ओबीसी वोट बैंक बिल!

ओबीसी आरक्षण संविधान (127वां संशोधन) बिल को संसद में पारित करना विशुद्ध चुनावी राजनीति है

Update: 2021-08-11 11:30 GMT

ओबीसी आरक्षण संविधान (127वां संशोधन) बिल को संसद में पारित करना विशुद्ध चुनावी राजनीति है, लिहाजा विपक्ष ने मोदी सरकार के साथ एकजुट होकर संसद में चर्चा और बिल को पारित कराने को सहमति दी है। यह विपक्ष की राजनीतिक मज़बूरी भी है, क्योंकि ओबीसी वोट बैंक को नाराज कर राजनीति करना असंभव है। यदि यह बिल पारित होकर कानून बनता है, तो राज्य सरकारों को अतिरिक्त शक्तियां मिल सकेंगी कि वे परिस्थितियों और ओबीसी की संख्या के आधार पर जातियों को आरक्षण की सूची में डाल सकेंगी। ओबीसी सूची में लगातार संशोधन कर सकेंगी। संसद का यह निर्णय सर्वोच्च न्यायालय के समानांतर होगा, क्योंकि मराठा आरक्षण के केस में सुप्रीम अदालत का फैसला था कि राज्य सरकारों को ऐसे आरक्षण और सूची में ओबीसी को शामिल करने का अधिकार ही नहीं है। यह विधेयक राजनीतिक सोच के मद्देनजर इसलिए है, क्योंकि अन्य पिछड़ा वर्ग सबसे बड़ा और व्यापक समुदाय है। सबसे ताकतवर वोट बैंक है, लेकिन उसका सियासी जुड़ाव विभाजित है। ओबीसी वोट बैंक अलग-अलग राजनीतिक दलों के प्रति प्रतिबद्ध है। मसलन-सपा और राजद के पक्ष में अधिकतर यादव समुदाय है। दक्षिण भारत में भी ओबीसी बहुतायत में हैं, लिहाजा वहां कई संदर्भों में आरक्षण 50 फीसदी से अधिक है।


चूंकि 2022 की शुरुआत में ही उप्र में विधानसभा चुनाव होने हैं, लिहाजा गैर-यादव ओबीसी वोट बैंक पर भाजपा की भी निगाहें टिकी हैं। इधर ओबीसी और कुछ दलित जातियों ने भाजपा के पक्ष में वोट देकर पार्टी का जनाधार बढ़ाया है। उप्र में ही 39 जातियों और उपजातियों को ओबीसी सूची में शामिल करने की भी चर्चा है। यदि संसद में ओबीसी संविधान संशोधन बिल पारित हो जाता है, तो न केवल उप्र में भाजपा की मंशा फलीभूत होगी, बल्कि हरियाणा में जाट, राजस्थान में गुर्जर, महाराष्ट्र में मराठा, गुजरात में पटेल और कर्नाटक में लिंगायत समुदायों को भी ओबीसी सूची में शामिल करना आसान होगा। ये सभी भाजपा-केंद्रित अथवा भाजपा शासित राज्य हैं, लेकिन छत्तीसगढ़, मप्र, झारखंड, नागालैंड और मिजोरम आदि राज्यों में आदिवासियों की संख्या अधिक है। कई राज्यों में अति पिछड़ा वर्ग भी हैं। नई ओबीसी के मद्देनजर क्या जनजातियों और अति पिछड़ा वर्ग की अनदेखी होगी या उनके आरक्षण में नए हिस्सेदार भी शामिल किए जाएंगे? इस दौरान यह मांग भी जोर पकड़ने लगी है कि आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 फीसदी जो सर्वोच्च अदालत ने तय कर रखी है, संसद ओबीसी बिल के जरिए उसे भी बढ़ाए। क्या संसद यह अतिक्रमण भी करेगी?
बहरहाल आरक्षण के नए सामाजिक-आर्थिक वर्ग तैयार किए जा रहे हैं, क्योंकि राजनीतिक दलों की दृष्टि उनके वोट की सामूहिक ताकत पर है। ओबीसी को लेकर मोदी सरकार का यह दूसरा महत्त्वपूर्ण फैसला है। इससे पहले सरकार ने मेडिकल के केंद्रीय कोटे में ओबीसी को 27 फीसदी आरक्षण देने की घोषणा की थी। वर्ष 2018 में संविधान के 102वें संशोधन के तहत राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा दिया गया था, लेकिन उसके तहत राज्यों में ओबीसी की पहचान करना और उन्हें सूची में डालने का संवैधानिक अधिकार नहीं मिला था, लिहाजा सरकार 127वां संशोधन बिल ला रही है। यह संतोष की बात है कि विपक्ष ने इस बिल पर सार्थक बहस की है। संभवतः वह कुछ संशोधन भी पेश करे। उसका विश्लेषण कार्यवाही के बाद ही संभव है, लेकिन सत्ता-पक्ष ने अपने चुनावी और सियासी मंसूबे साफ करने शुरू कर दिए हैं। हम लगातार कहते आए हैं कि आरक्षण की व्यवस्था की अब समीक्षा की जानी चाहिए। जैसी सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक विसंगतियां और असमानताएं देश की स्वतंत्रता के वक्त थीं, आज वैसी नहीं हैं। आरक्षण से बहुत बदलाव आया है। दलित और ओबीसी सम्पन्न हुए हैं और सरकार के शीर्षस्थ पदों पर भी काम करते रहे हैं। अब आरक्षण उन्हें दिया जाए, जो वाकई दबे-कुचले और वंचित हों।

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