छत्रपति संभाजी नगर में बनी रहीं औरंगाबाद की समस्याओं का दोषी जरूर तय करेगी जनता
कभी एक सुर में संभाजी नगर बोलने वाली भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना ने अलग होकर एक-दूसरे का फैसला बदल कर ऐतिहासिक शहर औरंगाबाद का नाम परिवर्तित करने की घोषणा कर दी
By लोकमत समाचार सम्पादकीय
कभी एक सुर में संभाजी नगर बोलने वाली भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना ने अलग होकर एक-दूसरे का फैसला बदल कर ऐतिहासिक शहर औरंगाबाद का नाम परिवर्तित करने की घोषणा कर दी. प्रक्रियागत रूप से नाम बदलने में दोनों में से किसे सफलता मिली, यह कहना मुश्किल है क्योंकि केवल दो सदस्यीय मंत्रिमंडल की बैठक के निर्णय पर नाम बदला नहीं जा सकता है. इतिहास पर नजर दौड़ाई जाए तो औरंगाबाद शहर ने नाम परिवर्तन को लेकर महानगरपालिका के निर्णय से लेकर अदालत में हुई लड़ाई तक को देखा है.
नतीजा यह है कि शिवसेना प्रमुख बालासाहब ठाकरे का वर्ष 1988 में दिया गया नाम न तो वर्ष 1995 में बनी शिवसेना-भाजपा गठबंधन की सरकार बदल पाई और न ही ढाई साल में पिछली महाविकास आघाड़ी की सरकार दो कदम आगे बढ़ पाई, जिसका नेतृत्व उद्धव ठाकरे कर रहे थे. हालांकि जाते-जाते ठाकरे सरकार ने काफी ना-नुकुर के बाद निर्णय लिया, लेकिन तब तक वह खुद ही अल्पमत में आ चुकी थी. जानकारों के मुताबिक नए निर्णय को पूर्ण मान्यता मंत्रिमंडल के विस्तार के बाद ही मिलेगी. किंतु राजनीति की बिसात पर शह-मात का दिखावा चलता रहेगा.
यद्यपि नई सरकार के गठन के बाद से नाम से अधिक शहर की समस्याओं के निराकरण पर सबकी नजर है. इसलिए अब यह मानने में कोई गुरेज नहीं कि औरंगाबाद में पानी, सड़क, ड्रेनेज के मामले हल नहीं हुए तो कम से कम छत्रपति संभाजी नगर में ही इनका हल मिल जाए. मगर भावनाओं के खेल की राजनीति में अक्सर समस्याएं पीछे छूट जाती हैं. बीती आठ जून 2022 को शिवसेना की स्थापना की वर्षगांठ के उपलक्ष्य में आयोजित औरंगाबाद की सभा में उद्धव ठाकरे जब संबोधन के लिए खड़े हुए तो उन्होंने संभाजी नगर के मुद्दे पर तुरंत किसी निर्णय या घोषणा को यह कह कर टाल दिया कि शहर की समस्याएं पहले महत्वपूर्ण हैं. लेकिन जब सरकार संकट में आई तो उन्होंने ही नाम परिवर्तन की घोषणा की.
दूसरी ओर भाजपा, जो शिवसेना से मुकाबले के लिए जन आक्रोश आंदोलन का सहारा ले रही थी, ने सत्ता में आते ही नाम परिवर्तन को प्राथमिकता में रख कर शहर की सालों-साल पुरानी परेशानियों को पीछे रख दिया. हालांकि, कुछ ही दिन पहले भाजपा और शिवसेना को छोड़कर लगभग सभी दल नाम परिवर्तन के खिलाफ आंदोलन में शामिल हो कर विरोध का प्रदर्शन कर चुके थे. ऐसे में यदि जन आकांक्षा का सवाल था तो नाम परिवर्तन के खिलाफ कोई आंदोलन नहीं होना चाहिए था और इसमें कहीं कोई उम्मीद जुड़ी थी तो शहर में उसका व्यापक स्वागत होना चाहिए.
मगर साफ है कि समूचा फैसला राजनीतिक है और इसमें कहीं न कहीं तुष्टिकरण की राजनीति अवश्य है. इसका लाभ और हानि आने वाले समय में होने वाले चुनाव तय करेंगे किंतु इतना तय है कि यदि औरंगाबाद की समस्याएं छत्रपति संभाजी नगर में भी बनी रहीं तो उसका दोषी शहर की जनता अवश्य तय करेगी, क्योंकि अब तक औरंगाबाद ने एक ही सिक्के के दो पहलू भाजपा-शिवसेना को न केवल अच्छे से देखा ही है, बल्कि काफी सालों से परखा भी है.