आपने भी अक्सर कई लोगों को देखा होगा जो बिना काम के भी इतने बिजी रहते हैं कि उन्हें किसी काम की सुधि नहीं रहती है. वे अपने जरूरी काम भी अक्सर भूल बैठते हैं और उनका हर काम या तो विलंब से पूरा हो पाता है अथवा आधा-अधूरा ही रहता है. हमारे घर, हमारे दफ्तर और आसपास ऐसे लोगों की कमी नहीं होती. वे कोई बुरे इंसान नहीं होते बल्कि अक्सर वे बड़ी ही समझदारी की बात करते हैं मगर वे किसी भी काम को अंजाम तक नहीं पहुंचा पाते. दरअसल ऐसा क्यों होता है, इस पर यदि विचार किया जाए तो लगता है कि ऐसे लोगों के पास धैर्य की कमी रहती है. वे अधीर हो जाते हैं और उनकी यह अधीरता ही उनके लिए मुसीबतें पैदा करने लगती हैं. छोटी-छोटी बातें तक कई बार बहुत बड़ी हो जाया करती हैं और बिलावजह आदमी असंतुष्ट व खिन्न रहने लगता है. ऐसी मनोदशा में वह कुछ ऐसे कांड कर बैठता है जो उसके लिए जीवन भर का कांटा बन जाती हैं. जो सबसे बड़ा परिवर्तन उसके जीवन में आता है वह है उसके अंदर धीरज का खत्म हो जाना और मनुष्य काफी हद तक अधीर होने लगता है. यह अधीरता ही उसके लिए जंजाल बन जाती है. अधीर आदमी हड़बड़ी में कुछ ऐसा कर देता है जो न सिर्फ उसके लिए बल्कि पूरे समाज के लिए घातक बन जाता है. इसलिए अधीर व्यक्ति भी सबके लिए नुकसानदेह बन जाता है.
मध्यकाल के सर्वमान्य भक्त कवि तुलसीदास ने कहा है-
तुलसी बिपदा के सखा धीरज, धर्म, विवेक।
साहित, साहस, सत्यबल राम भरोसो एक॥
अर्थात कभी विपत्ति आए तो भी धैर्य, धर्म और विवेक को नहीं छोडऩा चाहिए. इसके अतिरिक्त सबका हित सोचना और साहस तथा सत्यनिष्ठ बने रहना तथा ईश्वर पर अटूट भरोसा ही आपको विपत्तियों से बचाता है. पर आजकल इसका उलटा हो रहा है. मनुष्य पहले तो धैर्य का त्याग करता है फिर अपने धर्म (कर्तव्य) का और विवेक को भी त्याग देता है. नतीजा यह होता है कि विपत्ति स्वयं उसके पास आ ही जाती है. जब आप अपनी बुद्धि से चलेंगे ही नहीं तो लड़ेंगे कैसे! यह अधीरता ही मनुष्य को विचलित करती है और वह आमतौर पर ऐसी हरकतें करने लगता है जिससे वह अपना ही नुकसान करता जाता है. इस अधीरता के चलते ही वह खिन्न रहता है तथा ऐसी मनोदशा में वह अपने परिवार व समाज का भी अहित करता है. शायद यही कारण है कि हर महात्मा ने मनुष्य को धैर्यवान बने रहने की सलाह दी. आज के मशीनी युग में ये जो जटिल बीमारियां आई हैं वह भी मानव मन की इसी अधीरता की देन है.
अब देखिए मानव की तरह पशु भी एक प्राणि है और वह भी चौपाया. मनुष्य ने अपने दो पांव मुक्त कर लिए और ये मुक्त दो पांव उसके लिए वरदान बन गए. वह अपने इन्हीं दो पांवों की बदौलत वह सारे काम करने लगा जिसके चलते उसे आजीवन भोजन जुटाने की परेशानी से नहीं जूझना पड़ता है. अब जब उसके पास समय हुआ तो वह सोचने लगा और कला, कौशल व कल्पना का विकास हुआ. मगर इसके साथ ही वे भाव आए जिन्होंने मनुष्य को अधीर बना दिया. आप देखिए जंगल में जितने भी प्राणी हैं वे अपने शिकार के लिए इतना धीरज दिखाते हैं कि पूरा दिन बैठे रहते हैं शिकार की टोह में. फिर जब शिकार थोड़ा-सा भी लापरवाह हुआ तो हमला बोल दिया. इस हड़बड़ी में शिकार अधीर हो जाता है और शिकारी मजे से उसे दबोच लेता है. ठीक इसी तरह है मनुष्य की जिंदगी भी जरा भी लापरवाह हुआ बस फौरन वह ट्रैक से उतर पड़ेगा और अधीरता उसे घेर लेगी. तब वह उन तमाम बीमारियों का शिकार बन जाएगा जो बैठी ही इसी ताक में रहती हैं कि कब मनुष्य अपना धीरज खोए और वे उसे दबोच लें. इसके विपरीत जो किसी तरह के संकट में अधीर नहीं होते बीमारियां उनसे उतनी ही दूर रहती हैं. आखिर जंगली पशुओं के इलाज के लिए न तो कोई डॉक्टर या चिकित्सक होता है और न ही कोई अस्पताल फिर भी वह स्वस्थ रहता है. इसकी असल वजह है कि वह प्रकृति पर भरोसा करता है. रहीम का एक दोहा है-
रहिमन बहु भेषज करत, ब्याधि न छांड़ति साथ।
खग, मृग बसत अरोग बन हरि अनाथ के नाथ॥
अर्थात मनुष्य इतना इलाज करता है फिर भी उसे बीमारियां घेरे रहती हैं पर पशु तो वनों में बसते हैं और स्वस्थ रहते हैं क्योंकि हरि उन सब की रक्षा करता है जो उस पर भरोसा करता है. शायद इसीलिए तुलसी ने यह भी कहा है कि राम भरोसो एक. यहां राम पर भरोसा करने का मतलब प्रकृति पर भरोसा करना है. प्रकृति हर समस्या का हल तलाशती है पर समय आने पर ही. अधीरता के साथ नहीं.
इसलिए बेहतर यही है कि मनुष्य न तो धीरज छोड़े, न अपना कर्तव्य और न ही विवेक. जब आदमी अधीर नहीं होगा तो कोई गड़बड़ नहीं होगी. जब भी लगे कि वह संकट से घिरने लगा है उसे सबसे पहले अपने को शांत और स्थिरचित्त करना चाहिए. शांति अपने आप में ही निदान है. यह शांति ही उसके अंदर विवेक को बढ़ाएगी और धीरज को बनाए रखेगी तब वह स्वत: हल तलाश लेगा. इसलिए अधीरता से बचिए.