भारतीय राजनीति का नया दौर!

इस समय भारतीय राजनीति का नया दौर चल रहा है

Update: 2021-03-12 06:34 GMT

इस समय भारतीय राजनीति का नया दौर चल रहा है। मंदिर व धर्म के मुद्दे पर लगातार 30 साल से ज्यादा समय तक भाजपा के राजनीति करने और आरक्षण की राजनीति में तीन दशक बाद आई थकान के बाद यह दौर आना स्वाभाविक था। पिछले करीब तीन दशक में अस्मिता की राजनीति पूरे देश में एक समान रूप से स्थापित हो गई है। यह स्वीकार कर लिया गया है कि जिसकी संख्या भारी है उसकी हिस्सेदारी भी भारी होगी।

मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद इसकी शुरुआत हुई थी और नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के सात साल के बाद यह चक्र पूरा हो गया है। पिछड़ी जाति के प्रधानमंत्री के बाद धीरे धीरे राज्यों में पिछड़ी जातियों के मुख्यमंत्रियों का वर्चस्व बन रहा है।

यह अनायास नहीं है कि मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान ने वापसी की लेकिन राजस्थान में वसुंधरा राजे नहीं कर पाईं। यह भी अनायास नहीं है कि कमलनाथ की सरकार गिर गई लेकिन अशोक गहलोत अपनी सरकार बचा गए। यह देश में पिछड़ी जाति की राजनीति के मजबूती से जमने का एक छोटा सबूत है। बारीकी से देखने पर और भी बहुत सी बातें दिखाई देंगी, जो इस ओर इशारा करती हैं।


ध्यान रहे भक्ति और राष्ट्रवाद की राजनीति करके भाजपा धीरे धीरे आगे बढ़ी। लेकिन यह राजनीति उसे एक सीमा के आगे नहीं ले जा सकी। वैसे भाजपा और राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के रणनीतिकारों को यह अंदाजा था कि मंदिर और मंडल एक-दूसरे का विरोधी होने की बजाय साथ साथ चल सकते हैं। लेकिन जिस समय संघ ने दोनों को साथ लाने का प्रयास किया उस समय तक अस्मिता की राजनीति बहुत परिपक्व नहीं हुई थी।
यह भी कह सकते हैं कि देश उस समय इस राजनीति को स्वीकार करने को तैयार नहीं था। तभी कल्याण सिंह या उमा भारती आदि का प्रयोग बहुत सफल नहीं हुआ। पर अब समय आ गया है। अब मंडल और कमंडल एक हो गए हैं। अस्मिता की राजनीति और मंदिर की राजनीति एक साथ चल रहे हैं और यह सफलता की गारंटी है। तभी नेता खुद को पिछड़ी जाति का बताने में गर्व कर रहे हैं और गर्व से जय श्रीराम के नारे भी लगा रहे हैं।
भाजपा इस राजनीति की चैंपियन बन गई है।

मंडल के विरोध में शुरू हुए मंदिर आंदोलन को उसने अस्मिता की राजनीति में मिला दिया है। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद यह काम आसान हो गया। समाजशास्त्रीय नजरिए से कहें तो ब्राह्मणवादी व्यवस्था में ब्राह्मण को रिप्लेस कर उसकी जगह मझोली और पिछड़ी जातियों को रख दिया गया है। इस तरह सत्ता का नया वर्ग पैदा किया गया है। वैसे ऐतिहासिक नजरिए से नया सत्तारूढ़ वर्ग बहुत नया भी नहीं है क्योंकि भारत के पिछले तीन हजार साल के इतिहास में ज्यादातर समय तक देश पर पिछड़ी जातियों का ही राज रहा है। ज्यादातर साम्राज्य पिछड़ों ने बनाए और बढ़ाए।
मुगलों, अंग्रेजों और आजादी के बाद की राजनीति में यह व्यवस्था कुछ बिगड़ी थी लेकिन अब एक बार फिर वापस पुरानी स्थिति बहाल हो रही है। जिनकी संख्या ज्यादा है सत्ता उनके हाथ में आ गई है और जहां नहीं आई है वहां भी आ जाएगी।

इस राजनीति में जगह बनाने का एक तरीका भक्ति का भी हो सकता है। अस्मिता की राजनीति के मौजूदा दौर में भक्ति मार्ग पर अब भी थोड़ी बहुत गुंजाइश बची है। जो नेता अब भी पुरानी ब्राह्मणवादी व्यवस्था बचाए रखने की जद्दोजहद कर रहे हैं वे भक्ति मार्ग में अपने लिए मोक्ष तलाश रहे हैं। तभी राहुल गांधी शिवभक्त हुए हैं या अरविंद केजरीवाल हनुमान भक्त हुए हैं और ममता बनर्जी काली भक्त हुई हैं।
ब्राह्मण की बेटी बता कर चंडी पाठ करने का दावा ममता बनर्जी ने अनायास नहीं किया है। सिर्फ ब्राह्मण की बेटी होना राजनीति में सफलता की गारंटी नहीं है। उसके लिए भक्त भी होना होगा। उन्होंने अपने को मां दुर्गा का भक्त कहा है और दावा किया है कि वे चंडी पाठ करके घर से निकलती हैं। भाजपा के नेता इसका श्रेय ले रहे हैं और सोशल मीडिया में भी कहा जा रहा है कि यह भाजपा की उपलब्धि है, जो उसने सभी पार्टियों को हिंदू या भक्ति मार्ग पर चलने के लिए मजबूर कर दिया।

लेकिन भाजपा खुद सिर्फ भक्ति मार्ग पर नहीं चल रही है। उसने भक्ति और अस्मिता को मिला दिया है। हिंदुत्व का मुद्दा भाजपा की राजनीति में एक अंतरधारा की तरह मौजूद है। ऊपरी प्रवाह, जो दिख रहा है वह अस्मिता की राजनीति का है। पहचान और खास कर पिछड़ी पहचान की राजनीति का है। भारत की सामाजिक व्यवस्था में ब्राह्मण पूजनीय है पर ब्राह्मण का सत्ता की संरचना में शीर्ष पर होना अलगाव पैदा करता है।
तभी जो काम अटल बिहारी वाजपेयी नहीं कर पाए वह नरेंद्र मोदी ने कर दिखाया है। ऐसा नहीं है कि अटल बिहारी की लोकप्रियता कम थी या उस समय भाजपा मंदिर और भक्ति की राजनीति नहीं करती थी। पर वाजपेयी का सत्ता के शीर्ष पर होना समाज के एक बड़े वर्ग में अलगाव की भावना पैदा करता था। तभी उनकी कमान में कभी भाजपा बहुमत के आसपास भी नहीं पहुंच सकी।

जब लालकृष्ण आडवाणी का चेहरा लाया गया तो उनकी स्थिति वाजपेयी से भी बुरी हुई। हिंदुत्व की राजनीति के लिहाज से उनका चेहरा ज्यादा आक्रामक था फिर भी वे जो नहीं कर पाए वह नरेंद्र मोदी ने कर दिया। मोदी के चेहरे पर भाजपा को दो बार पूर्ण बहुमत मिल गया और देश के ज्यादातर हिस्से में भाजपा को मुख्यधारा की पार्टी के तौर पर सहज स्वीकार कर लिया गया। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि वे हिंदू समाज में उस वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिन्होंने सदियों तक देश पर राज किया था और मुगल शासन, अंग्रेजी राज व आजादी के बाद कांग्रेस के हल्ले में हाशिए पर चले गए थे।

हाशिए से निकल कर केंद्र तक पहुंचने में उनको आजादी के बाद छह दशक से ज्यादा समय लगा लेकिन अब स्वाभाविक रूप से इसे स्वीकार कर लिया गया है। यहां यह बात ध्यान रखने की है कि इससे सामाजिक व्यवस्था नहीं बदलेगी क्योंकि राजनीतिक व्यवस्था बदलने का अनिवार्य अर्थ यह नहीं होता है कि उसके साथ साथ समाज भी बदल जाए। अगर दोनों तरह के बदलाव के आंदोलन साथ चलें तब अलग बात है, जैसे आजादी की लड़ाई के साथ साथ महात्मा गांधी या भीमराव अंबेडकर सामाजिक सुधार के समानांतर आंदोलन चला रहे थे। उस किस्म का कोई समानांतर आंदोलन अभी नहीं चल रहा है। लेकिन वह भी महज वक्त की बात है।
राजनीतिक बदलाव का दौर जैसे ही पूर्णता तक पहुंचेगा वैसे ही सामाजिक बदलाव भी हो जाएगा। नए दौर के राजनीतिक बदलाव का सबसे बड़ा नुकसान कांग्रेस को हुआ है क्योंकि आजादी के बाद वह यथास्थितिवादी पार्टी बन गई थी और तमाम क्रांतिकारी विचारों को बक्से में बंद कर दिया था। अब भी वह न राजनीतिक सचाई को समझ रही है और न सामाजिक वास्तविकता का सामना कर रही है। अपनी सहयोगी पार्टियों की सफलता से लेकर अपनी पार्टी में अशोक गहलोत या भूपेश बघेल जैसे नेताओं की सफलता-स्वीकार्यता से कांग्रेस को सबक लेना चाहिए और खुद को मौजूदा राजनीतिक-सामाजिक सचाइयों के अनुरूप ढालना चाहिए।


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