प. बंगाल में राजनैतिक उबाल
देश के सीमावर्ती संजीदा राज्य प. बंगाल में चुनाव समाप्त हो जाने के बावजूद जिस तरह दल-गत राजनीति जारी है उससे यह संकेत मिलता है
आदित्य चोपड़ा| देश के सीमावर्ती संजीदा राज्य प. बंगाल में चुनाव समाप्त हो जाने के बावजूद जिस तरह दल-गत राजनीति जारी है उससे यह संकेत मिलता है कि संवैधानिक मर्यादाएं कहीं न कहीं अपनी लक्ष्मण रेखा पार करने को आतुर हैं। भारत की बहुदलीय शासन प्रणाली के लिए यह स्थिति किसी भी हालत में उचित नहीं कही जा सकती। चुनावों में जनता का फैसला आने के बाद सभी दलों को उसे शालीनतापूर्वक शिरोधार्य करना चाहिए क्योंकि जिस दल की बहुमत की सरकार गठित होती है वह पूरे राज्य की जनता की सरकार होती है। इस सरकार की जिम्मेदारी उन लोगों के प्रति भी एक समान होती है जिन्होंने चुनाव में उसकी पार्टी को वोट नहीं दिया होता। साथ ही अल्पमत में सत्ता से बाहर रहने का जनादेश प्राप्त दल का भी यह कर्त्तव्य होता है कि वह चुनी हुई सरकार के संविधान के मुताबिक अपना कर्त्तव्य निभाने के लिए प्रेरित करे और लोकहित में जहां आवश्यक हो उसका विरोध करें। हमारे संविधान में यही व्यवस्था स्थापित होते देखने की जिम्मेदारी राज्यपाल पर सौंपी गई है और इस प्रकार सौंपी गई है कि वह चुनी हुई सरकार के कामकाज में हस्तक्षेप किये बिना संविधान के शासन का निगेहबान बना रहे इस मामले में यह समझना बहुत जरूरी है कि राज्यपाल केवल राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त अपना प्रतिनिधी होता है और उसका कार्यकाल भी राष्ट्रपति की प्रसन्नता पर निर्भर करता है। उसका आचरण और कार्यप्रणाली 'सदाकत' का प्रतीक होता है । उसके व्यवहार या आचरण में जरा सा हल्कापन भी सीधे संविधान की शुद्धता और शुचिता को प्रभावित करता है।