SAARC को लेकर पाकिस्तान-चीन की कूटनीति भारत-अमेरिका को करीब ला रही है
अमेरिका-चीन संघर्ष के कारण दक्षिण एशिया (South Asia) की भू-राजनीति तेजी से जटिल और प्रतिस्पर्धात्मक होती जा रही है
ज्योतिर्मय रॉय अमेरिका-चीन संघर्ष के कारण दक्षिण एशिया (South Asia) की भू-राजनीति तेजी से जटिल और प्रतिस्पर्धात्मक होती जा रही है. इसका प्रतिकूल प्रभाव दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (SAARC) पर भी पड़ रहा है. भारत ने हाल ही में पाकिस्तान (Pakistan) द्वारा प्रस्तावित सार्क शिखर सम्मेलन में भाग लेने पर अपनी असहमति व्यक्त की है. पाकिस्तान ने सार्क प्रक्रिया में बाधा डालने के लिए भारत को जिम्मेदार ठहराया और आरोप लगाया कि नई दिल्ली का "अदूरदर्शी रवैया" के कारण क्षेत्रीय सहयोग के लिए यह मूल्यवान मंच तेजी से निष्क्रिय होता जा रहा है.
इसकी प्रतिक्रिया के रूप मे भारत के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने कहा, "2014 से स्थिति में कोई भौतिक परिवर्तन नहीं हुआ है. इसलिए, अभी भी कोई आम सहमति नहीं है जो शिखर सम्मेलन आयोजित करने की अनुमति देगी." गौरतलब है कि 2014 में पिछले काठमांडू द्विवार्षिक सार्क शिखर सम्मेलन के बाद से इसका कोई द्विवार्षिक दक्षेस शिखर सम्मेलन नहीं हुआ है. इस व्यक्त सार्क शिखर सम्मेलन की मेजबानी करने का पाकिस्तान का प्रयास और इसके लिए भारत द्वारा उठाए गए प्रश्न, बदलती हुई भू-राजनीति का ही प्रमाण हैं.
सार्क शिखर सम्मेलन पर पाकिस्तान समर्थक आतंकवाद का साया
इससे पहले, 19वां सार्क शिखर सम्मेलन 9-10 नवंबर, 2016 को पाकिस्तान में होने वाला था, उस समय भारत इस सम्मेलन में भाग नहीं लिया था, क्योंकि उसी साल 18 सितंबर को भारतीय सेना के 12वें ब्रिगेड मुख्यालय, जम्मू-कश्मीर के उरी आर्मी बेस (Uri Army Camp) पर आतंकी हमला हुआ था और इस हमले को पाकिस्तान स्थित आतंकवादी समूह जैश-ए-मुहम्मद ने अंजाम दिया था और इसमें पाकिस्तान सरकार का सीधा समर्थन था. इस हमले में सो रहे 14 भारतीय जवान आग की चपेट में आ गए और शहीद हो गए, 4 जवान आतंकियों की गोलियों का शिकार हो गए और 30 से ज्यादा जवान घायल हो गए. हालांकि पाकिस्तान इस मामले में अपनी संलिप्तता से इनकार करता रहा है. भारत का दावा है कि उसने 10 दिनों के भीतर जवाबी कार्रवाई करते हुए, कश्मीर में नियंत्रण रेखा के पार "सर्जिकल स्ट्राइक" की थी.
भारत द्वारा बैठक से अनुपस्थित रहने की घोषणा के बाद, बांग्लादेश, भूटान, अफगानिस्तान, श्रीलंका और मालदीव ने सूचित किया कि वे भी सम्मेलन में भाग नहीं ले रहे हैं. नेपाल ने पाकिस्तान के बजाय कहीं और बैठक आयोजित करने की कोशिश की, लेकिन नेपाल को समर्थन नहीं मिला. 2019 में संयुक्त राष्ट्र की बैठक के दौरान विदेश मंत्रियों की बैठक में, भारत और पाकिस्तान के विदेश मंत्री एक दूसरे के भाषण में अनुपस्थित रहे. आज के संदर्भ में भी भारत का यह कहना है कि "2016 के बाद से स्थिति में किसी तरह का बदलाव नहीं आया है."
पाकिस्तान आतंकवाद का पनाहगाह
भारत-पाकिस्तान के परस्पर सम्पर्क ने सार्क को आगे बढ़ने नहीं दिया. जबकी, भारत ने अन्य सदस्य देशों की तुलना में इस क्षेत्र के विकास में हमेशा सकारात्मक भूमिका निभाई है. आज पाकिस्तान को आतंकवाद का पनाहगाह कहा जाता है. विश्व पाकिस्तान की इस मानसिकता से अच्छी प्रकार से परिचित है. विश्व के बड़े-बड़े आतंकी आज भी पाकिस्तान मे संरक्षण और प्रशिक्षण लेते हैं.
मुझे याद है, मैं ढाका में होने वाले 7वें सार्क शिखर सम्मेलन (10-11 अप्रैल 1993) की तैयारी कर रहा था. मेरे उत्साह और तैयारियों को देखकर और यह जानकर कि मुझे पत्रकारिता में सार्क में विशेषज्ञता हासिल करने में दिलचस्पी है, वरिष्ठ पत्रकार निखिल दा (मेनस्ट्रीम पत्रिका के संस्थापक संपादक निखिल चक्रवर्ती) ने मुझे बताया, "सार्क को लेकर इतना उत्साहित होने की कोई आवश्यकता नहीं है. सार्क का कोई भविष्य नहीं है. यह एक ऐसी नाव है जिसमें पहले से ही एक छेद है. जब तक भारत के प्रति पाकिस्तान का रवैया नहीं बदलता, पाकिस्तान का वास्तविक विकास और इस क्षेत्र में शांति असंभव है." निखिल दा एक आदर्श पत्रकार थे. उनकी हर बात आज सच साबित हो रही है.
चीन BRI के जरिए दक्षिण एशियाई देशों में अपना प्रभाव बढ़ा रहा है
जब से चीन ने अपना बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) लॉन्च किया, कई दक्षिण एशियाई देश इसमें शामिल हो गए हैं. इस प्रोजेक्ट को लेकर पाकिस्तान ज्यादा ही मुखर और सक्रिय है. पाकिस्तान में चीनी निवेश बढ़ा है. पाकिस्तान के अंदर इस प्रोजेक्ट को लेकर विरोध के बावजूद इमरान सरकार इस चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे को सख्ती से लागू कर रहा है. इमरान के विरोधियों का कहना है कि इमरान केवल अपनी सरकार को बचाने की सोच रहे हैं. जबकी इस प्रोजेक्ट से पाकिस्तान की भावी पीढ़ी चीन का गुलाम बन जाएगी.
इतना ही नहीं, चीन ने 2018 में 'फर्स्ट चाइना-साउथ एशिया कोऑपरेशन फोरम' (CSACF) लॉन्च किया था. भूटान को छोड़कर सार्क के सभी सदस्य देशों ने इस बैठक में भाग लिया और बीजिंग की पहल की प्रशंसा की. यह पहल बीआरआई का एक हिस्सा है. चीन भारत को छोड़कर दक्षिण एशियाई देशों के लिए एक सहयोग ढांचा तैयार करने का इच्छुक है. यह चीन की विस्तारवादी नीति का एक हिस्सा है. चीन इस क्षेत्र में गरीबी उन्मूलन और सहकारी विकास केंद्र स्थापित कर दक्षिण एशियाई देशों में अपना प्रभाव बढ़ाना चाहता है. चीन भारत को अपना प्रतिद्वंदी मानता है. भारत, भूटान और मालदीव के अलावा, दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संघ (सार्क) के आठ सदस्यों में से पांच बीजिंग के नेतृत्व वाली पहल में शामिल हो गए हैं.
चीन के बढ़ते प्रभाव से दक्षिण एशियाई देशों के साथ भारत के संबंध प्रभावित हुए हैं
इस तरह के केंद्र की स्थापना का विचार पहली बार अप्रैल 2021 के अंत में पांच दक्षिण एशियाई देशों के विदेश मंत्रियों और चीनी विदेश मंत्री वांग यी के बीच COVID महामारी के दौरान आपातकालीन कोविड वैक्सीन भंडारण सुविधाओं पर चर्चा के लिए आयोजित एक बैठक में रखा गई थी. बांग्लादेश के विदेश मंत्री एके अब्दुल मोमेन ने कहा, भारत चाहे तो इसमें शामिल हो सकता है. लेकिन ऐसा न होने की संभावना को आसानी से समझा जा सकता है.
भारत को लगता है कि पाकिस्तान द्वारा आतंकवाद को बढ़ावा देने और चीन के साथ सहयोग के कारण सार्क को गति देना असंभव है. इसलिए भारत दक्षेस के विकल्प के रूप में बिम्सटेक (BIMSTEC-Bay of Bengal Initiative for Multi-Sectoral Technical and Economic Cooperation) को लेकर अधिक उत्साहित है. बिम्सटेक, बंगाल की खाड़ी से तटवर्ती या समीपी देशों का एक अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक सहयोग संगठन है. जिसका उद्देश्य तीव्र आर्थिक विकास, सामाजिक प्रगति को बढ़ावा देना और साझा हित के मुद्दों पर समन्वय करने के लिए सदस्य देशों के बीच सकारात्मक माहौल बनाना. बर्तमान मे इसका सदस्य, बांग्लादेश, भारत, बर्मा, श्रीलंका, थाईलैण्ड, भूटान और नेपाल है. पाकिस्तान को उसकी सदस्यता से दूर रखा गया है. चीन के बढ़ते प्रभाव से दक्षिण एशियाई देशों के साथ भारत के संबंध प्रभावित हुए हैं. मई 2020 में लद्दाख में भारत-चीन संघर्ष के दौरान दक्षिण एशियाई देशों ने खुलकर भारत का समर्थन नहीं किया.
पाकिस्तान चीन को सार्क के पूर्ण सदस्य के रूप में शामिल करना चाहता है
पाकिस्तान ने सार्क को अपने प्रभाव विस्तार के लिय एक साधन के रूप में देखा है और इस क्षेत्र में भारत को घेरने के अपने प्रयासों पर ध्यान केंद्रित किया है. इसमें पाकिस्तान को कोई सफलता नहीं मिली है. चीन, 2005 से एक पर्यवेक्षक के रूप में सार्क के साथ निकटता से जुड़ा हुआ है. इस्लामाबाद में आयोजित 12वें शिखर सम्मेलन (2–6 जनवरी 2004) में, सार्क नेताओं ने सार्क गतिविधियों में रुचि रखने वाले अन्य क्षेत्रीय संगठनों और क्षेत्र के बाहर के देशों के साथ एक संवाद साझेदारी स्थापित करने पर सहमति व्यक्त की. 2005 में ढाका में आयोजित 13वें सार्क शिखर सम्मेलन (12–13 नवम्बर 2005) में चीन और जापान पर्यवेक्षक थे. तब से, सार्क में चीन की प्रत्यक्ष रुचि उल्लेखनीय रही है. पाकिस्तान चीन को सार्क के पूर्ण सदस्य के रूप में शामिल करना चाहता है, भारत इसके खिलाफ है.
हालांकि पाकिस्तान ने अफगानिस्तान में सत्ता संभालने के बाद से तालिबान को सीधे तौर पर मान्यता नहीं दी गई है, लेकिन उसने उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्वीकृति और वैधता देने की मांग की है. पाकिस्तान ने पिछले साल सितंबर में संयुक्त राष्ट्र के सत्र के दौरान सार्क विदेश मंत्रियों की एक अनौपचारिक बैठक में अफगानिस्तान के एक तालिबान प्रतिनिधि को शामिल करने पर जोर दिया था. भारत की आपत्तियों के कारण बैठक आयोजित नहीं की गई थी.
इस साल, सार्क संगठन के महत्व को खत्म करने और चीन की पहल पर इस क्षेत्र में नए बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए एक नई पृष्ठभूमि बनाने के लिए पाकिस्तान का प्रयास होगा. चीन द्वारा पहले ही उठाए गए विभिन्न कदम उसी दिशा में इशारा करते हैं. नतीजतन, यह सिर्फ पाकिस्तान-भारत संघर्ष का मामला नहीं है. चीन भविष्य में पाकिस्तान के साथ मिलकर दक्षिण एशिया क्षेत्र में अपनी गतिविधियों को और बढ़ाएगा. इस क्षेत्र में भारत और चीन के बीच यह प्रतिद्वंद्विता भविष्य में और तेज हो सकती है.
अमेरिकी बाजारों में चीन की भागीदारी घटेगी
एशिया-प्रशांत क्षेत्र में चीन के साथ अमेरिका की प्रतिद्वंद्विता अब लगभग शीत युद्ध में बदल रही है, जिसका सार्क पर प्रभाव दिखाई दे रहा है. दक्षिण एशिया के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका का दृष्टिकोण बदल रहा है, भविष्य में अमेरिका इस क्षेत्र पर तनाव में सीधा कूद पड़े तो आश्चर्य नहीं होगा. भारत, चीन और अमेरिका इस क्षेत्र में अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं. भारत और अमेरिका को करीब लाने के लिए चीन का भारत के प्रति आक्रामक रवैया जिम्मेदार है.
सार्क सदस्य राष्ट्रों को अपनी आर्थिक व्यवस्था को गति देने के लिए पश्चिमी देश और अमेरिकी बाजार पर निर्भर होना ही पड़ेगा. इतने दिनों से इन बाजारों में चीन की भागीदारी निर्विरोध रही है. लेकिन अमेरिका-चीन संबंधों में मौजूदा तनाव के चलते इन बाजारों में चीन की स्थिति पहले जैसी नहीं रही और आने वाले दिनों में इन बाजारों में चीन की भागीदारी घटेगी.
पाकिस्तान पहले से ही इस क्षेत्र में आतंकवाद का समर्थक रहा है. इस सेक्टर में पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था सबसे खराब स्थिति में है. अपनी अर्थव्यवस्था को चलाने के लिए पाकिस्तान चीन की मदद लेने को मजबूर है. अब सार्क के सदस्य राष्ट्रों को यह समझने की आवश्यकता है कि अगर वे पाकिस्तान की बहकावे मे आकर चीन के हाथ पकड़ने से उनके देश की अर्थव्यवस्था पाकिस्तान जैसी न हो जाए. अफगानिस्तान की मौजूदा स्थिति के लिए पाकिस्तान बहुत ज्यादा जिम्मेदार है. अब यह सार्क के सदस्य देशों पर निर्भर करेगा कि वे जोड़ तोड़ वाले पाकिस्तान के रास्ते पर चलेंगे या भारत के साथ विकास के रास्ते पर चलेंगे.