मराठा आरक्षण को ना

सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को एक महत्वपूर्ण फैसले में महाराष्ट्र के उस कानून को असंवैधानिक करार दिया जिसके तहत मराठा समुदाय के लिए शिक्षा और रोजगार में आरक्षण का प्रावधान किया गया था

Update: 2021-05-06 13:14 GMT

जनता से रिश्ता वेबडेसक | सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को एक महत्वपूर्ण फैसले में महाराष्ट्र के उस कानून को असंवैधानिक करार दिया जिसके तहत मराठा समुदाय के लिए शिक्षा और रोजगार में आरक्षण का प्रावधान किया गया था। अदालत ने कहा कि ऐसी कोई असाधारण परिस्थितियां नहीं हैं जिनके आधार पर मराठा समुदाय को शैक्षणिक और सामाजिक दृष्टि से कमजोर मानते हुए आरक्षण प्रदान किया जाए और सुप्रीम कोर्ट द्वारा 1992 में निर्धारित अधिकतम 50 फीसदी आरक्षण की सीमा को पार करने की इजाजत दी जाए। गौरतलब है कि महाराष्ट्र सरकार ने 2018 में एक कानून बनाकर मराठा समुदाय को शिक्षा और रोजगार में 16 फीसदी आरक्षण देने की व्यवस्था की थी जिससे महाराष्ट्र में कुल आरक्षण का प्रतिशत 50 फीसदी की सीमा से ऊपर चला गया था। 2019 में हाईकोर्ट ने इस कानून की वैधता की पुष्टि की थी। इसके बाद मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा, जहां इससे जुड़े कई महत्वपूर्ण पहलुओं पर बारीकी से विचार-विमर्श हुआ। एक अहम पहलू यह था कि क्या अधिकतम आरक्षण 50 प्रतिशत की सीमा को जारी रखा जाए। कई राज्य इस सीमा को खत्म करने के पक्ष में थे। लेकिन सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने साफ-साफ कहा कि विशेष परिस्थितियों के बगैर इस आरक्षण सीमा को पार करना संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 का उल्लंघन माना जाएगा।

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ध्यान रहे महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण की मांग को लेकर तगड़ा आंदोलन हो चुका है। सभी महत्वपूर्ण राजनीतिक दल इस मांग के समर्थन में हैं। सुप्रीम कोर्ट में इस केस की सुनवाई के दौरान भी न केवल केंद्र सरकार ने महाराष्ट्र सरकार द्वारा बनाए गए इस कानून का समर्थन किया बल्कि कई और राज्य भी इस पहल के पक्ष में थे। भूलना नहीं चाहिए कि आरक्षण को लेकर महाराष्ट्र जैसा असमंजस कई राज्यों में है। पारंपरिक तौर पर मजबूत माने जाने वाले समुदायों की ओर से आरक्षण की मांग हाल के वर्षों में अन्य राज्यों में भी उठी है। गुजरात में पटेल और राजस्थान तथा हरियाणा में जाट आरक्षण को लेकर हुए आंदोलन तो राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हुए थे। इन मांगों के पीछे अपना तर्क हो सकता है। कुछ राज्य सरकारों की इस दलील में भी सचाई हो सकती है कि आजादी के सात दशकों के बाद भी कई ऐसे समुदाय हैं जो पिछड़े बने हुए हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या ऐसे तमाम पिछड़ेपनों को दूर करने का एकमात्र उपाय आरक्षण ही रह गया है? जाहिर है इसका जवाब हां में नहीं हो सकता। सचाई यह है कि बिना सोचे समझे हर मामले में लागू करने से इसकी सीमित उपयोगिता भी नष्ट हो जाने का खतरा है। केंद्र और राज्य सरकारों को चाहिए कि वे अलग-अलग समुदायों के पिछड़ेपन के कारणों की बारीक पड़ताल करते हुए इन्हें दूर करने के ज्यादा कारगर और न्यायसंगत तरीके निकालें। वरना वोट बैंक का दबाव राजनीति को सस्ती लोकप्रियता के नुस्खों में उलझाए रखेगा और विभिन्न समुदाय पिछड़ेपन से उबरने के अंतहीन संघर्ष में फंसे रहेंगे।

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