दुनिया में कोरोना की दस्तक के बाद तेजी से बढ़ती इसकी भयावहता को देख लग गया था कि जब तक इसका टीका विकसित नहीं हो जाता या दवा नहीं आ जाती, तब तक बचाव ही एकमात्र उपाय है। इसलिए देश-दुनिया के वैज्ञानिक टीके बनाने में जुट गए थे। अपने देश में भारत बायोटेक ने भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद के सहयोग से कोवैक्सीन तैयार किया। आक्सफोर्ड-एस्ट्रेजेनेका के बनाए टीके कोविशील्ड के उत्पादन की कमान भारतीय कंपनी सीरम इंस्टीट्यूट आफ इंडिया ने संभाली।
इन दोनों कंपनियों को उत्पादन तेज करने के लिए सरकार ने आर्थिक मदद भी दी। और इस तरह इस 16 जनवरी को टीकाकरण का जो चुनौती भरा अभियान शुरू हुआ, वह आज सौ करोड़ से ऊपर निकल गया। सबसे पहले उन लाखों चिकित्साकर्मियों व अन्य को टीका लगाने का लक्ष्य रखा गया जो देश को कोरोना से बचाने में जुटे थे। कुछ महीने बाद बुजुर्ग आबादी और फिर नौजवानों की बारी आई। अब अठारह साल से कम उम्र के बच्चों का भी टीकाकरण हो रहा है। हालांकि बीच-बीच में ऐसे मौके भी आते रहे जब टीकाकरण की रफ्तार धीमी पड़ी। टीकों की कमी, टीका बनाने में जरूरी कच्चे माल का संकट और कंपनियों की सीमित क्षमता जैसे कई कारण रहे। इससे एक बार तो लगने लगा था कि साल के आखिर तक पूरी आबादी के टीकाकरण का लक्ष्य हासिल हो भी पाएगा या नहीं।
दूसरी लहर में भारत ने कोरोना का जो दंश झेला है, उसे कभी भुलाया नहीं जा सकता। रोजाना संक्रमण की दर और मौतों के मामले में हम अमेरिका तथा ब्राजील के बाद तीसरे स्थान पर थे। तब लगा था कि अगर और पहले टीका आ जाता तो बड़ी संख्या में लोगों को बचाया जा सकता था। हालांकि भारत ने उस कठिन वक्त में भी दूसरे देशों को टीके देकर आपसी सहयोग और भाईचारे की जो मिसाल कायम की, उसे भी दुनिया कभी भूलेगी नहीं।
इस वक्त देश की पचहत्तर फीसद आबादी को टीके की पहली खुराक और इकतीस फीसद को दोनों खुराक लग चुकी हैं। हालांकि टीके को लेकर लोगों के मन में शुरू में कुछ आशंकाएं भी रहीं, लेकिन अब लोगों खासतौर से नौजवानों में जागरूकता बढ़ी है। यही कारण है कि टीका लगवाने वालों का सबसे बड़ा समूह अठारह से चवालीस साल वाला है। कोरोना का संकट अभी टला नहीं है। देश के कुछ राज्यों में अभी भी स्थिति चिंताजनक है। इसलिए सबसे ज्यादा जोर बचाव संबंधी उपायों और दूसरी खुराक का लक्ष्य पूरा करने का होना चाहिए।