नूपुर शर्मा विवाद: सभ्य समाज को लज्जित करने वाले उपद्रव में शामिल मुसलमानों ने अपने ही समाज का अहित किया
नूपुर शर्मा विवाद
राजीव सचान। इन दिनों भाजपा की निलंबित प्रवक्ता नूपुर शर्मा को लेकर जिस तरह सिर तन से जुदा के नारे लग रहे हैं, उससे कमलेश तिवारी की याद आना स्वाभाविक है। 2015 में जब सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिकता को अपराध मानने वाले कानून पर फिर से विचार करने का फैसला किया तो इस विषय पर आरएसएस के सकारात्मक रुख को लेकर सपा नेता आजम खान ने कहा कि इस संगठन के नेता तो होते ही समलैंगिक हैं। उनके इस बयान से गुस्साए हिंदू महासभा के नेता कमलेश तिवारी ने पैगंबर मोहम्मद साहब के खिलाफ एक ओछी-अपमानजनक टिप्पणी कर दी। मुस्लिम समाज में इसकी तीखी प्रतिक्रिया हुई। कमलेश तिवारी को तत्काल गिरफ्तार कर रासुका भी लगा दिया गया, फिर भी देश के कई हिस्सों में उनके खिलाफ उग्र-हिंसक प्रदर्शन हुए। इन प्रदर्शनों के दौरान 'गुस्ताख-ए-रसूल की एक ही सजा, सिर तन से जुदा।' के नारे लगे। बिजनौर के एक मौलाना ने कमलेश का कत्ल करने वाले को 51 लाख रुपये देने की बात कही तो एक अन्य ने एक करोड़ 61 लाख रुपये देने की। इसके अलावा बंगाल के मालदा जिले के कालियाचक में मुसलमानों ने एक बड़ी रैली निकाली। इसमें करीब दो लाख लोग शामिल हुए। यह भारी भीड़ हिंसक हो गई और उसने कालियाचक थाने पर हमला कर उसे तहस-नहस करने के साथ 25 गाड़ियां जला डालीं। इनमें एक गाड़ी पुलिस की थी और एक बीएसएफ की भी। हिंसक भीड़ ने लूटपाट भी की।
मालदा जैसी ही रैली बिहार के पूर्णिया में भी निकाली गई। यहां भी भीड़ हिंसक हो गई और उसने थाने पर हमला करने के साथ कई वाहन क्षतिग्रस्त कर दिए। बिजनौर, सहारनपुर, आगरा, इंदौर, उदयपुर समेत अन्य शहरों में भी रैलियां निकाली गईं। इनमें हिंसा तो नहीं हुई, लेकिन कमलेश को फौरन फांसी पर लटकाने की मांग अवश्य की गई। इस पर गौर करें कि यह सब तब हो रहा था, जब कमलेश जेल में थे। साफ है कि यह एक बहाना ही है कि बीते शुक्रवार को तमाम शहरों में मुस्लिम सड़कों पर इसलिए उतरे, क्योंकि नूपुर शर्मा को गिरफ्तार नहीं किया गया। इस दौरान कई शहरों में पथराव, तोड़फोड़ और आगजनी के साथ पुलिस पर हमला भी किया गया। उग्र रूप धारण कर सड़कों पर उतरे मुस्लिम और उन्हें हिंसा के लिए उकसाने वाले मुस्लिम समाज के धार्मिक-राजनीतिक नेता ही यह अच्छे से बता सकते हैं कि दहशत पैदा करने वाले इस उपद्रव से उन्हें क्या हासिल हुआ, क्योंकि देश को तो यही संदेश गया कि नूपुर शर्मा का विरोध करने के पीछे मूल मकसद उत्पात मचाना और लोगों को खौफजदा करना था। कम से कम रांची, प्रयागराज, सहारनपुर, हावड़ा, मुर्शिदाबाद आदि शहरों की घटनाएं तो यही कह रही हैं। इसके पहले कानपुर में हुए भीषण उपद्रव ने भी यही बयान किया था।
दिल्ली के अलावा अन्य शहरों में नूपुर शर्मा के खिलाफ एफआइआर दर्ज होने के सिलसिले के बीच यह याद करना जरूरी है कि कमलेश तिवारी को सितंबर 2016 में करीब 10 महीने बाद जमानत मिली और वह भी तब, जब इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उन पर रासुका लगाने के फैसले को गलत ठहराया। चूंकि कमलेश की जान को खतरा था इसलिए उन्हें सुरक्षा दी गई, लेकिन जिन्होंने उनका सिर तन से जुदा करने की ठान रखी थी, वे ऐसा करके ही माने। अक्टूबर 2019 को लखनऊ में उनकी हत्या कर दी गई। उन्हें पहले चाकुओं से गोदा गया और फिर गोली मारी गई। चाकू के अधिकांश वार गर्दन पर किए गए, क्योंकि मकसद सिर तन से जुदा करना था। कमलेश के हत्यारों की पहचान अशफाक और मोईनुद्दीन के रूप में हुई। बाद में उनके कुछ और साथी गिरफ्तार हुए।
नुपुर शर्मा के खिलाफ देश के तमाम शहरों में हुए हिंसक प्रदर्शन जिस तरह कुछ इस्लामी देशों की नाराजगी के बाद हुए, उससे यह संदेह होता है कि उनके पीछे कोई साजिश थी। इस साजिश का संकेत इससे भी मिलता है कि अकेले ट्विटर पर भारत के खिलाफ माहौल बनाने का जो अभियान छिड़ा, उसमें पाकिस्तान, सऊदी अरब, मिस्र आदि के भारत विरोधी तत्वों के अलावा अच्छी-खासी संख्या में भारतीय भी शामिल थे। ये कौन हो सकते हैं, इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं। पता नहीं इनके खिलाफ क्या कार्रवाई होगी, लेकिन सभ्य समाज को लज्जित और आतंकित करने वाले उत्पात में शामिल मुसलमानों ने अपने समाज की बड़ी कुसेवा की है। इस उत्पात के बाद मुस्लिम समाज को मुख्यधारा में शामिल करने के प्रयासों पर पानी फिर सकता है। ऐसा न होने पाए, इसकी सबसे अधिक चिंता मुस्लिम समाज के नेतृत्व को करनी होगी, लेकिन ऐसी कोई उम्मीद ओवैसी, अरशद मदनी, तौकीर रजा, आजम खान जैसे नेताओं और टीवी चैनलों पर प्रकट होने वाले बड़बोले मौलानाओं अथवा तथाकथित इस्लामी विद्वानों से करने का मतलब है मुगालता पालना।
मुस्लिम समाज अपना और देश का भला चाहता है, तो उसे अपने बीच के उन लोगों की आवाज सुननी होगी, जो तार्किक हैं, आधुनिक सोच से लैस हैं और सदियों पुरानी इस्लामी मान्यताओं को खारिज करने के साथ कट्टरता और मतांधता का विरोध करते हैं। ये वे हैं, जो खुद को गोरी, गजनवी, बाबर, औरंगजेब से नहीं जोड़ते। ये उस अभियान का भी हिस्सा नहीं, जिसके तहत यह साबित करने की कोशिश हो रही है कि भारत में मुसलमानों को सताया, दबाया-कुचला जा रहा है।
इनमें छात्र, युवक-युवतियां, कुछ सुधारवादी इस्लामी विद्वान और खुद को एक्स मुस्लिम कहने वाले भी हैं। भले ही इन्हें मुख्यधारा का मीडिया अपेक्षित अहमियत न दे रहा हो, लेकिन उनकी आवाज उभर रही है और असर भी कर रही है। पूरे मुस्लिम समाज को उन लोगों की तरह नहीं देखा जाना चाहिए, जिन्होंने सड़कों पर उत्पात मचाया।
(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं)