राजनीतिक दिव्य दृष्टि
यूपी का चुनावी दंगल हो या देश में कहीं भी चुनाव हो, हार का डर सताने लगे तो नेताओं को अकस्मात ही वोटिंग में गड़बड़ी की आशंका दिखाई देने लगती है। राजनेताओं की कौम ही अजब-गजब है, उनको ऐसी दिव्य दृष्टि प्राप्त होती है
Written by जनसत्ता: यूपी का चुनावी दंगल हो या देश में कहीं भी चुनाव हो, हार का डर सताने लगे तो नेताओं को अकस्मात ही वोटिंग में गड़बड़ी की आशंका दिखाई देने लगती है। राजनेताओं की कौम ही अजब-गजब है, उनको ऐसी दिव्य दृष्टि प्राप्त होती है, जिससे चुनावों में हो रहे हर प्रपंचों की भनक उन्हें तुरंत मिल जाती है। मगर चुनाव के बाद इनकी दिव्य दृष्टि जनता के संपर्क से दूर हो जाती है।
इनकी वादाखिलाफी का खमियाजा आम जनता को भुगतना पड़ता है। इनके चुनावी वादे जनता की रसोई में कुछ खास जायका नहीं ला पाते होंगे, इसी कारण इन्हें वोटिंग मशीन में गड़बड़ी का डर सताता है। अगर जनता को बेतुके वादों की मिठाई खिलाई जाएगी और नेता अपने वादे पूरे नहीं कर पाते हैं तो जनता के रोष का सामना तो करना ही होगा। इस वादाखिलाफी में बेचारी वोटिंग मशीन को क्यों दोष दिया जाता है!
पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव संपन्न हुए और वोटिंग मशीन को लेकर शोर होने लगा। इस शोर में सच्चाई भी हो सकती है और हार की जिम्मेदारी से बचने की कोशिश भी। वाराणसी में वोटिंग मशीनों को लेकर कहीं जाती हुई एक गाड़ी विपक्षी दल के कार्यकर्ताओं द्वारा पकड़ी गई। आश्चर्य है कि धांधली और धोखाधड़ी अब सारी हदें पार कर हिंसा, दंगा, झूठे प्रलोभन और मारपीट की तरह चुनावी कहलाने के योग्य हो जाएगी और उन्हें नजरअंदाज कर दिया जायेगा।
कहते हैं, हाथी चली जाती है, कुत्ते भौंकते रहते हैं। यहां भी कुछ वैसा ही होता दिखाई-सुनाई दे रहा है। खुलेआम, युद्ध और प्रेम में सब कुछ जायज है की नीति व्यवहार में लाई जा रही है। कितना अच्छा होता कि इन घटनाओं का सत्यापन होता और न्यायिक कार्यवाही भी। प्रस्तुत संदर्भ में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तथ्य जो इन गैरप्रजातांत्रिक घटनाओं के पीछे हो सकता है, वह यह है कि दोषारोपण के पीछे हार की संभावना देखी जा रही है, जिसकी जिम्मेदारी चुनाव जीतने वाले दल द्वारा तथाकथित रूप से अपनाई गई धोखाधड़ी के ऊपर मढ़ी जा रही है। जो भी हो, सत्तापक्ष को मतदान को बेदाग साबित करना चाहिए।