आंखें बंद करके अंधाधुंध दौड़ रहा पाकिस्तान अपने पांवों में ही उलझकर गिरने की भूल तो नहीं कर रहा

हथियारों, गोला बम-बारूद के बलबूते ‘रक्त-रंजित’ या कहिए ‘खूनी पॉवर’ की खातिर जब से अफगानिस्तान (Afghanistan) में ‘तबाही’ का खौफनाक मंजर जमाने के सामने पेश आया है

Update: 2021-09-07 14:17 GMT

संजीव चौहान। हथियारों, गोला बम-बारूद के बलबूते 'रक्त-रंजित' या कहिए 'खूनी पॉवर' की खातिर जब से अफगानिस्तान (Afghanistan) में 'तबाही' का खौफनाक मंजर जमाने के सामने पेश आया है तभी से दुनिया को, हिंदुस्तान (India) के धुर-विरोधी चीन-पाकिस्तान (China-Pakistan) की बाछें खिली-खिली सी नजर आ रही हैं. 'आजादी' हासिल करने की दुहाई देकर 'खूनी-खेल' भले ही अफगानिस्तान में उनके 'अपनों' के बीच खेला जा रहा हो. जीत-हार की जंग भले ही खूनी या कहिए दुनिया भर की नजरों में कट्टर तालिबानी (Taliban) लड़ाकों और अफगानिस्तान की चुनी हुई सरकार (अब जबरिया बर्खास्त हुकूमत) के बीच क्यों न चल रही थी. भले ही चीन और पाकिस्तान को इस खूनी जंग के दौरान, बीच में और फिर अंत में, कुछ हासिल न हो सका हो. इस सबके बाद भी मगर चीन-पाकिस्तान में जश्न का जो आलम है उसे देखकर किसी भी स्वाभिमानी देश या इंसान का सिर शर्म से झुक जाएगा और इंसानियत तो किस कदर अफगानिस्तान में तार-तार होकर रो रही है, दुनिया के सामने है.

हालांकि सत्ता और ताकत की चाहत में अंधे चीन और और बैसाखियों के सहारे घिसट रहे पाकिस्तान के सियासतदानों-हुक्मरानों पर हाल-फिलहाल के इन सब हालातों का कोई असर पड़ता नहीं दिख रहा है. दोनो एक ही थैली के चट्टे-बट्टे जो ठहरे. अफगानिस्तान में मची तबाही के पीछे चीन और पाकिस्तान का अपना-अपना कोई एजेंडा है तो वह यह कि इस तबाही के मंजर में भी, किसी तरह उन्हें अफगानिस्तान की सरज़मीं पर एक अदद अपना पांव टिकाने भर की जगह मयस्सर हो जाए. बाद में जो होगा सो होता रहेगा.
अफगानिस्तान की जमीं से हिंदुस्तान के खिलाफ साजिश रची जाएगी?
चीन को चिंता है, अफगानिस्तान में पानी की तरह वो अपनी गाढ़ी कमाई बहाकर वहां (अफगानिस्तान में) जमकर कैसे, अपने काम-धंधों को पंख लगा सके. आपातकाल का मौका उठाने के लिए कैसे वो (चीन) हिंदुस्तान की जमीन को छूने का अड्डा अफगानिस्तान में बना सके. ताकि वो (चीन) आने वाले वक्त में देर-सवेर ही सही अपने धुर-विरोधी हिंदुस्तान को नीचा दिखाने की जुर्रत कर सके. चीन को उम्मीद तो यह भी है कि अफगानिस्तान में अगर उसने, अपने पांव जमाने में कामयाबी हासिल कर ली तो वो पाकिस्तान को भी किसी 'पालतू' की तरह हिंदुस्तान के खिलाफ खड़ा कर पाने में कामयाब हो सकेगा. इस सबके लिए चीन जानता है कि अफगानिस्तान में खूनी जंग करने वाले तालिबान को सिर्फ अकूत दौलत व हथियारों के जखीरे की जरूरत है. चीन के पास यह सब पर्याप्त मात्रा में मौजूद है. यह चीन और तालिबान दोनो जानते हैं.
कर्ज की जिंदगी और रोटियां
अब बात करते हैं हमेशा से ही कभी अमेरिका और कभी चीन की रोटियों, कर्जों पर ऐंठने वाले पाकिस्तान की. जिसका एक अदद उसके खुद के सिवाय दुनिया में न उसका दूसरा कोई पुरसाहाल था, न ही आने वाले कई वर्षों में उसके पांवों को अपनी मजबूती मिल पाने के आसार दूर दूर तक नजर आ रहे हैं. सिवाए इसके कि उसे जो पुचकारेगा-पालेगा-पोसेगा वह (पाकिस्तान) उसी के गीत गाने लगेगा. फिर चाहे वो चीन हो या अमेरिका. पाकिस्तान के लिए जो चंद रोटियों के 'निवाले' फेंक देगा, वो उसी की तरफ (चाहे चीन हो, अमेरिका या तालिबानी अथवा फिर कोई अन्य देश) से पूंछ हिलाने लगेगा. पाकिस्तान को जो रोटी डालना बंद करेगा (जैसे हिंदुस्तानी हुकूमत) वो उसी का कट्टर दुश्मन होकर उसकी ओर मुंह करके भौंकना-गुर्राना शुरू कर देगा. हालांकि इस सबका हिंदुस्तान में चाहे हुकूमत कभी भी किसी की भी रही हो, फर्क नहीं पड़ता. इसे भारत की खुश-किस्मती कहें तो गलत नहीं होगा.
खूनी इतिहास गवाह है
पाकिस्तान में एक हुक्मरान या हुकूमत के कुर्सी से हटते-ही, उसकी जगह काबिज होने वाला कुर्सी से हटने वाले की जान और कुनबे की तबाही के लिए बेकल हो उठता है. ऐसा नहीं है कि यह कोई नई या फिर दबी छिपी बात है. पाकिस्तान का इतिहास उठाकर देख लीजिए. सत्ता से पदच्युत होने वाले हर आला हुक्मरान का पाकिस्तान में क्या हश्र हुआ है? एक दो की मिसाल हों तो मैं यहां गिनाऊं. ऐसे डरावने उदाहरणों और रूह कंपा देने वाले नमूनों की लंबी फेहरिस्त मौजूद है जमाने के सामने. फिर वो चाहे पाकिस्तान की पूर्व प्रधानमंत्री मरहूमा बेनजीर भुट्टो (भरी सभा में सरेशाम गोली से उड़ा दी गईं) रही हों. पूर्व राष्ट्रपति आसिफ अली ज़रदारी (कई वर्ष तक जेलों में डाले रखे गए). जनरल परवेज मुशर्रफ(अपने ही देश के हुक्मरानों से जिंदगी बचाने की खातिर कई साल से पाकिस्तान से बाहर पड़े निर्वासित जिंदगी जीने को मजबूर हैं).
बड़े ही जतन से कभी हिंदुस्तान की तबाही की नींव रखवाने वाले और फिर पाकिस्तान बनवाने के शौकीन रहे मरहूम मोहम्मद अली जिन्नाह की जिंदगी के अंतिम दिनों में हुई दुर्गति. पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ (कुर्सी से उतरने के बाद से ही जेल की सलाखों में डलवा दिए गए), पूर्व प्रधानमंत्री ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो (अपने ही देश में 1979 में फांसी पर लटका दिए गए) या फिर सैन्य शासक रहे जनरल जिया उल ह़क (पाकिस्तान में हुए एक विमान हादसे में मारे गए) हों.
पाकिस्तान से कैसी उम्मीद और क्यों?
जाहिर है कि जिस देश की हुकूमतों ने अपने ही पूर्व 'हुक्मरानों' के साथ इस तरह का सलूक किया हो, उस देश की हुकूमत और हुक्मरानों की सोच का आलम किस हद तक गिरे हुए दर्जे का होगा. बहरहाल छोड़िए यह तो पाकिस्तान और उसके हुक्मरानों के चेहरों के पीछे चेहरे की हकीकत रही. ऐसे घटिया और खूनी इतिहास वाले पाकिस्तान जैसे किसी देश के हुक्मरानों की सोच किस हद की 'मलीन' या 'घटिया' हो सकती है? यह सब बताने-लिखने की जरूरत नहीं है. अब बात आगे बढ़ाते हैं कि आखिर चीन की देखा-देखी अफगानिस्तान में पाकिस्तान भी अपने पांव क्यों जमाने के लिए बे-वजह ही उछल-कूद में मशगूल है? दरअसल पाकिस्तान की आज की जो माली हालत है. उसमें अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे ने आग में घी का काम कर दिया है. अगर ऐसा नहीं हुआ होता तो शायद पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई प्रमुख रातों-रात अफगानिस्तान में तालिबानी लड़ाकों के आकाओं के पावों में माथा रगड़ने वहां (अफगानिस्तान) कभी नहीं गए होते.
क्यों खौफ में है केवल पाकिस्तान
दरअसल हिंदुस्तान, अमेरिका और चीन को तालिबानियों से इतना खतरा हाल-फिलहाल में तो कतई नजर नहीं आ रहा है, तालिबानियों का जितना खौफ पाकिस्तान पर है. पाकिस्तान को सबसे बड़ा खतरा यह है कि, कहीं तालिबान ने अगर अपनी (अफगानिस्तानी) जेलों में बंद पाकिस्तान के कट्टर आतंकवादियों को खुला छोड़ दिया, तो पाकिस्तान की वे ईंट से ईंट बजा देंगे. दूसरे जब 20 साल तक अफगानिस्तान में तालिबानी मुंह छिपाए पड़े थे, तब भी पाकिस्तान ने उनसे 'दो-मुहे' सांप की तरह ही बर्ताव किया था. वो कुछ तालिबानी लड़ाकों को तो अपने यहां पालता-पोसता रहा. कुछ को समय-समय पर हड़काता रहा.
मतलब जिस तालिबानी का पलड़ा भारी देखा या जो तालिबानी उसे (पाकिस्तान) अपने काम का लगा, उसी की तरफ आईएसआई और पाकिस्तान हो लिया. दरअसल यह उम्मीद तो बीते कुछ महीनों में पाकिस्तान को भी नहीं थी कि, तालिबान इतनी जल्दी अफगानिस्तान की चुनी हुई सरकार को 'बम-बंदूक' के सहारे उखाड़ फेंकेगा. एक तरीके से यह जल्दबाजी भले ही तालिबानियों के हित में रही हो. मगर रातों रात काबुल पर तालिबानियों के कब्जे ने पाकिस्तान और आईएसआई को संभलने तक का मौका नहीं दिया. अमेरिका और चीन के 'दम' पर पल रहे पाकिस्तान की अपनी माली हालत लंबे समय से खराब है. आने वाले लंबे समय तक भी उसकी भुखमरी के दिन खतम होने के कोई आसार नजर नहीं आ रहे हैं.
तालिबानी की जरूरतें पाकिस्तान की कमजोरी
यह दुनिया को पता है कि जो पाकिस्तान खुद की बदतर जिंदगी का सफर जैसे तैसे, अमेरिका और चीन के कंधों पर बैठकर कछुआ चाल से घसीट रहा हो, वो भला किसी और की क्या मदद करेगा? मतलब तालिबान यह भी जानता है कि पाकिस्तान के पास जब खुद खाने को रोटी मयस्सर नही है. तो वो उसे (अफगानिस्तान) क्या बांटेगा-खिलाएगा? ऐसे में अब ले देकर एक ही रास्ता या फिर कहिए मजबूत वजह तालिबान और पाकिस्तान के बीच दोस्त बने रहने की बची है. वो है दोनो एक दूसरे की कुछ हद तक आतंकवादियों, हथियारों, गोला बारूद से मदद कर सकें. गोला, बारूद आतंकवादियों की वैसे भी पाकिस्तान के पास कोई कमी नहीं है. यह दुनिया जानती है.
अमेरिका ने ओसामा बिन लादेन जैसे अपने कट्टर दुश्मन को पाकिस्तान में घुसकर "ठिकाने" लगा दिया. मोस्ट वांटेड आतंकवादी मसूद अजहर, दाऊद इब्राहिम को पाकिस्तान पाले हुए है. दुनिया इससे भी बेखबर नहीं हैं. दुनिया यह भी जानती है कि मौजूदा वक्त में तालिबान और पाकिस्तान, दोनों को ही हथियारों और आतंकवादियों की जरूरत भी ही है. ऐसे में भला इस बात से कैसे इनकार किया जा सकता है कि जब, तालिबान ने पंजशीर को पाने की 'खूनी चाहत' में अपने हजारों 'बहादुर लड़ाके' मरवा डाले हों. ऐसे वक्त में रातों रात पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी के प्रमुख का अफगानिस्तान जाकर तालिबानियों से गुप्त मंत्रणा करना. और इसके चंद घंटों बाद ही पाकिस्तानी एअरफोर्स द्वारा पंजशीर पर 'ड्रोन' हमले कर देना. ड्रोन हमलों के चंद घंटों बाद ही तालिबान द्वारा घोषणा कर दिया जाना कि उसके लड़ाकों ने 'पंजशीर' फतेह कर लिया है.
इसकी गारंटी कौन लेगा?
यहां तक तो सब सही है. जिसे जब जैसी जिसकी जरूरत होती है. वो एक दूसरे से मदद लेता-देता करता है. तालिबान को फिलहाल पंजशीर फतेह करने के लिए हवाई हमलों की जरूरत थी. तो पाकिस्तानी वायुसेना ने पंजशीर पर ड्रोन हमले करके उस पर तालिबान की 'फतेह' करवा डाली. इस लालच में कि आईंदा तालिबान अपनी जेलों में (अफगानिस्तानी जेलों में) कैद पाकिस्तान के खूंखार आतंकवादियों को काबू रखेगा. इस अहसान के बदले में तालिबान कभी भी पाकिस्तान की ओर आंख उठाकर 'गुर्राने' की हिमाकत नहीं करेगा. मगर ऐसा सोचते वक्त पाकिस्तान यह क्यों भूल जाता है कि जिस जीत की अंधी उम्मीद में वो, बेतहाशा तेज कदमों से आंखें बंद करके इन दिनों तालिबान की मदद के लिए दौड़ रहा है. उसके अपने पांव उसे खुद में ही उलझाकर कहीं बीच रास्ते में औंधे मुंह 'गिरा' न दें.
क्योंकि पाकिस्तान का चलन रहा है कि, कुर्सी पर बैठे ज्यादातर उसके हुक्मरानों ने कभी भी अपने उन्हीं हुक्मरानों की जिंदगी बख्शने की भूल नहीं की, जो कभी देश की हुकूमत चलाया करते थे. ऐसे में भला पाकिस्तान के लिए इस बात की गारंटी कौन क्यों और कैसे देगा कि, जिस तरह पाकिस्तान अपनी बात का पक्का नहीं है, उसी तरह तालिबान भी आने वाले दिनों में पाकिस्तान को उसकी 'औकात' बताने की हिमाकत कर सकता है. अपने आज के वायदे से मुकर कर.
पाकिस्तान अपने पांव में कुल्हाड़ी मार रहा
ऐसे में हिंदुस्तान-तालिबान के पनपने वाले रिश्तों की तासीर क्या होगी? यह बात फिलहाल पाकिस्तान और चीन भूल जाएं तो बेहतर है. पाकिस्तान चिंता इस बात की करे कि अगर तालिबान अपनी बात से मुकर गया तो, पाकिस्तान की दुर्गति का आलम क्या होगा? क्योंकि पाकिस्तान अमेरिका या चीन की गोद में बैठकर, यह न भूले या फिर यह भी याद रखे कि वो (पाकिस्तान) न तो चीन है और न ही अमेरिका. पाकिस्तान, सिर्फ और सिर्फ अदना सा दुनिया की किसी भीड़ का हिस्सा भर है. जिसका अपना शायद कोई वजूद नहीं. सिवाए 'आतंक फैलाने और आतंकवादी 'पालने-पोसने' के.
बुरे वक्त में तालिबान की आज मदद करके आने वाले वक्त में तालिबान से अपनी दोस्ती पक्की समझने की भूल, शायद पाकिस्तान को जमाने में दुबारा से अपने पावों पर खड़े होने के काबिल भी नहीं छोड़ेगी. हालांकि पांवों पर तो वो आज भी नहीं खड़ा है. चीन और अमेरिका की बैसाखियां पाकिस्तान के नीचे न भी लगी हों तो, तमाम उम्र से दुनिया की नजरों में पाकिस्तान 'घुटनों' के बल घिसटता हुआ, किसी 'दुधमुंहे' जिद्दी कहिए या फिर किसी बिगड़ैल अड़ियल बालक से ज्यादा कभी कुछ नहीं दिखाई दिया.


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