महामारी से भी बड़ी हमारी एक चिंता
तीन दिन पहले हिन्दुस्तान टाइम्स ने कोविड के ताजा आंकड़ों का अध्ययन किया,
हरजिंदर,
तीन दिन पहले हिन्दुस्तान टाइम्स ने कोविड के ताजा आंकड़ों का अध्ययन किया, तो पता चला कि कोरोना वायरस से संक्रमित होने वालों की संख्या फिर से बढ़ने लगी है। यह बढ़ोतरी मुंबई, पुणे, चेन्नई, बेंगलुरु और दिल्ली, सभी महानगरों व बड़े शहरों में दिख रही है। ये आंकड़े उस समय आ रहे हैं, जब ज्यादातर लोगों ने मान लिया है कि महामारी अब गुजरा हुआ जमाना हो चुकी है। इक्का-दुक्का अपवाद हो सकते हैं, सड़कों-बाजारों में जहां भी निकल जाएं, अब कोई मास्क नहीं लगाता। सार्वजनिक स्थानों पर जो व्यवहार दिखाई देता है, उससे नहीं लगता है कि ज्यादातर लोगों को यह पता भी है कि शारीरिक दूरी किस चिड़िया का नाम है। दो साल पहले दुकानों के बाहर इसके लिए जो गोले खींचे गए थे, वे या तो पूरी तरह धुंधला गए हैं या बेमतलब हो चुके हैं।
बात सिर्फ आम लोगों की नहीं है, सरकारों का भी यही हाल है। नियम-कायदों में ढील दे दी गई है। सरकारी इमारतों, रेलवे स्टेशनों, यहां तक कि हवाई अड्डों पर भी अब कोई मास्क के लिए नहीं पूछता। सेनेटाइजर की बोतलें या तो नदारद हैं या खाली पड़ी रहती हैं। शरीर की हरारत नापने वाली गन आमतौर पर खराब हो चुकी हैं। अब किसी भी प्रवेश द्वार पर चेक नहीं किया जाता कि आपके स्मार्टफोन में आरोग्य सेतु है या नहीं। महामारी के पिछले दो साल ने जिस तरह के दुख-दर्द दिए, उन्हें भुला देने में भलाई हो सकती है, लेकिन हमने जिस तरह से सावधानियों को भूलना शुरू कर दिया है, वह खतरनाक भी हो सकता है। आप चाहें, तो इसे खतरों को नजरंदाज करने वाला समाज भी कह सकते हैं, और चाहें, तो महीनों चली पाबंदियों के बाद मास्क हटाकर राहत की सांस लेने वाला जनसमूह भी।
बाकी दुनिया में भी यही होता दिख रहा है। महामारी से बचने के लिए कौन सी सावधानियां जरूरी हैं, इस पर विमर्श तो तकरीबन हर जगह खत्म हो गया है। दो साल पहले जब महामारी की शुरुआती खबरें आनी शुरू हुईं, तो एक नाम काफी तेजी से चर्चा में आया था- डॉक्टर एंथोनी फाउची। वह अमेरिकी राष्ट्रपति के प्रमुख चिकित्सा सलाहकार हैं और इस नाते भी उनकी गिनती दुनिया के सबसे बड़े चिकित्सकों में होती है। पिछले सप्ताह उन्होंने यह घोषणा कर दी कि अमेरिका महामारी के दौर से बाहर निकल चुका है। उन्होंने इसका सबसे ज्यादा श्रेय वैक्सीन अभियान को दिया। यह बात अलग है कि इस बयान के कुछ ही समय बाद जब उनकी जांच हुई, तो वह खुद कोरोना वायरस से संक्रमित पाए गए। वह तब तक वैक्सीन की दोनों खुराक ही नहीं, बूस्टर डोज भी लगवा चुके थे। जो बात फाउची ने कही, वही बात दूसरे ढंग से यूरोपीय संघ की एक विज्ञप्ति में कही गई, लेकिन पूरी सावधानी के साथ। विज्ञप्ति में कहा गया कि यूरोप अब कोविड के किसी भी तरह के आपातकाल से बाहर आ चुका है।
हालांकि विश्व स्वास्थ्य संगठन समेत दुनिया के ज्यादातर महामारी विशेषज्ञ और वैज्ञानिक इस बात से सहमत नहीं हैं कि महामारी का खतरा टल गया है। वे मानते हैं कि यह एक दौर है, जब कोरोना वायरस का जो रूप हमारे बीच है, वह उतना घातक नहीं दिख रहा। लेकिन कभी भी इसका कोई ऐसा रूप हमारे सामने आ सकता है, जो हमारी सारी उम्मीदों पर पानी फेर कर हालात को पूरी तरह से बदल दे। कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि आगे चलकर यह वायरस किस तरह का व्यवहार करेगा, हम यह बिल्कुल भी नहीं जानते, इसलिए विज्ञान महामारी को लेकर कोई भी भविष्यवाणी करने की स्थिति में नहीं है। अभी जो स्थिति है, उसे लेकर आश्वस्त नहीं रहा जा सकता। इस पर एक सहमति जरूर दिख रही है कि महामारी या 'पेंडेमिक' तब पूरी तरह से खत्म होगी, जब वह एक नियमित बुखार, यानी 'एंडेमिक' में बदल जाएगी। लेकिन यह कब होगा, इसे कोई नहीं जानता।
वैसे इन बातों का कोई बहुत अर्थ है भी नहीं, क्योंकि पूरे मानव इतिहास में कोई भी महामारी कभी पूछकर या बताकर नहीं आई और न ही गई। महामारियां हमेशा अचानक आ टपकती हैं और हमारी तैयारियों व हमारे चिकित्सा ज्ञान की परीक्षा लेती हैं। इसलिए इस समय जब कोविड का थोड़ा मंदा दौर चल रहा है, तब हमें खुद से वे सवाल फिर एक बार पूछने चाहिए, जिनके जवाब हम दो साल पहले भी ढूंढ़ रहे थे।
जब महामारी ने पहली दस्तक दी थी, तब अखबारों और टीवी की खबरों में ऐसे बहुत से आंकड़े सामने आए थे, जिनमें बताया गया था कि प्रति हजार लोगों पर कितने डॉक्टर होने चाहिए और हमारे यहां कितने हैं? इसी तरह से अस्पताल में कितने बिस्तर होने चाहिए, कितनी नर्स होनी चाहिए, कितने वेंटिलेटर होने चाहिए, वगैरह? इन आंकड़ों में कुछ भी नया नहीं था और ये पहले ही सबके लिए उपलब्ध थे। लेकिन पूरे समाज के लिए इन आंकड़ों को गंभीरता से लेने का यह पहला मौका था। महामारी की खबरों ने लोगों को जितनी दहशत नहीं दी थी, उतनी इन आंकड़ों ने दी। देश में स्वास्थ्य सुविधाएं बहुत कम हैं, इसका अनुभव तो तकरीबन हर किसी को था, लेकिन कुछ चिंताएं संकट काल में ही ज्यादा सताती हैं।
अगले कुछ महीने संघर्ष के थे। टेस्ट के लिए संघर्ष, दवाओं के लिए संघर्ष, अस्पताल में बेड के लिए संघर्ष, ऑक्सीजन के लिए संघर्ष, वेंटिलेटर के लिए संघर्ष। यह ठीक है कि कोशिश से बहुत सारी व्यवस्थाएं बाद में होती दिखने लगीं और फिर वैक्सीन ने भी हालात को काफी संभाला, लेकिन महामारी के दो झटकों ने बहुत सी चीजों की पोल खोल दी थी। यह समझ में आ गया था कि जो समाज सामान्य हालात में अपने लोगों को पर्याप्त स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं दे सकता, वह महामारी के संकट काल में असहाय दिखने के लिए अभिशप्त होगा ही।
इसलिए फिलहाल यह सवाल ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है कि महामारी चली गई या नहीं, यह पूछना भी महत्वपूर्ण नहीं है कि मायावी कोरोना वायरस कोई नया रूप धरकर लौटेगा या नहीं? महामारी का मामला किसी भविष्यवाणी का या समय रहते किन्हीं खतरों को सूंघने का मामला नहीं होता, बल्कि यह हर वक्त पूरी तैयारी रखने का मामला होता है। लोगों की पीठ पर बोझ डाले बिना उनकी सेहत के लिए हर तरह की व्यवस्था बनाने का मामला होता है। हमारी सबसे बड़ी चिंता इसी को लेकर होनी चाहिए
सोर्स- Hindustan Opinion Column