घुमक्कड़ी : गांधी, गुरुनानक और शंकराचार्य ने घूमकर ही जाना दुनियां-जहां

कोरोना (CORONA) ने हमको बौना बना दिया है

Update: 2021-08-20 11:43 GMT

शंभूनाथ शुक्ल| कोरोना (CORONA) ने हमको बौना बना दिया है. घूमना-फिरना बंद है. लेकिन कुछ नया जानना हो, नए लोगों को समझना है, तो घूमना ज़रूरी है. ख़ासकर अगर यदि आप पत्रकार हों तो डेस्क पर बैठ कर स्टोरी बना नहीं सकते. इसी तरह अगर आप राजनेता हैं तो भी घूमना (TRAVEL) ज़रूरी है. जब तक ज़ीरो ग्राउंड (ZERO GROUND) से आपके पास रिपोर्ट नहीं होगी, आप पब्लिक का मूड़ नहीं भांप पाएंगे. यही कारण है कि दानिश सिद्दीकी (DANISH SIDDIQI) जैसे फ़ोटो जर्नलिस्ट ख़तरे का अंदेशा समझ कर भी अफ़गानिस्तान गए और जान गंवाई.

ख़ुद टीवी9 (TV9 BHARATVARSH) के रिपोर्टर और फ़ोटोग्राफ़र तालिबान के ख़तरे के बावजूद अफ़ग़ानिस्तान में डटे रहे. कुछ वैसा ही मंजर था जैसे 2006 में आई कबीर ख़ान की फ़िल्म 'काबुल एक्सप्रेस' में दिखाया गया था, जिसमें हिंदुस्तान से तालिबानों की हरकतों को कवर करने के लिए एक रिपोर्टर (जॉन अब्राहम) और फ़ोटोग्राफ़र (अरशद वारसी) जाते हैं. 15 वर्ष पुरानी फ़िल्म में अफगानिस्तान के ग्रामीण समाज का जैसा दृश्यांकन था, क़रीब-क़रीब वैसा ही आज भी है.

गांधी ने पहले भारत को घूमा

ध्यान रखिए, हरदम देखी हुई चीजें सुनी हुई बातों की तुलना में अधिक असर करती हैं और सच्चाई के करीब होती हैं. इसीलिए हर धर्मोपदेशक और समाज सुधारक पहला काम यही करता है कि वह अधिक से अधिक स्थान खुद जाकर देखता है. गांधी जी जब साउथ अफ्रीका से भारत आए तो उन्होंने पहला काम यह किया कि पूरे देश को घूमा और वह भी थर्ड क्लास में ठीक उस आदमी की तरह जैसे कि आम आदमी यहां करता है. तब वह भारत के उस आखिरी आदमी की पीड़ा को समझ पाए जिसके लिए वे अंग्रेजों से लड़ना चाहते थे. सोचिए यदि गांधी जी ने पूरे देश का भ्रमण नहीं किया होता तो गांधी जी कांग्रेस के अन्य नेताओं की तरह उथले और मध्यवर्ग के नेता बनकर सीमित रह जाते. मगर गांधी जी ने इस तरह से नेता बनना स्वीकार नहीं किया और पूरे हिंदुस्तान को घूमा. उनके पहले स्वामी दयानंद, स्वामी विवेकानंद और राजा राम मोहन राय ने भी देश को खूब घूमा था.

गुरु नानक की उदासियां

यही बात हम गुरु नानक में पाते हैं. उन्होंने न सिर्फ हिंदुस्तान का बल्कि बसरा, बगदाद, नेपाल, तिब्बत और श्रीलंका का भी भ्रमण किया. गुरु नानक की इन यात्राओं को गुरुमत में उदासी कहा गया है. गुरू जी ने कुल चार यात्राएं कीं और उनके सारे उपदेशों में इन उदासियों का असर साफ दिखता है. गुरु नानक जब पैदा हुए तो दिल्ली में लोदी सुल्तानों (LODI SULTANATE) का शासन था और जब वे बसरा पहुंचे तो पता चला कि दिल्ली की गद्दी पर बाबर का कब्जा हो गया है. गुरू जी ने अपनी उदासी में इसका जिक्र किया है. एक धर्म का प्रणेता और समाज का सुधारक किस तरह अपने समाज और समय के प्रति जागरूक रहता है इसके प्रमाण हैं गुरु नानक.

गुरु नानक ने पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण की यात्रा की

गुरु नानक जब अपने घरेलू जीवन से विरक्त हो गए और "ना हिन्दू ना मुसलमान!" का उपदेश देने लगे तो पहली बार इन्हें लगा कि यात्राएं (TRAVEL) करनी चाहिए. इनका एक पक्का साथी और शिष्य मर्दाना जो कि गवैया था, इनके साथ हो लिया. पहली यात्रा में गुरु नानक ने सैयदपुर वर्तमान अमीनाबाद पहुंचे और एक बढ़ई के घर रुके. तब बढ़ई को शूद्र (SHUDRA) समझा जाता था और गुरु जी के इस व्यवहार के लिए उन्हें भला-बुरा कहा गया. पर गुरू जी विचलित नहीं हुए और वर्ण व्यवस्था को अनावश्यक ठहरा कर बढ़ई के परिश्रम से कमाए गए अन्न को अत्यंत पवित्र बताया. वहां से गुरू जी कुरुक्षेत्र होते हुए हरिद्वार पहुंचे.

वहां लोग पितरों के तर्पण हेतु जल उलीच रहे थे. गुरु नानक ने उनके सामने ही पूर्व की जगह पश्चिम की ओर ही जल उलीचना शुरू कर दिया. लोगों ने उनकी इस उलटी हरकत के लिए पूछा तो गुरू जी बोले कि जिस तरह तुम्हारे द्वारा उलीचा हुआ जल तुम्हारे पुरखों को मिलता है उसी तरह मेरे द्वारा उलीचा गया जल मेरे खेतों तक पहुंचेगा. पहले तो लोगों ने इन्हें पागल समझा पर बाद में उनकी समझ में आया कि गुरू जी कोई गूढ़ बात कर रहे हैं और उनके पास जुटने लगे. गुरू नानक अपनी इन उदासियों/ यात्राओं के दौरान अपने सिर पर तो मुसलमान कलंदरों द्वारा लगाई जाने वाली टोपी पहनते और माथे पर केशर का तिलक लगाते. गले में हड्डियों के मनकों की माला पहनते. उनकी वेशभूषा से लोग भ्रमित रहते कि इन्हें हिंदू समझें या मुसलमान. हरिद्वार से वे दिल्ली, काशी और जगन्नाथ पुरी तक गए.

घुमक्कड़ी जीवन के शिष्य

गुरु नानक देव पूर्व की अपनी यात्रा के बाद पश्चिम की यात्रा पर गए और घूमते-घूमते अजोधन तक पहुंचे. बसरा और बगदाद की यात्रा इसी दौरान उन्होंने की. वहां उनकी मुलाकात बाबा शेख फरीद से हुई. कहते हैं कि बाद में स्यालकोट से लौटते समय इनकी भेंट बाबर से भी हुई. इसके बाद उत्तर पूर्व की तरफ लखपत खत्री को इन्होंने इतना अधिक प्रभावित किया कि उसने रावी के किनारे करतार पुर नाम का नगर बसाना आरंभ किया. और एक सिख मंदिर बनाकर गुरु के चरणों में अर्पित किया. इसके बाद गुरु नानक ने दक्षिण की यात्रा की.

मार्ग में जैनियों और मुस्लिम संतों से भी इनकी भेंट हुई. अंत में ये सिंहल (Sri Lanka) द्वीप पहुंचे. वहां राजा शिवनाम के उद्यान में इन्होंने डेरा डाला. राजा से भी इनकी भेंट हुई और वहीं पर गुरू जी ने प्राणसंगली नामक ग्रंथ की रचना की. सिंघल द्वीप से लौटने के बाद बटाला नामक स्थान पर शिवरात्रि में योगियों के साथ सत्संग किया. इस तरह गुरु नानक ने चारों दिशाओं की दूर-दूर तक यात्राएं कीं और समस्त स्थानों के धार्मिक आस्थाओं को जाना और समझा. ये उनकी यात्राएं ही थीं जिनके कारण वे चीजों को करीब से जान पाए और समझ पाए. इसलिए अगर कुछ जानना है तो सुनी सुनाई बातों की तुलना में खुद देखना जरूरी है.

हिंदुओं के लिए पूरा देश घूमना अनिवार्य

आदि शंकराचार्य (SHANKARACHARYA) ने दसवीं सदी में चार मठों की स्थापना की थी. उनका मानना था कि इन चार मठों के दर्शनार्थ पूरे भारत देश का आदमी पूर्व, पश्चिम, उत्तर व सुदूर दक्षिण की यात्रा करता रहेगा. यह हमारी एकता का सूत्र भी होगा और धर्म के विस्तृत प्रारूप का भी. औसत हिंदू में जो जिन चार धामों की यात्रा की ललक होती है उनमें से एक रामेश्वरम है जो सुदूर दक्षिण में है और दूसरा उत्तर में बद्रीनाथ, पूरब में जगन्नाथ पुरी और पश्चिम में द्वारिका. इस तरह एक आम हिंदू तीर्थयात्री पूरे भारत की यात्रा कर लेता है. दरअसल जब तक लोग एक-दूसरे से मिलेंगे नहीं तब तक एक दूसरे की अच्छी बातें भी वे जान नहीं पाएंगे. इसलिए यात्रा बहुत जरूरी है और यात्रा भी वह कि लोग एक-दूसरे को जानने व समझने का प्रयास करें.

जो बहता है, वही नीर है

यह पारस्परिक एकता के लिए भी आवश्यक है और पारस्परिक सदभाव के लिए भी. आज देश में जिस तरह की जड़ताएं और विविधताएं सिर उठा रही हैं उसके लिए तो और आवश्यक है कि लोग यात्रा करें और खुद चीजों को समझने की कोशिश करें. इसीलिए भारतीय दार्शनिकों ने "चरैवति, चरैवति" का नारा बुलंद किया था. अनवरत चलते रहो क्योंकि जिस दिन बैठ गए उसी दिन जड़ता हावी होने लगेगी. इसलिए अगर सब कुछ जानना और समझना है तो चलना शुरू कीजिए. क्योंकि रुकना जड़ता है और चलना जीवंतता की निशानी. हमारे सिद्धांतकारों ने इसीलिए कहा है कि जो बहता है वही नीर (WATER) है. नदी को सदानीरा इसी वास्ते कहा गया है. नीर कभी सड़ता नहीं.

कैसे जाएंगे उत्तर प्रदेश की राजधानी में?

उत्तर प्रदेश में विधानसभा का चुनाव निकट आ गया है, लेकिन न तो राजनेता और न ही न पत्रकार अभी ग्राउंड ज़ीरो पर पहुंचे हैं. मगर बिना घूमे कोई भी आकलन सटीक नहीं होता. अनुमान से आकलन नहीं होता, उसमें अपने मन की उड़ान होगी. किंतु जब भी घर से निकलने की सोचो कोरोना-टू (CORONA- 2) के दृश्य याद आने लगते हैं. विशेषकर प्रदेश की राजधानी लखनऊ तो पहली और दूसरी लहर दोनों में बेहाल रही थी.

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