निरर्थक हंगामे में उलझा विपक्ष: विपक्ष के अड़ियल रवैये के बावजूद सरकार ने कुछ विधेयक पारित करा लिए, विपक्ष को इस पर भी आपत्ति
संसद के मानसून सत्र को शुरू हुए तीन सप्ताह हो चुके हैं, पर विपक्ष का हंगामा थमने का नाम नहीं ले रहा है।
भूपेंद्र सिंह| संसद के मानसून सत्र को शुरू हुए तीन सप्ताह हो चुके हैं, पर विपक्ष का हंगामा थमने का नाम नहीं ले रहा है। इस हंगामे के कारण संसद के दोनों सदनों में शुरुआती दो हफ्ते में सिर्फ 18 घंटे ही कार्यवाही चल सकी। इस हंगामे को नेतृत्व कांग्रेस दे रही है और तृणमूल कांग्रेस जैसे क्षेत्रीय दल उसमें बढ़-चढ़ कर भाग ले रहे हैं। यह हंगामा भारतीय राजनीति और संसदीय लोकतंत्र के लिए हितकारी नहीं।
संसद में विपक्ष का अड़ियल रवैया
विपक्ष के अड़ियल रवैये के बावजूद सरकार ने कुछ विधेयक पारित करा लिए हैं, लेकिन विपक्षी दलों को इस पर भी आपत्ति है। विपक्ष के रवैये पर सत्तापक्ष का खिन्न होना स्वाभाविक है। विपक्ष के रवैये को इंगित करते हुए पिछले दिनों प्रधानमंत्री ने कहा कि वह सेल्फ गोल कर रहा है। एक तो विपक्ष चर्चा में भाग नहीं ले रहा और जब कोई विधेयक सदन में चर्चा के लिए आता है तो वह शोर-शराबा करता है। आखिर हंगामा मचाने वाला विपक्ष सरकार पर यह तोहमत कैसे मढ़ सकता है कि वह विधेयकों को एक-दो मिनट में पास करा ले रही है? क्या विपक्ष यह चाहता है कि सरकार अपना काम न करे? यदि विपक्ष यह चाहता है कि विधेयकों पर चर्चा हो तो फिर उसे हंगामा मचाना छोड़ना होगा। विपक्ष का जैसा रवैया लोकसभा में है, वैसा ही राज्यसभा में। लोकसभा की तरह राज्यसभा में भी विपक्ष सदन नहीं चलने दे रहा है, पर सरकार इस सदन में बहुमत न होते हुए भी कुछ दलों के सहयोग से विधेयक पारित करा ले रही है। यह सत्तापक्ष के कौशल का परिणाम है। इसके बाद भी यह सही है कि संसद का कामकाज बुरी तरह प्रभावित है।
संसद में हंगामे को नेतृत्व दे रही कांग्रेस बहस से बच रही
संसद में हंगामे को नेतृत्व दे रही जो कांग्रेस सदन में बहस से बच रही है, वह बाहर अपनी सक्रियता दिखा रही है। राहुल गांधी कभी ट्रैक्टर लेकर सड़क पर निकलते हैं और कभी साइकिल लेकर। ऐसा लगता है कि सरकार को सदन के बजाय सड़क पर कठघरे में खड़ा करने का तरीका ही उन्हेंं रास आ रहा है। पता नहीं वह कृषि कानूनों, पेट्रोलियम पदार्थों के मूल्यों में वृद्धि और पेगासस जासूसी जैसे जिन मामलों को बाहर उठा रहे हैं, उन पर संसद में बहस करने को तैयार क्यों नहीं हैं? कांग्रेस और अन्य विपक्षी दल पेगासस मामले पर कुछ ज्यादा ही जोर दे रहे हैं। हालांकि हाल में इस मामले पर दायर एक याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने जब यह पूछा कि आपके पास क्या प्रमाण है कि जासूसी हुई तो याचिकाकर्ताओं के पास कोई जवाब नहीं था। इसी पर भाजपा नेता रविशंकर प्रसाद ने यह सवाल खड़ा किया कि क्या कारण है कि पेगासस मामले से भाजपा या भारत सरकार के संपर्क का एक भी प्रमाण पेश नहीं किया जा सका है? इस मामले की गंभीरता पर इसलिए भी संदेह होता है, क्योंकि जो मोबाइल नंबर सुप्रीम कोर्ट के एक न्यायाधीश का बताया गया, वह 2014 का निकला।
विपक्ष जासूसी मामले पर सरकार को सदन में घेर सकता था
अपने देश में जो तमाम समस्याएं हैं, उन पर संसद में चर्चा होनी चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। यह अजीब है कि पिछले दिनों कोविड महामारी की दूसरी लहर के दौरान विपक्ष सरकार को आड़े हाथ ले रहा था और विशेष सत्र की मांग कर रहा था। इसके लिए सरकार तैयार भी हुई, पर जब चर्चा का समय आया तो विपक्ष पेगासस जासूसी मामले में सरकार को घेरने की कोशिश करता रहा। पेगासस मामले पर आइटी मंत्री का कहना है कि किसी की जासूसी नहीं की गई। यह तो स्पष्ट नहीं कि सरकार ने पेगासस साफ्टवेयर खरीदा या नहीं, लेकिन यह तय है कि खुफिया एजेंसियों के पास जासूसी के अन्य साधन तो होंगे ही। जब सरकार यह कह चुकी है कि जो नंबर उजागर हुए हैं, वे उनकी जासूसी नहीं करा रही थी तो फिर उस पर विश्वास किया जाना चाहिए। विपक्ष सरकार को सदन में इस बात के लिए घेर सकता था कि जासूसी करने वाली एजेंसियों के लिए ऐसी कोई व्यवस्था बनाई जाए कि वे यह काम मनमानी के साथ न करने पाएं और उन्हेंं जवाबदेह बनाया जाए। पता नहीं विपक्ष ऐसा क्यों नहीं करना चाहता?
कांग्रेस की जमीन पर क्षेत्रीय दल होते जा रहे काबिज
राहुल गांधी यह मानकर चल सकते हैं कि उन्होंने विपक्षी नेताओं को नाश्ते पर बुलाकर और फिर उनके साथ साइकिल चलाकर एक बड़ी सफलता हासिल कर ली, पर उन्हेंं यह ध्यान रखना चाहिए कि विपक्षी दल अपनी राजनीति को क्षेत्रीय नजरिये से देखते हैं और यह किसी से छिपा नहीं कि एक के बाद एक राज्यों में कांग्रेस कमजोर होती जा रही है। उसकी जमीन पर क्षेत्रीय दल काबिज होते जा रहे हैं। आखिर कमजोर होती कांग्रेस को क्षेत्रीय दल क्यों महत्व देंगे? कांग्रेस को इसकी अनदेखी नहीं करनी चाहिए कि तृणमूल कांग्रेस जैसे दल विपक्ष का नेतृत्व अपने हाथ में लेने की कोशिश कर रहे हैं। यदि कांग्रेस राज्यों में इसी तरह कमजोर होती रही तो वह दिन दूर नहीं कि खुद उसकी राजनीतिक हैसियत क्षेत्रीय दल सरीखी हो जाए। यदि ऐसा हुआ तो कांग्रेस का और अधिक अप्रासंगिक होना तय है।
देश के सामने कई जटिल मुद्दों पर संसद में चर्चा होनी चाहिए
आज देश के सामने कई जटिल मुद्दे हैं। चाहे पेट्रोलियम पदार्थों के बढ़े हुए दाम हों या फिर कोविड महामारी के कारण उभरी आर्थिक चुनौतियां अथवा बाढ़ की विभीषिका। अगर इन सारे मुद्दों पर चर्चा नहीं होगी तो फिर चुनौतियों से पार कैसे पाया जा सकेगा? चुनौतियां केवल राष्ट्रीय स्तर पर ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी हैं। एक ओर अफगानिस्तान के हालात समस्याएं खड़ी कर रही हैं और दूसरी ओर चीन भी चुनौती बना हुआ है। कांग्रेस चीन के रवैये को लेकर बोलती तो खूब है, लेकिन वह एक जिम्मेदार विपक्ष की भूमिका निभाने से इन्कार कर रही है। बाकी विपक्ष की तुलना में कांग्रेस के पास अंतरराष्ट्रीय मुद्दों का कहीं अधिक तजुर्बा है, लेकिन सदन के भीतर उसका आचरण आश्चर्यचकित करता है। समझना कठिन है कि देश के सामने उपस्थित चुनौतियों पर कांग्रेस कोई सार्थक बहस क्यों नहीं करना चाहती? कांग्रेस सहित विपक्ष यह भूल रहा है कि सदन के भीतर-बाहर के शोर-शराबे या धरने-प्रदर्शन का कोई खास राजनीतिक प्रभाव नहीं पड़ता। संसद के भीतर-बाहर हंगामे या धरना-प्रदर्शन पर दिल्ली का मीडिया कुछ दिन तो ध्यान देता है, पर उसका असर देश के कोने-कोने तक नहीं पहुंचता। अगर विपक्षी दल सार्थक चर्चा के जरिये सरकार को सदन में घेर पाएं और सकारात्मक सुझाव लाकर विधेयकों में संशोधन कराने में सफल हो जाएं तो इसका प्रभाव देश की जनता पर जरूर पड़ेगा।