'कोकिला' अब भी गूंजेगी

एक सूरज है और एक ही चांद है। एक आसमान और एक ही ब्रह्मांड है

Update: 2022-02-08 06:01 GMT
दिव्यहिमाचल
एक सूरज है और एक ही चांद है। एक आसमान और एक ही ब्रह्मांड है। एक ब्रह्मदेव हैं और एक ही ब्रह्मपुत्री हैं। एक मां सरस्वती है और एक ही उनका प्रतिरूप है। एक भारत है और एक ही उसकी कोकिला-पुत्री लता मंगेशकर है। ये सभी अजर-अमर हैं। वे अवतार-रूप में पृथ्वी पर आ सकते हैं, लेकिन वे अनश्वर हैं। मानव-रूप में पार्थिव देह का अंत और पंचतत्व में विलीन होना कुदरत की नियति है, लेकिन उनका अंत नहीं होता। उनका युग समाप्त नहीं होता। वे ऐसी इबारत नहीं हैं, जिसे मिटाया जा सके। ब्रह्मांड रहेगा, पृथ्वी-लोक रहेगा और यह दुनिया अस्तित्व में रहेगी, तो हमारी स्वर-कोकिला, भारत-रत्न लता मंगेशकर भी रहेंगी। मौसम होगा, माहौल होगा, इच्छा होगी, तो कोकिला की गूंजती हुई कूक की मिठास भी होगी। वह शाश्वत, चिरंतन-सी है। घर-आंगन में मां बच्चे को लोरी सुनाएगी, बच्चा बड़ा होकर अल्हड़ या शरारती होगा, बालपन से गुजऱते हुए किशोर मन की चाहतें भी होंगी, भाई-बहिन का पवित्र त्योहार रक्षा-बंधन आएगा, यौन अवस्था में प्रेम की कोंपलें फूटेंगी और रोमांस के भाव जगेंगे अथवा इन अवस्थाओं से इतर पीड़ा, वेदना, बिछोह से लेकर राष्ट्र-प्रेम तक के अवसर होंगे, तो इन तमाम भावों में एक ही स्वर, एक ही कंठ से गूंजे सुर हम सभी को राहत देंगे और वह हैं-लता मंगेशकर। जीवन में भजन, भक्ति के गीत हों या विभिन्न अंचलों के लोकगीत हों, हमारी कोकिला ने सभी विधाओं को अपनी सुरमयी आवाज़ दी है। क्या एक अदद फनकार या एक आम आदमी की शख्सियत के इतने आयाम संभव हैं?
कदापि नहीं। फिर लता जी मर कैसे सकती हैं? हां, उनका पार्थिव क्षय हुआ है। पार्थिव अंत तो प्रभु राम और कृष्ण का भी हुआ था। यही तो प्रकृति-चक्र है। खुद ब्रह्मदेव ने तय किया है, लेकिन यह विश्लेषण करना बिल्कुल गलत है कि लता जी के पार्थिव देहावसान के साथ ही एक युग, एक अध्याय समाप्त हो गया। दरअसल यह पूरी सदी ही लता मंगेशकर के नाम दर्ज है-लता से पूर्व और लता के बाद। लेकिन कला-संस्कारों और स्थापनाओं में लता मंगेशकर हमेशा मौजूद हैं और रहेंगी। यह तो प्रख्यात गीतकार एवं फिल्मकार गुलज़ार से लेकर ग़ज़ल के उस्तादों-मेहंदी हसन और गुलाम अली साहेब-और लता जी के जीवनीकार हरीश भिमानी तक न जाने कितने ़फनकारों ने माना है। लता जी संगीत, सुरों और गायकी की जीवंत प्रतिमा थीं। कितना दैवीय संयोग है कि 5 फरवरी को बसंत पंचमी के दिन देश ने मां सरस्वती की पूजा की, उनके नाम समर्पित दिन को समारोह की तरह मनाया और अगले ही दिन मां शारदा की साक्षात् अवतार लता जी ने महाप्रयाण का निर्णय ले लिया। वह किसी और स्थान, मंज़र और मानस को गुंजायमान करने की लंबी यात्रा पर निकल पड़ीं। यह यकीनन असामान्य संयोग है। अंतिम सांस लेने से पूर्व लता जी अपने प्रेरक-पुरुष, दिवंगत पिता जी मास्टर दीनानाथ मंगेशकर के गीत सुनती रहीं और हौले-हौले ताल भी देती रहीं। संगीत उनकी चेतना में आखिरी पलों तक साकार था।
उस साकार को देखने, सुनने, जीने और प्रेरित होने का साक्षात् क्षय जरूर महसूस होगा और उस खालीपन को कभी भरा नहीं जा सकेगा। अलबत्ता लता जी हमारे बीच ही मौजूद हैं। उन्हें अनुभव करने के एहसास जगाओ। जब सरहदों पर उदास, भावुक सैनिकों ने उन्हें याद किया, तो क्या उन्होंने 'ऐ मेरे वतन के लोगो' और 'वंदे मातरम्' सरीखे गीतों को गुनगुनाया नहीं होगा? यही चिरंतन अवस्था है। लता जी ने पार्थिव रूप में जो कुछ हासिल किया, भारत सरकार ने उन्हें सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'भारत-रत्न' से नवाजा, सभी पद्म सम्मान भी मिले, गिनीज बुक में रिकॉर्ड के तौर पर नाम दर्ज हुआ और विदेशियों को या तो लता मंगेशकर अथवा ताज़महल के संदर्भ में खुद को वंचित महसूस करना पड़ा, 36 भाषाओं में 30,000 से ज्यादा गीत गाना-क्या कोई आम कलाकार इतने हासिल प्राप्त कर सकता है? यही लता जी की व्यापकता और विलक्षणता थी। भाषाओं को जानना और उनमें गायकी ही परोक्ष रूप से सरस्वती-गायन है। बहरहाल लता जी की अनुपस्थिति जरूर खलेगी, लेकिन उनके गीत सुनें आंखें मूंद कर। कुछ पल भावुकता में भी बिताएं। आंखें नम हो जाने दें, लेकिन चिंता न करें, क्योंकि यह कोकिला हमेशा गूंजती रहेगी। उन्हें बेहद विनम्र श्रद्धांजलि…।
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