हिंदू-मुस्लिम के दायरे में ही देखा जाता है विभाजन, जानें इसमें सिख कहा हैं?

भारत विभाजन को लेकर होने वाली चर्चायें प्राय: दो समुदायों हिंदू और मुस्लिम पर ही केंद्रित रहती हैं

Update: 2022-01-07 13:40 GMT
सचिन कुमार जैन
भारत विभाजन को लेकर होने वाली चर्चायें प्राय: दो समुदायों हिंदू और मुस्लिम पर ही केंद्रित रहती हैं. देश विभाजन के दौर में सिखों की सामाजिक-राजनीतिक स्थिति को लेकर कुछ खास जानकारी सामने नहीं आ पाती. मुस्लिम लीग द्वि-राष्ट्र यानी भारत-पाकिस्तान के विभाजन का लक्ष्य लेकर चल रही थी. जब विभाजन की अंतिम रूपरेखा सामने रखी गयी, तब मुस्लिम लीग ने लॉर्ड माउंटबेटन के सामने सिखों और पूरे पंजाब को पाकिस्तान में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया.
ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि राजनीतिक विश्लेषक मानते थे कि भारत में सिखों के साथ उपेक्षित व्यवहार होता रहा है, जबकि सिखों ने अपनी गरिमा और वजूद को महत्वपूर्ण बनाए रखने के लिए हमेशा योद्धा की भूमिका निभाई. मोहम्मद अली जिन्ना ने पटियाला के महाराज, मास्टर तारा सिंह, ज्ञानी करतार सिंह, हरदित सिंह जैसे सिख नेताओं से कहा कि अगर सिख पंजाब का बंटवारा करने की मांग छोड़ दें और पाकिस्तान में शामिल होने का निर्णय लें, तो वे (मोहम्मद अली जिन्ना) पंजाब को एक स्वायत्त राष्ट्र के रूप में स्थापित करेंगे, जिसकी अपनी संसद होगी, अपनी सरकार होगी और अपनी सेना होगी.
भारत विभाजन और सिख
तत्कालीन पंजाब के लिए यह एक चुनौतीपूर्ण स्थिति थी क्योंकि पाकिस्तान का निर्माण जनसंख्या की बहुलता/संख्या के आधार पर हो रहा था. विभाजन के वक्त पंजाब की आबादी 2.84 करोड़ थी, जिसमें से 1.62 करोड़ मुस्लिम (57 प्रतिशत) और हिन्दू और सिख समेत 1.22 करोड़ (43 प्रतिशत) गैर-मुस्लिम थे. असल में यह सिखों के लिए साम्प्रदायिकता की राजनीति के दौर में अपनी अस्मिता को बचाये रखने का संघर्ष था.
इन्हीं स्थितियों में देश के विभाजन के बीच पंजाब का भी विभाजन हुआ और सिखों ने भारत को चुना; लेकिन यह उल्लेख करना जरूरी है कि ब्रिटिश सरकार द्वारा भेजे गये कैबिनेट मिशन की योजना के तहत संविधान सभा में उचित प्रतिनिधित्व न मिलने से, सिखों ने पहले संविधान निर्माण की प्रक्रिया से खुद को अलग रखने का फैसला कर लिया था. उनके इस निर्णय को बदलवाने के लिए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने खास पहल की थी.
सांप्रदायिक सोच और बंगाल विभाजन का प्रयास
जब भी भारत में विभाजन की राजनीति की चर्चा होती है, तब वह चर्चा हिन्दू और मुस्लिम विभाजन तक ही सीमित रखी जाती है. किन्तु बंगाल विभाजन और सिख समुदाय से जुड़े हुए मसलों को नज़र अंदाज़ करना समझदारी नहीं है. यह तो हम सब जानते ही हैं कि वर्ष 1857 के स्वतंत्रता आन्दोलन के बाद भारत में सत्ता का नियंत्रण ईस्ट इंडिया कंपनी से प्रत्यक्ष रूप से ब्रिटिश ताज (राज व्यवस्था) के अधीन आ गया था. इसके बाद भारत पर अपने नियंत्रण को प्रभावी बनाये रखने के लिए ब्रिटिश सरकार ने साम्प्रदायिक विभाजन की नीति को व्यवस्थित ढंग से लागू किया.
उन्नीसवीं सदी में भारत में हिन्दुओं में सामाजिक बदलाव की बड़ी कोशिशें (जाति और लिंग आधारित भेदभाव आदि) की जाने लगी थीं. यही कारण था कि समाज सुधारक राजनीतिक रूप से भी संगठित और सजग हो रहे थे. वर्ष 1857 के आन्दोलन से भारत की स्वतंत्रता और लोकतन्त्र की मांग बहुत प्रभावी रूप से स्थापित होने लगी थी. ऐसे में ब्रिटिश राज के रणनीतिकारों ने इस विचार को हवा दी कि यदि भारत स्वतंत्र हुआ और यहां लोकतांत्रिक व्यवस्था स्थापित हुई, तो अल्पसंख्यकों, विशेषकर मुसलमानों को भारत में दोयम दर्जे की नागरिकता मिलेगी और यहां की व्यवस्था हिन्दू धर्म और मानस के हिसाब से ही चलेगी.
ऐसे में मुसलमानों की बेहतरी इसी में है कि वे भारत की स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक व्यवस्था की मांग का समर्थन न करें. वास्तव में साम्प्रदायिक शंका की स्थापना एक धारदार रणनीति साबित हुई. तत्कालीन बंगाल प्रांत लगभग 4.90 लाख किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ था. इसकी आबादी भी लगभग 8 करोड़ थी. इतने बड़े क्षेत्र पर नियंत्रण बनाये रखने के लिए वर्ष 1903 में बंगाल विभाजन की रणनीति पर विचार शुरू किया गया. जनवरी 1904 में इस पर बाकायदा विचार-विमर्श शुरू किया गया और 19 जुलाई 1905 को वायसराय लार्ड कर्जन ने बंगाल विभाजन की घोषणा कर दी. बंगाल विभाजन के पीछे वास्तव में हिन्दू और मुसलमान विभाजन की नीति लागू करना था. भारत के सभी राजनीतिक विचारों ने बंगभंग यानी बंगाल विभाजन का विरोध किया और आखिरकार 12 दिसंबर 1911 को इस विभाजन को समाप्त कर दिया गया.
लेकिन उपनिवेशवादी शासन की विभाजन की कोशिश जारी रही. वर्ष 1909 में लागू किये गये भारत सरकार अधिनियम के माध्यम से मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचक मंडल (सेपरेट इलेक्टोरेट) का विचार लागू किया गया. इसमें यह माना गया कि यदि अल्पसंख्यकों के लिए ऐसी व्यवस्था न बनायी जाए, जिसमें वे खुद अपने प्रतिनिधि चुन सकें, तो उन्हें सरकार में समान प्रतिनिधित्व मिल पाना असंभव होगा; जबकि वास्तव में होना यह चाहिए था कि भारत के विभिन्न समुदायों को यह अहसास कराया जाता कि समावेशी और समान लोकतांत्रिक व्यवस्था के माध्यम से सभी का प्रभावी प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया जा सकता है.
दूसरी तरफ मुस्लिम पृथक निर्वाचक मंडल का मतलब था कि प्रान्तों में कुछ स्थान ऐसे तय किये जायेंगे, जहां उम्मीदवार और मतदाता केवल मुस्लिम समुदाय से ही होंगे; अर्थात वहां केवल मुस्लिम प्रतिनिधि ही चुने जायेंगे और उस क्षेत्र में रहने वाले अन्य समुदायों की राजनीतिक प्रक्रिया में कोई सहभागिता नहीं होगी. यह व्यवस्था 'साम्प्रदायिकता' को 'वैधानिकता' प्रदान करने का माध्यम बनी. राजनीतिक हितों के लिए भारत के अन्य साम्प्रदायिक और उपेक्षित समूह भी अपने लिए पृथक निर्वाचक मंडल की अपेक्षा करने लगे.
इसके बाद वर्ष 1919 में नये भारत सरकार अधिनियम में इसका विस्तार किया गया. फिर सिखों, भारतीय ईसाइयों, एंग्लो-इंडियंस और यूरोपीय लोगों को भी इस मंडल में शामिल कर लिया गया. पृथक निर्वाचक मंडल से राजनीतिक प्रक्रिया के केंद्र में एक मूल्य के रूप में साम्प्रदायिकता की स्थापना हो गयी. मजहब के आधार पर शुरू हुई प्रक्रिया में जाति के आधार पर दलितों के लिए पृथक निर्वाचक मंडल की मांग भी जुड़ गयी, जिसका नेतृत्व डॉ. बी.आर. अम्बेडकर कर रहे थे. अगस्त 1932 में ब्रिटेन के प्रधानमन्त्री ने गोलमेज बैठक के बाद भारत के वंचित तबकों, खास तौर पर दलितों के लिए भी साम्प्रदायिक पंचाट (कम्युनल अवार्ड) के माध्यम से पृथक निर्वाचक मंडल की घोषणा की. लेकिन महात्मा गांधी ने इसका विरोध किया क्योंकि वे मानते थे कि वर्ष 1909 से शुरू हुई इस व्यवस्था ने भारत में बंटवारे की जड़ों को बहुत गहरे तक पहुंचा दिया है.
स्वतंत्रता आंदोलन में सिखों की भूमिका
ब्रिटिश भारत की सरकार ने पंजाब में सिखों को अपने साथ लेने के लिए भी विभाजन की नीति अपनायी. समुदाय के प्रभावशाली परिवारों को बड़ी जमीनें और रियायतें देकर अपना नियंत्रण स्थापित करने की पहल की गयी. भारत की आजादी के आन्दोलन में सिखों की बेहद अहम भूमिका रही है. वर्ष 1869 में बाबा राम सिंह नामधारी ने शान्तिपूर्ण गौवध रोकने, विधवा विवाह और पानी के लिए सामाजिक-धार्मिक आन्दोलन चलाया, जो बाद में एक राजनीतिक ताकत बन गया.
कहा जाता है कि महात्मा गांधी के पहले उन्होंने ही स्वावलंबन और आत्मनिर्भरता के विचार पर काम किया था. वर्ष 1907 में ब्रिटिश सरकार ने पंजाब कॉलोनाइज़ेशन अधिनियम लागू करके भू राजस्व और जल शुल्क बढ़ा दिया. तब भी सिखों ने उसके खिलाफ आन्दोलन किया. इस आन्दोलन में भाग लेने के कारण सरदार अजीत सिंह और लाला लाजपत राय को देश निकाला दे दिया गया और म्यांमार (तत्कालीन बर्मा) की मांडले जेल में कैद रखा गया.
लाला हरदयाल की प्रेरणा से सोहन सिंह भाकना ने ग़दर पार्टी की स्थापना की, जिसका मकसद भारत को आजाद करवाना और लोगों में समानता लाना था. ग़दर पार्टी का नियम था कि यह पूरी तरह से धर्म निरपेक्ष समूह रहेगा और इसमें किसी भी तरह की साम्प्रदायिक बातचीत या व्यवहार नहीं होगा. प्रख्यात लेखक के. एस. दुग्गल ने मेनस्ट्रीम वीकली में अपने लेख में उल्लेख किया है कि देश की जनसंख्या में केवल डेढ़ प्रतिशत सिख थे, लेकिन देश में 121 देशभक्तों को फांसी पर चढ़ाया गया, उनमें से 93 सिख थे, 2626 को आजीवन कारावास मिला, इनमें से 2147 सिख थे और जलियावाला बाग में शहीद हुए 1300 लोगों में से 799 सिख थे.
इसके बाद सिख धार्मिक स्थलों को महंतों (जो परंपरा के तहत इन स्थलों का नियंत्रण करते थे) से मुक्त कराने के लिए अकाली आन्दोलन शुरू हुआ. इसके साथ ही गुरुद्वारा सुधार आन्दोलन भी शुरू हुआ. एक समय ननकाना साहिब के महंत नारायण दास ने गुरुद्वारे में आये 130 सिखों के जत्थे पर गुंडों से हमला करवा कर उनकी हत्या करवा दी और शवों को मिट्टी के तेल से जला दिया गया. तब महात्मा गांधी और अली बंधू ननकाना साहिब गये. घटना की गंभीरता के मद्देनज़र ननकाना साहिब की कमान सिखों की एक समिति को सौंप दी गयी. हालांकि ब्रिटिश सरकार ने स्वर्ण मंदिर पर अपने संरक्षक की नियुक्ति कर दी. इस नियुक्ति के खिलाफ भी सिख संघर्ष करते रहे. हज़ारों सिखों ने गिरफ्तारी दी. आखिर में ब्रिटिश सरकार को झुकना पड़ा और स्वर्ण मंदिर का प्रबंधन भी सिखों को सौंपना पड़ा. उस वक्त महात्मा गांधी ने इसे स्वतंत्रता की निर्णायक लड़ाई की पहली विजय के रूप में परिभाषित किया था.
महात्मा गांधी की प्रेरणा बना अहिंसक आंदोलन
सिखों के संघर्ष में गुरु के बाग़ का संघर्ष अत्यंत महत्वपूर्ण है. इसके बंजर रास्ते पर कीकर के पेड़ों की भरमार थी. इसे भी सिखों को सौंप दिया गया था, लेकिन महंत सुन्दर दास सिखों को इसके परिसर में नहीं आने देना चाहते थे. सिख समुदाय सामुदायिक रसोई चलाने के लिए कीकर के पेड़ों की कटाई-छंटाई करता था. महंत ने अनाधिकृत प्रवेश का विषय बना कर सिखों के परिसर में प्रवेश को रोकने के लिए पुलिस की मदद ली.
जानकारी के मुताबिक इस मामले में पहली गिरफ्तारी 8 अगस्त 1922 को हुई. के. एस. दुग्गल लिखते हैं कि इसके बाद एक-एक करके पूरे पंजाब से सिखों के जत्थे गुरु का बाग़ आने लगे. यह उनका अहिंसक सत्याग्रह था. सिखों के समूह ऐसे आ रहे थे, मानों यह लगातार बहने वाली जल धारा हो. कोई भी व्यक्ति हथियार के साथ नहीं आया. पुलिस उन्हें गिरफ्तार करते-करते थक गयी, तो लोगों के साथ बर्बर हिंसा की गयी.
गुरु का नाम लेते हुए सिख अचेत होकर गिर रहे थे, लेकिन किसी ने अपने बचाव की या आक्रमण की कोई कोशिश नहीं की. जिस तरह से सिखों ने संघर्ष किया, उसने पूरे देश को झकझोर दिया और भावनात्मक रूप से उद्वेलित कर दिया. सिखों के इस अहिंसक आन्दोलन ने महात्मा गांधी को भी बेहद प्रभावित किया था. सिखों ने ही ग़दर पार्टी बनायी, कामागाटा मारू का संघर्ष किया. मास्टर तारा सिंह ने लाहौर में पंजाब प्रांतीय सभा पर लहरा रहे मुस्लिम लीग के झंडे को उतार कर फाड़ दिया था. जिसके परिणामस्वरूप आधा पंजाब भारत में रहा, अन्यथा पूरा पंजाब पाकिस्तान का हिस्सा बन रहा था.
महात्मा गांधी, पंडित मोतीलाल नेहरु, दादा भाई नौरोजी जैसे नेता भारत की आज़ादी में हमेशा सिखों के योगदान को स्वीकारते रहे, लेकिन आज़ादी का वक्त आते-आते, सिख समुदाय महसूस करने लगा कि राजनीतिक और संवैधानिक प्रक्रियाओं में उनकी उपेक्षा की जा रही है.
बहरहाल बहुत बाद के वर्षों में सिख संगठनों की राजनीतिक पक्षधरता को देखते हुए महात्मा गांधी ने मास्टर तारा सिंह को लिखा था कि सिख साम्प्रदायिकता की राजनीति कर रहे हैं और उनके हिंसक तरीके भी कांग्रेस की नीति से मेल नहीं खाते हैं. एक विचार यह भी आता रहा है कि गुरुद्वारों की संपत्तियों पर नियंत्रण को लेकर सिख समुदाय में अंदरूनी टकराव होते रहे, जिससे उनकी वैसी राजनीतिक संस्थाएं नहीं बन पाईं, जैसी कि मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा बनी.
भारत में अंतरिम सरकार और संविधान सभा के गठन की प्रक्रिया को अंतिम रूप देने आये कैबिनेट मिशन के प्रमुख सदस्य सर स्टेफर्ड क्रिप्स ने 18 जुलाई 1946 को ब्रिटिश संसद में बयान दिया था कि 'यह चिंता की बात है कि सिख यह मान रहे हैं कि उन्हें यथोचित उपचार नहीं मिला है. दिक्कत यह है कि हम सिख समुदाय के महत्व को कमतर नहीं आंक रहे हैं, लेकिन समस्या यह है कि मुसलमानों की जनसंख्या 9 करोड़ है, जबकि सिखों की केवल 55 लाख. सिख भारत के किसी एक ख़ास भौगोलिक क्षेत्र में भी नहीं रहते हैं, वे कई क्षेत्रों में रहते हैं. मैं ऐसी कोई संभावना नहीं देखता जिसमें वे किसी एक क्षेत्र में बहुसंख्यक होंगे. मैं मानता हूं कि यदि सिख अपनी एक आवाज़ और एक मत बनाये रखेंगे तो ही वे दोनों मुख्य राजनीतिक दलों से कोई बेहतर व्यवस्था बनवा पायेंगे.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
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