित्व बचाने के लिए अधिक है।

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