तनावों की सियासत से बढ़े अपराध

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के ताजा आंकडे़ कई मामलों में सोचने को विवश करते हैं

Update: 2021-09-16 18:27 GMT

आनंद कुमार। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के ताजा आंकडे़ कई मामलों में सोचने को विवश करते हैं। साल 2019 की तुलना में पिछले साल 28 फीसदी अधिक आपराधिक वारदात दर्ज की गई हैं। सबसे ज्यादा चिंता की बात सामाजिक अपराधों में बढ़ोतरी है। आंकड़े बताते हैं, 2019 के मुकाबले 2020 में सांप्रदायिक दंगों में 96 फीसदी, जातिगत हिंसा में करीब 50 फीसदी, कृषि उपद्रवों में 38 फीसदी और आंदोलन व मोर्चा के दौरान हुए फसाद में 33 फीसदी की वृद्धि देखी गई है। समाज में अपराध का यूं बढ़ना कानून-व्यवस्था के घटते प्रभाव का संकेत है। यह राजनीतिक दलों के लिए भी सुखद नहीं है, क्योंकि समाज के सवालों को सुलझाने में पुलिस और अदालत से पहले लोग राजनेताओं से आस रखते हैं। मतलब साफ है, सियासी दलों का महत्व घट रहा है।

एनसीआरबी के आंकड़ों का एक अन्य पहलू भी है। भारत की राज-व्यवस्था के जो केंद्र हैं, जहां देश की राजसत्ता की आत्मा बसती है, यानी राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, सेना प्रमुख, सर्वोच्च अदालत के प्रधान न्यायाधीश जैसे तमाम आलिम-फाजिल रहते हैं, वहां से महज 200 किलोमीटर के दायरे में भी सामाजिक अपराध हो रहे हैं। यह चिराग तले अंधेरे जैसा है, और इससे पार पाने के लिए चिराग को अपनी रोशनी बढ़ानी होगी। अगर राष्ट्रीय राजधानी में भी इस तरह के अपराध होते हैं, तो इससे दुनिया में अच्छा संदेश नहीं जाता। विदेशी पर्यटकों से लेकर विदेशी निवेशकों तक, सभी पर इसका नकारात्मक असर पड़ता है। दरअसल, लॉकडाउन जिन तीन चीजों पर असरंदाज हुआ, वे हैं- दवाई, कमाई और पढ़ाई। इस आग में महंगाई ने घी का काम किया है। लोगों की आमदनी एक तिहाई से लेकर तीन चौथाई तक घटी है। यह स्थिति तब है, जब हम जानते हैं कि आर्थिक अपराध बेरोजगारी और गरीबी से सीधे-सीधे जुड़ा है। कहा जाता है कि भूखा व्यक्ति कोई पाप गलत नहीं मानता, क्योंकि पेट की आग सबसे ऊपर होती है। हालांकि, कोरोना और लॉकडाउन मनोवैज्ञानिक दबाव के कारण घरेलू हिंसा बढ़ा सकते हैं, लेकिन सामाजिक हिंसा में इनका कोई हाथ नहीं होता। इसलिए दलित और सवर्णों के बीच हुई हिंसा या हिंदू-मुसलमान विवाद अथवा महिलाओं के साथ बलात्कार जैसे अपराधों को लॉकडाउन से नहीं जोड़ा जा सकता। इसके लिए कानून-व्यवस्था से डिगता भरोसा और व्यवस्था का चरित्र कुसूरवार है।
राजनीतिक दल किस तरह से अपराध को खाद-पानी देते हैं, इसका एक बड़ा उदाहरण बिहार और उत्तर प्रदेश हैं। यहां 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के आधार पर हुए थे। रसोई में पकने वाले खाने से लेकर शादी-ब्याह तक में राजनीतिक दलों ने अपनी दावेदारी दिखाई थी। इसका लाभ कुछ दलों को मिला भी। नतीजतन, इसको एक लिहाज से राजनीतिक स्वीकृति मिल गई। यही वजह है कि यहां हिंदू-मुसलमान, भारत-पाकिस्तान (अब तालिबान भी) जैसी बहसें खूब हो रही हैं। कोई यह कह सकता है कि बीमारू राज्य होने के कारण यहां सांप्रदायिकता को बढ़ावा देना आसान है, लेकिन एनसीआरबी बताता है कि महाराष्ट्र जैसे राज्यों में भी, जो अपेक्षाकृत विकसित हैं, सामाजिक अपराध बढ़े हैं। वजह साफ है, महाराष्ट्र की सांस्कृतिक बनावट मराठा व गैर-मराठा की है और इस पर सियासत करने वाले दल सत्ता में हैं। वहां विपक्ष में जो पार्टियां हैं, उनकी भी खुराक हिंदू-मुसलमान और मराठी-गैर मराठी जैसे मुद्दे हैं। इसलिए महाराष्ट्र और बिहार-उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों के संदर्भ बेशक अलग-अलग हों, लेकिन कारण एक ही है, सामाजिक तनावों का राजनीतिकरण। लिहाजा, राजनीतिक दलों में यह सहमति बननी चाहिए कि धर्म, भाषा और जाति के सवालों पर वे संविधान-सम्मत तौर-तरीकों को अपनाएंगे।
जाहिर है, हमें राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया पर ध्यान देना होगा। हमारे यहां नागरिकता-निर्माण के जरिये ही राष्ट्र-निर्माण होगा। यूरोप में राष्ट्र-निर्माण में धर्म और भाषा ने बड़ी भूमिका निभाई थी, लेकिन हम बहुभाषी और बहुधर्मी देश हैं। यहां एक बार धर्म के आधार पर पाकिस्तान बन चुका है, इसलिए धर्म वाले रास्ते पर जाने से और बिखराव पैदा होगा। हमें समझना होगा कि अलग होने के बावजूद पाकिस्तान एकजुट नहीं रह सका और धर्म के नाम पर वहां इस कदर झगडे़ बढे़ कि पूर्वी पाकिस्तान को अलग होना पड़ा।
अपने यहां इसको लेकर पहले से सतर्कता रखी गई है। भाषा के सवाल पर हमने भाषायी राज्यों का गठन करके भाषायी असुरक्षा को घटाया है। आज तमिलनाडु में कोई द्रविड़स्तान की मांग नहीं करता। ओडिशा और बंगाल, महाराष्ट्र और गुजरात, पंजाब और हरियाणा जैसे तमाम राज्यों में अब भाषा के आधार पर कोई तनाव नहीं है। जैसे हमने भाषा को सम्मान देते हुए बहुभाषी भारत को स्वीकार किया, उसी तरह बहुधर्मी भारत को स्वीकार करने के लिए नई पीढ़ी को तैयार करना पड़ेगा। आजकल चारों तरफ 'कॉमन कॉज', यानी सामान्य नागरिक अधिकार की वकालत खूब हो रही है। पुरानी पीढ़ी बेशक अपने सवालों को धर्म और जाति के चश्मे से देखने की आदी हो, लेकिन नए उम्र के बच्चे मानने लगे हैं कि धर्म आस्था की चीज है और जाति सामाजिक जीवन का आधार। आज उनकी जरूरत रोजी, रोटी और सुरक्षा है। इसलिए नियमों को बदलना जरूरी है।
इस लिहाज से तीन चरणों में समाधान दिख रहा है। पहला, सभी को नागरिक के रूप में कानून और मर्यादा के साथ जीने का अधिकार मिलना चाहिए। धर्म, भाषा, जाति और लिंग-भेद की दृष्टि से नहीं, बल्कि कानून-व्यवस्था के संदर्भ में सभी को भारत मात्र का नागरिक मानना जरूरी है। दूसरा चरण, हमें नागरिकता-निर्माण की तरफ ध्यान देना होगा। इसमें शिक्षा, मीडिया, राजनीतिक दल और धर्म व संस्कृति के केंद्रों का भी खासा योगदान है। और तीसरा, जहां कहीं जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र, लिंग-भेद या अमीरी-गरीबी के आधार पर कोई अन्याय कर रहा हो, उससे सख्ती से और कम समय में निपटना जरूरी है। अगर न्याय-व्यवस्था और पुलिस व्यवस्था आपत्तिजनक परिस्थिति से जुडे़ अपराधों को लेकर न्यूनतम समय में स्पष्ट न्याय का अभ्यास करने लगेंगे, तो लोग आपस में उलझने के बजाय पुलिस व न्यायालय पर भरोसा करेंगे। कुल मिलाकर, कानून-व्यवस्था को सुधारना होगा, सत्ता-व्यवस्था को अपने अंदर झांकना होगा और नागरिकता के निर्माण की तरफ ध्यान देना होगा, ताकि बतौर नागरिक लोग अपने कर्तव्य कर सकें और अपने अधिकारों के इस्तेमाल का भरोसा उनमें पैदा हो।


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