उत्पीड़न: पाकिस्तान में हिंदू आबादी सिर्फ डेढ़ फीसदी रह गई, बेचारगी की जिंदगी बिता रहे
वे अल्पसंख्यकों को मौलिक अधिकार देने को मजबूर हो जाते। यह अवसर हमारे सम्मुख आज भी उपलब्ध है। आवश्यकता सबल इच्छाशक्ति की है।
दो बच्चों की मां शारी बलोच के चीनी नागरिकों को लक्ष्य कर किए गए आत्मघाती हमले ने बलूचिस्तान की आजादी के संघर्ष को नया आयाम दे दिया है। बलोच पाकिस्तान में 65 लाख रह गए हैं, फिर भी उनकी आजादी की जंग जारी है। वे मारे जा रहे हैं। बहुतों की लाशें भी नहीं मिलतीं। अत्याचारों की लंबी कहानियां हैं, लेकिन मुकाबला चल रहा है। इसी तरह सिंध में आज मात्र 40 लाख हिंदू बचे हुए हैं, जो मुख्यतया अमरकोट, थरपारकर, मीरपुर खास, संघर आदि जनपदों में ही केंद्रित हैं। यह हिंदू आबादी, जो 1947 में पश्चिमी पाकिस्तान की आबादी की बीस प्रतिशत थी, अब घटकर सिर्फ डेढ़ फीसदी रह गई है। वे लगातार बेटियों के अपहरण और बलात धर्म परिवर्तन के शिकार बनते, असहाय गुलामों जैसी बेचारगी की जिंदगी बिता रहे हैं।
बड़ा आश्चर्य होता है कि आजादी के हिंसक दौर में बंगाल और पंजाब का बंटवारा तो हुआ, लेकिन सिंध नहीं बांटा गया। पंजाब को बांटने वाली रेखाएं आगे बढ़कर थार के मरुस्थल से होकर गुजर जातीं। ऐसा नहीं हुआ। फिर हमने बड़े पैमाने पर सिंधी शरणार्थियों को भारत आते देखा। सिंध का भी विभाजन हुआ होता, तो सिंधी हिंदुओं का विस्थापन इतना बड़ा न होता। वे हिंदू सिंधी धार्मिक अत्याचार के विरुद्ध खड़े होने की सोच भी नहीं सके। आश्चर्यजनक है कि वहां कभी भी पाकिस्तान के अंदर के इन जिलों को मिलाकर सिंध हिंदू ऑटोनोमस एनक्लेव (स्वायत्त सिंध हिंदू परिक्षेत्र) की मांग तक नहीं उठी।
भारत से भी सिंध के लिए आज तक ऐसी कोई मांग नहीं उठी है। हमारे राजनीतिक नेतृत्व में इतनी दूरदृष्टि नहीं थी कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में कश्मीर मुद्दा ले जाते समय अल्पसंख्यक परिक्षेत्रों की मांग भी वहां कर देते। ये हिंदू बहुल जनपद राजस्थान की सीमाओं पर ही हैं। 1971 के युद्ध में हमारी सेना ने सिंध के इन हिंदू जिलों के लगभग 15 हजार वर्ग किलोमीटर इलाके को अपने कब्जे में ले लिया था। वहां के इस अल्पसंख्यक समाज के लिए यह प्रताड़ना से मुक्त होने का आदर्श समय था। जब शिमला वार्ता में वह क्षेत्र पाकिस्तान को वापस करने की मजबूरी हुई, तो वहां की हिंदू आबादी सेना के साथ भारत आ गई।
बांग्लादेश में आज भी एक करोड़ से अधिक हिंदू बचे रह गए हैं। वे भी 1947 में आबादी के तेईस प्रतिशत थे। उनकी जो प्रताड़ना हो रही है, मानवाधिकार हनन की जो वीभत्स स्थिति है, वह हमारी चर्चाओं का हिस्सा ही नहीं बन पाता। इस्कॉन मंदिर पर हमला, पुजारियों की हत्या तो अभी हाल की ही बात है। इतने वर्षों में संभवतः पहली बार बांग्लादेश के हिंदुओं की प्रताड़ना का विषय अंतरराष्ट्रीय मंच पर आया था। एक बड़ी बांग्लादेशी आबादी भारत में अवैध निवास कर रही है और वहां बांग्लादेश के हिंदू मजहबी कट्टरता के शिकार हो रहे हैं।
विश्व में सुरक्षित एनक्लेव के उदाहरण बहुत से स्थानों पर हैं। सिंध और बांग्लादेश के हिंदुओं ने न तो कोई संघर्ष छेड़ा, न ही उनमें सुरक्षित स्वायत्त परिक्षेत्रों की समझ ही विकसित हुई। वे शोषण और अत्याचार झेलते रहे। हमने देखा है कि सैन मारिनो और लेसोथो क्रमशः इटली व दक्षिण अफ्रीका में स्वायत्त एनक्लेव हैं। युद्ध के दौरान ही रूस ने अभी-अभी यूक्रेन के रूसी बहुल क्षेत्रों के लिए डोनबास में दो परिक्षेत्रों लोहांस्क व डोनास्क की घोषणा कर भी दी है। सन 1950 में हुए नेहरू-लियाकत समझौते से पूर्व पाकिस्तान में हिंदू-ईसाई की प्रताड़ना चरम पर थी। उस समय नेहरू को स्वायत्त परिक्षेत्रों के विचार पर बल देकर अल्पसंख्यकों की स्वायत्तता सुनिश्चित करानी चाहिए थी, पर ऐसा नहीं हुआ। भारत में तो अल्पसंख्यकों की आदर्श स्थिति बनी रही, जबकि पाकिस्तान में वह कौन-सा अत्याचार है, जो वहां के अल्पसंख्यक समाज पर नहीं टूटा!
अल्पसंख्यकों के मानवाधिकार की दृष्टि से पाकिस्तान व बांग्लादेश में स्वायत्त सुरक्षित परिक्षेत्रों की मांग यदि भारत द्वारा संयुक्त राष्ट्र में पुरजोर तरीके से उठाई जाती, तो वह इन देशों को रक्षात्मक होने को बाध्य करती। वे अल्पसंख्यकों को मौलिक अधिकार देने को मजबूर हो जाते। यह अवसर हमारे सम्मुख आज भी उपलब्ध है। आवश्यकता सबल इच्छाशक्ति की है।
सोर्स: अमर उजाला