काबुल पर पाक का काला साया: आइएस-खुरासान के अंकुश से पाक तालिबान को करेगा नियंत्रित, अफगान को चुकानी होगी कीमत
बीते दिनों काबुल एयरपोर्ट पर हुए आतंकी हमले के दोषियों को सजा देने के लिए अमेरिका ने जिस नांगरहार में एयरस्ट्राइक को अंजाम दिया
जनता से रिश्ता वेबडेस्क| भूपेंद्र सिंह| बीते दिनों काबुल एयरपोर्ट पर हुए आतंकी हमले के दोषियों को सजा देने के लिए अमेरिका ने जिस नांगरहार में एयरस्ट्राइक को अंजाम दिया वहां से पाकिस्तान का पेशावर शहर ढाई घंटे की दूरी पर है। इसी नांगरहार में ही आइएस-खुरासान का मुख्यालय है जिसने गत सप्ताह काबुल एयरपोर्ट पर आत्मघाती हमले किए थे, जिसमें सैकड़ों लोग मारे गए। नांगरहार वह अफगान इलाका है जिसकी सीमा पूरी तरह पाकिस्तान से लगती है। पाकिस्तान तालिबान और आइएस दोनों के साथ गलबहियां करता आया है। दरअसल आइएस-खुरासान वह अंकुश है, जिससे पाकिस्तान तालिबान को नियंत्रित करेगा। इसकी कीमत अफगानिस्तान सहित शेष विश्व को ही चुकानी होगी। यदि दोहा में तालिबान से हुई वार्ता में अफगानिस्तान की चुनी हुई अशरफ गनी सरकार को भी महत्ता मिली होती और किसी स्वीकार्य समझौते में अमेरिका एक गारंटर की भूमिका में होता तो क्या अमेरिकी वापसी की स्थिति में ऐसी ही अफरातफरी मची होती? ऐसा नहीं हुआ और इसका ही परिणाम है कि बीस साल बाद वही तालिबान फिर से अफगानिस्तान पर काबिज हो गया, जिसे अमेरिका ने ही बेदखल किया था।
अफगानिस्तान को लेकर निशाने पर आए अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडन ने कहा कि हम वहां राष्ट्र निर्माण के लिए नहीं गए थे। यदि ऐसा है तो 2 मई 2011 को पाकिस्तान में ओसामा बिन लादेन को मारने के बाद अमेरिका को अफगानिस्तान से भी निकल जाना चाहिए था, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। अमेरिका ने तो अफगानिस्तान को उसकी कबीलाई संस्कृति से दूर पश्चिमी मान्यताओं वाला राष्ट्र बनाना चाहा। उसने वहां लोया जिरगा की बैठकें नहीं कराईं। जबकि शिक्षा, लोकतंत्र, मानवाधिकार, महिला सशक्तीकरण जैसे महत्वपूर्ण कार्यों में संलग्न रहा और जब उसने आधुनिक नगर, प्रशासन, पुलिस व न्याय व्यवस्था स्थापित कीं तो फिर वह राष्ट्रनिर्माण में अपनी भूमिका से इन्कार क्यों कर रहा है।
आखिर अफगान का मूल खलनायक कौन है? पाकिस्तान। पाकिस्तानी सैन्य शासन की मंशा हमेशा से अफगानिस्तान को अपने सांचे में ढालने की रही है। जब डूरंड रेखा और पख्तूनिस्तान को लेकर विवाद बढ़ा तब पाकिस्तान ने पख्तून राष्ट्रवाद की काट के लिए इस्लामिक अभियान का दांव चला। इससे पख्तूनिस्तान का मुद्दा हाशिये पर चला गया। इसी दौरान अफगान राष्ट्रपति दाऊद का झुकाव सोवियत संघ के बजाय पश्चिम की ओर हो रहा था। इसकी प्रतिक्रिया में वहां रूसी दखल बढ़ता रहा। उसके प्रतिरोध में अमेरिका और सऊदी अरब की मदद से पाकिस्तान ने अफगानिस्तान के लिए मुजाहिदीन का ढांचा खड़ा किया। हैरानी इस बात की थी कि पाकिस्तान की भूमिका प्रत्यक्ष होने के बावजूद सोवियत संघ ने कभी पाकिस्तान पर सैन्य कार्रवाई नहीं की। आइएसआइ में अफगान मोर्चे के मुखिया ब्रिगेडियर यूसुफ ने लिखा भी कि जनरल जिया ब्रेजनेव से भयभीत थे। उन्होंने कहा था कि पानी बस उतना ही गर्म रखा जाए जिससे सोवियत को पाकिस्तान में सीधे दखल का मौका न मिले। असल में तब मुजाहिदीन की जड़ पाकिस्तान पर प्रहार न करना सोवियत संघ की एक बड़ी रणनीतिक गलती थी जिसके बुरे परिणाम उसे झेलने पड़े।
रूसियों की तरह अमेरिकी भी जानते रहे कि उनकी अफगान समस्या की जड़ में पाकिस्तान है, लेकिन उन्होंने पाकिस्तान को निशाना नहीं बनाया। जबकि पाकिस्तान की सैन्य महत्वाकांक्षाएं ही इस पूरे इलाके की अस्थिरता का कारण रही हैं। अपने पूरब में पाकिस्तान कश्मीर चाहता है और अफगानिस्तान में उसकी इच्छा रणनीतिक पैठ बनाने की है। इतने आंतरिक और बाहरी विरोधाभासों को समेटे हुए पाकिस्तान पूरे दक्षिण एशिया पर एक दुर्भाग्य के साये की तरह है। अमेरिकियों ने भी पाकिस्तान सिंड्रोम से पार जाने की कोई कोशिश नहीं की। पिछले सोवियत अभियान के दौर में तो अमेरिकी इतनी दुविधा में थे कि उन्होंने प्रेसलर संशोधन जैसे प्रतिबंधों के बावजूद पाकिस्तान के परमाणु क्षमताएं हासिल करने तक पर कोई आपत्ति नहीं की।
वहीं 9/11 के बाद जब अमेरिका को अफगानिस्तान में सेनाएं उतारनी पड़ीं तब इस भूआबद्ध देश में अभियान के लिए पाकिस्तान अमेरिका की मजबूरी बन गया। पाकिस्तान के सहयोग से तालिबान के विरुद्ध यह अभियान रणनीतिक विरोधाभास की मिसाल है। इस लड़ाई में पाकिस्तान तो दोनों पक्षों से शामिल रहा। उधर पाकिस्तानी ऐशगाह में तालिबान को और ताकत मिलती रही। पाकिस्तान में फौज और मजहब का ऐसा सत्तातंत्र था, जिसके पास आतंकी संगठन, ड्रग मनी और एटम बम के साथ लोकतंत्र का मुखौटा भी था। पाकिस्तान-अफगानिस्तान में घिरा अमेरिका ऐसा युद्ध लड़ता रहा जिसमें विजय का विकल्प ही नहीं था। अमेरिका के वापस जाते ही अफगानिस्तान के हालात पहले जैसे ही होने हैं। अब तालिबान की नई पीढ़ी सत्ता में आ गई है। इतिहास एक चक्र पूरा कर फिर वहीं आकर खड़ा हो गया है।
इस पूरे परिदृश्य में हम कहां खड़े हैं? हम वहां विकास संबंधी गतिविधियों पर खर्च करते रहे। अतीत में विदेश नीति को तटस्थ भाव से चलाने के कारण दक्षिण एशिया में सबसे बड़ा देश होने के बावजूद हमारी सशक्त भूमिका नहीं बन पाई। दूसरी ओर पाकिस्तान अफगानिस्तान में हावी रहा। अफगानिस्तान की सीमा भले हमसे नहीं मिलती, लेकिन पाकिस्तान की मजहबी नीतियां हमारी आंतरिक राजनीति को सीधे प्रभावित करती हैं। आशंका है कि तालिबान की यह जीत पूरे भारतीय उपमहाद्वीप को एक धार्मिक युद्ध की दिशा में ले जाएगी।
तालिबान का तात्कालिक लक्ष्य धार्मिक शासन की स्थापना है। जबकि पाकिस्तान कश्मीर और चीन संपूर्ण हिमालय क्षेत्र पर वर्चस्व चाहता है। भारत तीनों का लक्ष्य है। अच्छी बात है कि हमारी तुष्टीकरणवादी रक्षात्मक नीतियों की प्रधानमंत्री मोदी के दौर में कायापलट हो रही है। अब भारत-अमेरिकी सैन्य सहयोग को 'हिमालयन राष्ट्र रक्षा सहयोग संगठन' जैसे किसी विचार के साथ धरातल पर उतारना जरूरी है। ये तीनों देश भारत की नक्सल-माओवादी शक्तियों के साथ जिहादी-मजहबी एवं राष्ट्रविरोधी विभाजनकारी संगठनों को अतिसक्रियता की ओर ले जाएंगे। वे हमें सीमा संबंधी व आंतरिक विवादों में उलझाए रखना चाहेंगे। सीमा पर तो हमारी सेना सक्षम है, लेकिन हमें आंतरिक सुरक्षा मशीनरी को बेहतर बनाना होगा, क्योंकि अब उनकी घोर परीक्षा का काल प्रारंभ होगा।