चौराहे पर रुके हुए हैं लोग
हमें लगता है समझ के चौराहे पर भ्रमित लोगों का रुके रहना ही जैसे नियति बन गया है
हमें लगता है समझ के चौराहे पर भ्रमित लोगों का रुके रहना ही जैसे नियति बन गया है। पौन सदी के अनथक प्रयास के बावजूद अगर देश आज भी अपनी विकास यात्रा को अवरुद्ध पाता है तो क्या इसका कारण एक अनचाही महामारी के प्रकोप में तलाशा जाए या उससे पैदा हो गई उस निरुपाय दहशत में जिसने तरक्की के दावों को भूख और बेकारी का आइना दिखा दिया। स्पष्ट है कि इस निरुपित चेहरे को देख लेने के बाद उसे संवारने के अभियान की शुरुआत होनी चाहिए, लेकिन यह शुरुआत 'मैं इधर जाऊं या उधर जाऊं के दोराहे पर क्यों ठिठकी नजऱ आती है? रोग के आतंक से पैदा निष्क्रियता के इस आलम में गांवों से उखड़ कर आए नौजवानों के रोज़ी-रोटी के वसीले की जड़ें महानगरों या विदेशी धरती की चकाचौंध से उखड़ गईं। वे सब अपनी लुटिया डोरी लेकर अपनी धरती अपने मूलस्थान की ओर चल दिए। वहां तोरणद्वार सजे थे, 'जो आएगा उसका स्वागत है, क्योंकि देश को फिर एक कृषक देश कहलाना है लेकिन बस तोरण द्वार, उसके पीछे था एक गहराता शून्य, एक फर्जी मनरेगा और खैराती कजऱ्े का भेडिय़ा धसान! वहां रुके जीर्ण शीर्ण धरती पुत्रों ने उन्हें कहा, 'आओ, जैसे हम जी रहे हैं, तुम भी हमारे साथ जीना सीख लोगे। जैस-तैसे यह उमरिया बीत जाएगी। आधी सदी पहले आई एक देसी फिल्म में गीत सुना था, 'उमरिया बीती जाए रे। गीत तो उन खेतों की मेढ़ों पर ठिठक कर जैसे आज भी पूछता है, हालात तो वैसे ही हैं जैसे कभी हमें छोड़ कर गए थे। अब रहोगे कि फिर वापस जाओगे। रोटी का ठिकाना न यहां है न वहां है। लोटा, थैला उठाए फिर उसी समझ के दोराहे पर खड़े हैं, सोचते रुकें कि जाएं? बरसों से यही हो रहा है।