ऐसा नहीं है कि जहर घोलने वाले लोग मुसलमान देख कर उससे जय श्रीराम के नारे लगवा रहे हैं और नारा नहीं लगवाने पर पीट रहे हैं। यह किसी के साथ भी हो सकता है। आजादी के अमृत महोत्सव से पहले जो दूसरा वीडिया वायरल हो रहा है वह 'नेशनल दस्तक' की वेबसाइट से जुड़े बहुजन समाज के अनमोल प्रीतम का है। अनमोल को भी लोगों ने घेर रखा है और जय श्रीराम के नारे लगाने के लिए मजबूर कर रहे हैं। पर हाथ में माइक पकड़े अनमोल का साहस है, जो उसने डरने और झुकने की बजाय प्रतिरोध की मुद्रा बनाए रखी। धर्म उसके लिए आस्था का मामला है और अपने आराध्य को याद करने के लिए उसे किसी की जबरदस्ती की जरूरत नहीं है।
तीसरा वीडियो दिल्ली के जंतर मंतर का है, जहां भाजपा के एक पूर्व प्रवक्ता और उनके साथी अल्पसंख्यक समुदाय के प्रति नफरत और जहर फैलाने वाले नारे लगा रहे हैं। उनके नारे इतने भड़काऊ और हिंसक हैं कि उन्हें लिखा नहीं जा सकता है। सोचें, संसद से चंद कदमों की दूरी पर अल्पसंख्यकों के प्रति अपमानजनक शब्दों का प्रयोग और उन्हें काटने-मारने की बात करने की हिम्मत लोगों की कैसे हुई? वीडिया वायरल होने के बाद पुलिस ने मुकदमा दर्ज किया और छह लोगों को गिरफ्तार भी किया लेकिन वह गिरफ्तारी एक औपचारिकता भर थी क्योंकि अगले ही दिन नफरत फैलाने वाले लोगों को जमानत मिल गई। सोचें, क्या यही आजादी का अमृत महोत्सव है? याद करें देश की आजादी किस माहौल में मिली थी। देश का विभाजन हुआ था, चारों तरफ मारकाट मची थी, लोगों का पलायन हो रहा था, सांप्रदायिक दंगे छिड़े थे और हजारों लोगों की मौत हुई थी। लेकिन तब भी देश संभल गया था। इतिहास में ऐसी घटनाएं दर्ज हैं कि दिल्ली में दंगे छिड़े और वहां पुलिस के पहुंचने से पहले प्रधानमंत्री पहुंचे। लेकिन आज समाज में चौतरफा जहर घोला जा रहा है और सब चुप हैं। क्या देश वापस 75 साल पहले वाली स्थिति की तरफ बढ़ रहा है?
कल्पना ही डराने वाली है कि देश अपने उस काले अतीत को दोहराए, जिससे निकलने में दशकों लगे हैं। लेकिन यह हकीकत है कि आज आजादी के अमृत महोत्सव के मौके पर देश का सामाजिक ताना-बाना बिखरा हुआ है। सांप्रदायिकता बढ़ी है और असहिष्णुता अपने चरम पर है। हम और वे की विभाजनकारी धारणा इतनी प्रबल हो गई है कि सोच कर डर लगता है। पहले भी देश में सांप्रदायिक हिंसा हुई है और विभाजन रहा है लेकिन वैचारिक आधार पर कभी भी विभाजन इतना गहरा नहीं रहा है। संचार के आधुनिक माध्यमों की मदद से विभाजन की भावना हर व्यक्ति तक पहुंचाई जा रही है। किसी और पहचान से पहले उसमें धार्मिक और जातीय पहचान की भावना भरी जा रही है। क्या यही आजादी के 75 साल का हासिल है? हकीकत यह है कि आजादी के 75 साल के बाद भारतीयता की पहचान पहले के मुकाबले कमजोर हुई है और धर्म व जाति की पहचान मजबूत हुई है। वोट की राजनीति की खातिर समाज में मौजूद विभाजन को बढ़ाया गया है। इसका दोष किसी एक राजनीतिक दल को या किसी एक सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन को नहीं दिया जा सकता है। इसमें सब दोषी हैं। लेकिन पिछले छह-सात साल इस मामले में निर्णायक रहे हैं। नोएडा के बिसहाड़ा गांव में 2015 में अखलाक अहमद की लिंचिंग से शुरू हुई प्रक्रिया आज कानपुर के असरार अहमद तक पहुंची है।