नीतीश का विपक्षी एकता का प्रेम

Update: 2022-12-15 03:33 GMT

आदित्य चोपड़ा: लोकतन्त्र में विपक्ष इस प्रणाली की 'प्राण वायु' माना जाता है जिसमें मत भिन्नता व 'असहमति' को बराबर का स्थान प्राप्त होता है क्योंकि जनतन्त्र समग्र जनता की प्रतिध्वनि होता है। बहुमत और अल्पमत का अर्थ यह कदापि नहीं होता कि जो पक्ष अल्पमत में रहकर 'विपक्ष' कहलाता है वह जनता का प्रतिनिधित्व न करता हो। बहुमत को सत्ता तो बेशक प्राप्त होती है मगर अल्पमत की आवाज भी सत्ता के समक्ष सर्वदा एक चुनौती बनी रहती है। इसे देखते हुए बिहार के मुख्यमन्त्री श्री नीतीश कुमार का यह वक्तव्य महत्वपूर्ण है कि वह बिहार की सत्ता की बागडोर अपने युवा उपमुख्यमन्त्री श्री तेजस्वी यादव के हाथ में सौंपकर देश में समूचे विपक्ष की एकता के लिए प्रयास करेंगे। नीतीश बाबू हालांकि अब वह रुतबा खो चुके हैं जो 2014 में उनके नाम के साथ जुड़ा हुआ था और उन्हें विपक्ष की ओर से प्रधानमन्त्री पद का सशक्त दावेदार बताया जा रहा था। इस हकीकत से नीतीश बाबू स्वयं भी परिचित लगते हैं, इसीलिए उन्होंने यह भी कहा है कि वह प्रधानमन्त्री या अगले 2025 के बिहार विधानसभा चुनावों में अब मुख्यमन्त्री पद के उम्मीदवार नहीं हैं। उनके इस कथन को क्या यह मान लिया जाये कि वह राष्ट्रीय राजनीति में ऐसे उत्प्रेरक की भूमिका निभाना चाहते हैं जिसका मिशन विपक्षी एकता हो? यदि यह सत्य है तो उन्हें सबसे पहले देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस को साधना होगा क्योंकि पूरे देश में एकमात्र यही ऐसी पार्टी है जो विचारधारा और सिद्धान्तों के आधार पर सत्तारूढ़ भाजपा का विकल्प बनने की क्षमता रखती है। इस पार्टी के नेता श्री राहुल गांधी आजकल जिस 'भारत-जोड़ो' यात्रा पर निकले हुए हैं उसमें ऐसी संभावनाएं छिपी हुई हैं जो भारतीय जनता पार्टी को हर विषय और मुद्दे पर आमने-सामने ला सकती हैं। दूसरा इसका अर्थ यह भी निकलता है कि श्री राहुल गांधी की इस सफल यात्रा से ऐसी संभावनाएं बन रही हैं कि राष्ट्रीय स्तर पर 2024 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस व भाजपा का सीधे ही मुकाबला हो जाये। यदि ऐसा होता है तो विभिन्न क्षेत्रीय दल हांशिये पर जा सकते हैं क्योंकि राष्ट्रीय चुनावों में देश के ज्वलन्त मुद्दे केन्द्र में रहते हैं और इन मुद्दों पर लगभग सभी क्षेत्रीय दलों का कोई स्पष्ट एकल नजरिया नहीं हैं। इनके लिए अपने क्षेत्रीय व दलगत मुद्दे ज्यादा महत्व रखते हैं जबकि राष्ट्रीय राजनीति में अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दों का भी विशिष्ट महत्व होता है। इस सन्दर्भ में भारत के मतदाताओं की बुद्धि व राजनैतिक समझ पर पूरा भरोसा होना चाहिए क्योंकि ये मतदाता इतने चतुर व सुजान हैं कि प्रत्येक चुनाव की महत्ता को समझते हैं। इसका प्रमाण हाल ही में हुए गुजरात, हिमाचल व दिल्ली नगर-निगम के चुनाव हैं जिनमें मतदाताओं ने तीनों जगह अलग-अलग जनादेश दिया है। गुजरात जहां भाजपा ने रिकार्ड मतों से जीता वहीं हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस सम्मानजनक बहुमत के साथ सत्ता में आयी और दिल्ली नगर निगम में आम आदमी पार्टी प्रशासन पर काबिज हुई। ठीक ऐसा ही हम उत्तर प्रदेश के बारे में भी कह सकते हैं जहां समाजवादी पार्टी भाजपा के बाद नम्बर दो की पार्टी मानी जाती है। राज्य विधानसभा चुनावों में जातिगत व समुदायगत समीकरण पूरी ताकत के साथ काम करते हैं परन्तु जब राष्ट्रीय चुनाव आते हैं तो मतदाताओं का दिमाग और राजनीतिक सुविज्ञता दूसरे चक्र में काम करने लगती है। बेशक कुछ राज्य इसके अपवाद हो सकते हैं जैसे दक्षिण में तमिलनाडू या आन्ध्र प्रदेश और पूर्व में ओडिशा। मगर कमोबेश मतदाताओं का ध्यान राष्ट्रीय समस्याओं पर ही केन्द्रित रहता है। इसमें उन क्षेत्रीय दलों को लाभ जरूर होता है जो किसी राष्ट्रीय दल के गठबन्धन में रहते हैं। अभी तक विपक्षी एकता के लिए जिस तरह प. बंगाल की नेता सुश्री ममता बनर्जी और तेलंगाना के मुख्यमन्त्री के. चन्द्रशेखर राव ने प्रयास किये हैं वे बजाय विपक्ष को जोड़ने के तोड़ने वाले ही कहे जायेंगे क्योंकि भारत में आज भी बिना कांग्रेस या भाजपा की अगुवाई के कोई संयुक्त मोर्चा बनना संभव नहीं है। संपादकीय :हाईवे के नए युग में भारतइस उम्र मे पति-पत्नी का निराला साथमहंगाई से राहतचीन की तवांग में 'दादागिरी'राजनीति में कोई शार्ट कट नहींमोरक्को ने रचा इतिहासतीसरे मोर्चे का ख्वाब कम्युनिस्टों के रसातल में जाने के साथ ही 'तीसरे लोक' में पहुंच चुका है। अतः अब यह नीतीश बाबू को सोचना है कि विपक्षी एकता को लेकर उनका एजेंडा केवल क्षेत्रीय दलों का तालमेल होगा अथवा राष्ट्रीय विकल्प देने का विचार। क्योंकि क्षेत्रीय दलों को भी यह वास्तविकता स्वीकार करनी पड़ेगी कि कांग्रेस के इस अवसादकाल के दौरान भी पिछले लोकसभा चुनावों में इसे कुल पड़े 78 करोड़ मतों में से 12 करोड़ के लगभग मत पड़े थे। इसके साथ ही इस पार्टी का अस्तित्व भारत के प्रत्येक राज्य में आज भी है चाहे यह बेशक खंडहरों में ही क्यों न हो। राहुल गांधी का भारत जोड़ो यात्रा के पीछे छिपा हुआ एजेंडा यह भी माना जा रहा है कि वह कांग्रेस के खंडहरों की बिखरी हुई ईंटों को पुनः इमारत में तब्दील करना चाहते हैं। प्रख्यात शायर 'फिराक गोरखपुरी' ने संभवतः एेसी ही परिस्थितियों के बारे में यह शेयर कहा था,''इन्ही खंडहरों में कहीं बुझे हुए चिरागइन्ही से काम चलाओ बहुत उदास है रात।

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