उम्मीदें जगाते नए उद्योग
सरकारी और देसी-विदेशी निवेशकों की ओर से नए कारोबारों में बीते एक साल में पैंतीस अरब डालर से ज्यादा की पूंजी लग चुकी है। हालांकि इन सारे आंकड़ों में यह तथ्य भी नजर आता है
संजय वर्मा: सरकारी और देसी-विदेशी निवेशकों की ओर से नए कारोबारों में बीते एक साल में पैंतीस अरब डालर से ज्यादा की पूंजी लग चुकी है। हालांकि इन सारे आंकड़ों में यह तथ्य भी नजर आता है कि ज्यादातर नई कंपनियां देश के बड़े शहरों में शुरुआत कर रही हैं, क्योंकि वहां का बुनियादी ढांचा उनके लिए मुफीद ठहरता है।
बेरोजगारी से जूझते देश में ऐसी हर वह खबर हमें राहत देती प्रतीत होती है, जिससे नौकरियों के पैदा होने और अर्थव्यवस्था के रफ्तार पकड़ने का भरोसा मिलता हो। हाल में जब केंद्रीय गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय संसद को बता रहे थे कि वर्ष 2020 में देश में कुल तीन हजार पांच सौ अड़तालीस बेरोजगारों ने आत्महत्या की, तो सवाल उठ रहा था कि आखिर पहेली बन गई बेरोजगारी के इस किस्से से हमें छुटकारा मिलेगा भी या नहीं।
इन सवालों के जवाब निश्चय ही नौकरियां सृजित करने के साथ-साथ देश में यह जज्बा जगाने में ही निहित हैं कि नौकरी मांगने से बेहतर है कि नौकरी देने वाला बना जाए। हालांकि यह राह आसान नहीं है। इसके लिए युवाओं के भीतर अपना कोई कामधंधा शुरू करने का जोखिम लेने का उत्साह पैदा करने की जरूरत है। राह टेढ़ी जरूर है, पर नाममुकिन नहीं। इसकी एक झलक हाल में तब मिली जब आर्थिक सर्वेक्षण में बताया गया कि इस साल की शुरुआत तक देश में इकसठ हजार चार सौ से अधिक नई कंपनियों को मान्यता दी जा चुकी थी।
इस सिलसिले का आरंभ वर्ष 2016 से हुआ था, जब भारत में 'स्टार्टअप इंडिया' अभियान को हरी झंडी दी गई थी। इस योजना का मकसद देश में नवाचारी उद्योगों और उद्यमशीलता को बढ़ावा देना था। हालांकि इस बीच कोरोना महामारी से पैदा हालात ने देश के आर्थिक माहौल पर काफी विपरीत असर डाला, लेकिन इंटरनेट की बदौलत देश में नई कंपनियों के कामकाज में ज्यादा अड़चन नहीं आई।
इसी का नतीजा है कि जहां वर्ष 2016-17 में सरकार ने सिर्फ सात सौ तिहत्तर नवाचारी कंपनियों को मंजूर किया था, वहीं वर्ष 2021 में चौदह हजार नए उद्योगों को मंजूरी दी गई। इसमें भी एक उल्लेखनीय तथ्य यह है कि देश में ऐसी नई कंपनियों की संख्या भी तेजी से बढ़ रही है, जिनका बाजार मूल्यांकन एक अरब डालर (लगभग 7470 करोड़ रुपए) के बराबर या इससे ज्यादा है।
ऐसी कंपनियों को यूनिकार्न कहा जाता है। वर्ष 2021 में ऐसे यूनिकार्न की संख्या चवालीस थी, जो अब बढ़ कर तिरासी हो चुकी है। यह भी कहा जा रहा है कि ये सिलसिला अभी रुकने वाला नहीं है। इस बारे में पीडब्ल्यूसी इंडिया ने एक आकलन किया है। इसके मुताबिक वर्ष 2022 में देश में करीब पचास नवाचारी कंपनियां और यूनिकार्न की श्रेणी हासिल कर सकती हैं। इस तरह साल के अंत तक एक अरब डालर से अधिक मूल्यांकन वाले नवाचारी कारोबारों की कुल संख्या एक सौ से ऊपर निकल सकती है।
ऐसी खबरों से उत्साह जगना स्वाभाविक है। इसका एक असर यह है कि सरकार के अलावा कई बड़े उद्योगपतियों ने इन कंपनियों में भारी निवेश करना शुरू कर दिया है। उदाहरण के लिए रिलायंस ने वर्ष 2021 में ऐसी कंपनियों में सात हजार करोड़ रुपए से ज्यादा की पूंजी लगाई। टाटा और वेदांता जैसे समूह भी इस कतार में हैं। खुद सरकार भी कई नवाचारी कंपनियों में पैसा लगा रही है।
अंदाजा है कि सरकार की ओर से ऐसा निवेश एक हजार करोड़ के करीब हो चुका है। इस तरह सरकारी और देसी-विदेशी निवेशकों की ओर से नए कारोबारों में बीते एक साल में पैंतीस अरब डालर से ज्यादा की पूंजी लग चुकी है। हालांकि इन सारे आंकड़ों में यह तथ्य भी नजर आता है कि ज्यादातर नई कंपनियां देश के बड़े शहरों में शुरुआत कर रही हैं क्योंकि वहां का बुनियादी ढांचा उनके लिए मुफीद ठहरता है।
पर आर्थिक सर्वेक्षण में बताया गया है कि अब नवाचारी कारोबारों का अभियान महानगरों से निकल कर छोटे शहरों की तरफ रुख कर रहा है। पिछले कुछ समय में देश के पांच सौ पचपन जिलों में कोई न कोई नई कंपनी शुरू की गई। मोटे तौर पर देश के पचहत्तर फीसद जिलों में नवाचारी उद्योग योजना की पहुंच हो चुकी है। इसके आधार पर भारत के बारे में दावा है कि अब यह दुनिया का सबसे युवा 'स्टार्टअप देश' बन चुका है, जहां करीब पचहत्तर फीसद नई कंपनियों के संचालक पैंतीस साल से कम उम्र के युवा हैं।
हालांकि नए उद्योगों की यह राह आसान नहीं रही है। इस योजना की शुरुआत को एक बड़ा झटका कोरोना महामारी से लग चुका है। वर्ष 2020 में फिक्की और इंडियन एंजेल नेटवर्क (आइएएन) ने अपने राष्ट्रव्यापी सर्वे 'भारतीय स्टार्टअप पर कोविड-19 का असर' में मिले आंकड़ों का आकलन किया तो पता चला कि देश के करीब सत्तर फीसद नवाचारी कारोबार खराब हालत में हैं, जबकि तैंतीस फीसद कंपनियों ने नए निवेश के अपने फैसलों पर रोक लगा दी थी। इसके अलावा दस फीसद नवाचारी कंपनियों ने कहा था कि जिन निवेशकों से उन्हें पूंजी मिल रही थी, वह बंद हो गई।
सर्वेक्षण से यह भी साफ हुआ था कि सिर्फ बाईस फीसद कंपनियां ही ऐसी थीं, जिनके पास अगले छह महीने का खर्च चलाने के लिए नकदी बची थी। हालांकि वजूद बनाए रखने के मकसद से तियालीस फीसद नवाचारी कारोबारों ने वेतन कटौती शुरू कर दी थी। इसी तरह तीस फीसद नई कंपनियों ने कहा कि अगर पूर्णबंदी जैसी स्थितियां बनी रहीं तो कर्मचारियों की छंटनी के अलावा उनके पास कोई और विकल्प नहीं बचेगा।
यूं तो सरकार किसी व्यापारी की तरह कोई व्यवसाय नहीं चला सकती, लेकिन वह यह तो जरूर कर सकती है कि नए कारोबारों के लिए एक स्वस्थ माहौल तैयार करे। अभी तक सरकार ने जो कुछ किया है, अब उससे दो कदम आगे बढ़ने की जरूरत है। हमारी सरकार को इस संबंध में कुछ उदाहरणों से सबक लेना होगा, जैसे कि फ्रांस से। फ्रांस ने चार अरब यूरो का प्रबंध करके नई कंपनियों को पूंजी की दिक्कतों से बचाने का इंतजाम कर दिया है।
उधर, जर्मनी ने नए उद्योगों के लिए खास मदद का कार्यक्रम तैयार किया है, तो ब्रिटेन ने आर्थिक समस्याओं का सामना कर रही कंपनियों के लिए कोष और कई मददगार उपायों की घोषणा की है। इसी तरह आस्ट्रेलिया ने भारी-भरकम पचास करोड़ डालर का कोष तैयार किया है, जिसमें से मुश्किल में फंसे उद्योगों को दस हजार डालर की रकम तुरंत ही कर्ज और सहायता के रूप में दी जा सकती है।
न्यूजीलैंड की तो इसके लिए तारीफ हो रही है कि विश्व बैंक की रैंकिंग के मुताबिक वह लगातार छठवें वर्ष ऐसा सर्वश्रेष्ठ मुल्क साबित हुआ है जहां कोई व्यवसाय शुरू करना और चलाना सबसे आसान है। इन उदाहरणों का सार यह है कि भारत को भी अपनी कंपनियों के प्रोत्साहन के वास्ते ऐसा माहौल तैयार करना चाहिए जिससे कि उन्हें विदेशों से निवेश आसानी से मिल सके और उनके संचालन में पूंजी या नीति संबंधी कोई समस्या बाधा बन कर सामने न आए।
ध्यान रखना होगा कि विश्व बैंक की 'ईज आॅफ डूइंग बिजनेस' संबंधी रैंकिंग में भारत का स्थान फिलहाल तिरसठवां है। इसमें सुधार की फौरन जरूरत है। इसके लिए खासतौर पर नई कंपनियों के संचालन में नियमन (रेग्युलेटरी) संबंधी अड़चनों को दूर करना प्राथमिकता में होना चाहिए। साथ में, पेटेंट के रास्ते में आने वाली मुश्किलों से निजात दिलाने के प्रयास होने चाहिए। यहां उल्लेखनीय है कि वर्ष 2020-21 में भारत में अट्ठावन हजार पांच सौ दो पेटेंटों की अर्जी लगाई गई थी, जिनमें से सिर्फ अट्ठाईस हजार तीन सौ इनक्यानवे को मंजूरी दी गई। जबकि पड़ोसी देश चीन में इसी अवधि में सात लाख पेटेंट मंजूर किए गए। यह फर्क स्टार्टअप कंपनियों की तरक्की के हालात साफ कर देता है।