बड़े उद्योगों के अपने बैंक: बैंकिंग प्रणाली देश में आर्थिक विश्वास की तिजोरी
रिजर्व बैंक द्वारा बड़े कार्पोरेट घरानों या उद्योग समूहों को अपने ही बैंक खोलने की अनुमति देने पर जो विचार किया जा रहा है
जनता से रिश्ता वेबडेस्क। रिजर्व बैंक द्वारा बड़े कार्पोरेट घरानों या उद्योग समूहों को अपने ही बैंक खोलने की अनुमति देने पर जो विचार किया जा रहा है उसे लेकर :सामने आ रही है। कुछ इस सुझाव को पीछे ले जाने वाला तथा देश के आर्थिक व वित्तीय क्षेत्रों पर कुछ बड़े पूंजीपति घरानों का नियन्त्रण करने वाला बता रहे हैं। इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि स्वस्थ व पारदर्शी लोकतन्त्र में वित्तीय विकेन्द्रीकरण और राष्ट्रीय आय स्रोतों व सम्पत्ति का समान बंटवारा इसकी आर्थिक नीतियों का ध्येय होता है जिससे संविधान में प्रदत्त प्रत्येक नागरिक अपने उस अधिकार का प्रयोग करे जो उसके निजी विकास व उत्थान करने से सम्बन्धित है। बैंकिंग प्रणाली किसी भी देश के आर्थिक विकास की कुंजी होती है क्योंकि इसकी मार्फत आम आदमी अपनी मेहनत व लगन और उद्यमशीलता से आर्थिक विकास का ढांचा तैयार करता है।
बैंकों में रखा गया धन देश के आम आदमी का ही होता है जिसका उपयोग सकल राष्ट्रीय विकास में इस प्रकार होता है कि छोटे व्यापारी से लेकर लघु उद्यमी और बड़े उद्योगपति तक देश के सकल उत्पादन में बढ़ौतरी करके अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान कर सकें और कृषि व ग्रामीण तथा कुटीर उद्योगों के लिए सम्बल प्रदान कर सकें। बैंकों के दरवाजे इन क्षेत्रों के लिए भी इस प्रकार खुले रहते हैं कि वे अपना उत्पादन बढ़ाने के लिए वित्तीय पोषण की जरूरतों को पूरा कर सकें। यदि साधारण शब्दों और मोटे तौर पर इसका खुलासा किया जाये तो बैंकिंग प्रणाली किसी भी देश के आर्थिक विश्वास की तिजोरी होती है क्योंकि बैंकों में धनराशि जमा कराने वाले लोग निश्चिन्त रहते हैं कि उनका धन न केवल सुरक्षित है बल्कि इसमंे समयानुरूप वृद्धि भी हो रही है। बैंक जमाधारकों को जो लाभ देते हैं वे अन्य लोगों को ब्याज पर कर्ज मुहैया करा कर जो लाभ कमाते हैं, उसमें से देते हैं। अतः बैंकों का प्रबन्धन और नियमन इस प्रकार चलता है कि जमाकर्ताओं को लाभ देने के बावजूद इनकी लाभप्रदता कर्ज देने से प्राप्त ब्याज राशि की बदौलत बनी रहे और ये अपने रखरखाव का खर्चा भी उसमें से निकालते रहें। इससे साफ है कि बैंकों में पैसा जमा करने वाले उपभोक्ता और होते हैं कर्ज लेने वाले लोग दूसरे होते हैं। बैंक अपने प्रबन्ध कौशल से ही देश के आर्थिक विकास में योगदान करते हैं। यह भी हकीकत है कि देश में छोटे से लेकर बड़े उद्योगों की स्थापना बिना बैंकों की वित्तीय मदद से नहीं होती है। बैंक ऋण देते समय उसकी एवज में एेसी वित्तीय गारंटी लेते हैं जिससे उनकी रकम डूब न पाये मगर पिछले कुछ वर्षों में हमने देखा है कि किस प्रकार बैंकों से मोटी-मोटी रकमें लेकर उद्योगपति और व्यापारी चंपत हो रहे हैं। बैंकों के बट्टे-खाते पड़े कर्जों की मिकदार 13 लाख करोड़ रुपए तक पहुंच चुकी है। इनमें सार्वजनिक व निजी क्षेत्र के विभिन्न बैंक शामिल हैं। सबसे ताजा मामला येस बैंक का है जिसके प्रमोटर ने अपने निजी लाभ के लिए ही अपने परिवार के लोगों समेत अपने मित्रों को या उनकी कम्पनियों को मुक्त हस्त से ऋण दिये जो बट्टे-खाते में चले गये। इस वजह से बड़े कार्पोरेट घरानों या उद्योग घरानों को अपने बैंक खोलने की इजाजत देने से येस बैंक जैसा संकट और ज्यादा गहरा सकता है क्योंकि उद्योग घराने ही बैंकों के सबसे बड़े कर्जदार होते हैं और इनके अपने बैंक होने पर कर्ज देने वाले और कर्ज लेने वाले का अंतर ही समाप्त हो जाएगा और स्वाभाविक रूप से कर्ज वितरण में वे सावधानियां नहीं बरती जायेंगी जिनकी अपेक्षा किसी भी व्यावसायिक या वाणिज्यिक बैंक से की जाती है।
हालांकि वाणिज्यिक बैंकों की कार्य प्रणाली रिजर्व बैंक के निर्देशों के अनुसार ही संचालित होती है मगर इस व्यवस्था के चलते ही कई बैंक डूबे हैं। भारत में आर्थिक उदारीकरण का दौर 1991 से शुरू हुआ और इसके बाद रिजर्व बैंक कानून में कई बार संशोधन किया जा चुका है जिसके चलते वाणिज्यिक बैंकों पर ब्याज सीमा भी समाप्त हो चुकी है। यह सब बैंकिंग क्षेत्र में प्रतियोगिता को बढ़ावा देने की गरज से ही किया गया था, परन्तु इसका दुतरफा परस्पर विरोधाभासी असर भारत के मध्यमवर्गीय समाज पर पड़ा है। कार्पोरेट बैंकों की इजाजत मिल जाने पर स्थिति यह भी हो सकती है क्योंकि बैंकों में अपेक्षाकृत अधिक ब्याज मिलने के लालच में सामान्य नागरिक ही अपनी धनराशि इन बैंकों में जमा करायेंगे लेकिन इनका उपयोग कार्पोरेट घराने अपना व्यवसाय बढ़ाने में किस तरह करेंगे इसकी कोई गारंटी नहीं दी जा सकती। भारत की नई पीढ़ी को मालूम होना चाहिए कि अंग्रेजी शासन के दौरान 1934 में रिजर्व बैंक की स्थापना बाबा साहेब अम्बेडकर द्वारा दिये गये आर्थिक निदेशक सिद्धान्तों पर ही की गई थी। 2008-09 की वैश्विक आर्थिक मंदी के दौर में जब अमेरिका आैर यूरोपीय देशों के बैंक एक के बाद एक धराशायी हो रहे थे तब भारतीय बैंक सीना तानकर खड़े थे। अब अर्थव्यवस्था के मूल ढांचे में आधारगत परिवर्तन हो चुका है मगर हमारा लोकतन्त्र वही है जो आजादी के बाद था और इसका लक्ष्य भी वही है जिसे हमारे पुरखों ने समावेशी विकास निर्धारित किया था। अतः रिजर्व बैंक को भारत के इसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए नीति निर्धारित करनी चाहिए।