अमेरिका के नए राष्ट्रपति होंगे शामिल : नाटो के शिखर सम्मेलन में भाग लेने के लिए अमेरिका के नए राष्ट्रपति जो बाइडन भी ब्रसेल्स में होंगे। दो दिन बाद, 16 जून को वे स्विट्ज़रलैंड के जेनेवा में रूसी राष्ट्रपति पुतिन से भी मिलेंगे। तब भी, ब्रसेल्स में रूस को खरी-खोटी सुनाए जाने की पूरी संभावना है। यह जानते हुए भी कि विश्वशांति को इस समय असली ख़तरा चीन से है, रूसी ख़तरे का हौवा खड़ा करते रहना नाटो गुट का स्वभाव बन गया है।
नॉर्वे के प्रधानमंत्री रह चुके नाटो के महासचिव येन्स स्टोल्टनबेर्ग ने हाल ही में कहा, ''चीन हमारे निकट सरक रहा है,'' लेकिन वह एक ऐसी शक्ति है, ''जिसे हमारे मूल्य स्वीकार नहीं हैं।'' दूसरी ओर, न तो वे और न नाटो के दूसरे नेता समझ पा रहे हैं कि रूस को अलग-थलग करने की नीति के द्वारा वे पुतिन को इसी चीन की बाहों में ही धकेल रहे हैं।
इस नाटो शिखर सम्मेलन में ''नाटो 2030'' नाम के उस उपक्रम की समीक्षा होनी है, जिसे पिछले वर्ष शुरू किया गया था। इस उपक्रम में रूस और चीन की ओर से पैदा होने वाले संभावित ख़तरों और उनसे निपटने की रणनीतियों तथा जलवायु परिवर्तन, अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद, साइबर हमलों और नई तकनीकी चुनौतियों जैसे विषयों को शामिल किया गया है। उपक्रम की मूल रूपरेखा 2010 में तैयार की गई थी। चीन की ओर से तब किसी गंभीर ख़तरे की कल्पना नहीं की गई थी।
उस समय नाटो के सभी देश चीन की चापलूसी करने और वहां धुंआधार निवेश करने में मशगूल थे। आज उन्हें आभास हो रहा है कि वे अजगर को दूध पिला रहे थे और आशा कर रहे थे कि वह ज़हर नहीं उगलेगा। जर्मनी इस भूलभुलावे में इतना डूबा हुआ था कि आज भी उसक आंखें ठीक से खुल नहीं रही हैं। चांसलर (प्रधानमंत्री) अंगेला मेर्कल 16 वर्षों के अपने अब तक के कार्यकाल में हर बार सैकड़ों निवेशकों के साथ 12 बार चीन जा चुकी हैं। इस बार का नाटो शिखर सम्मेलन उनकी विदायी का सम्मेलन होगा।
देर से ही सही, अब नाटो वाले देशों के नेताओं का भी माथा ठनकने लगा है कि चीन की तेज़ी से बढ़ती हुई आर्थिक और सैन्य शक्ति कभी उन्हीं को निशाना बना सकती है।
चीन दुनिया का सबसे बड़ा दादा और नाटो के लिए सबसे बड़ी चुनौती बनने की राह पर है। वह परमाणु निरस्त्रीकरण के बदले अपने परमाणु अस्त्रों की संख्या एक हज़ार के पार ले जाने में लगा है। एक कम्युनिस्ट देश बनने की 29 साल बाद पड़ने वाली अपनी सौवीं वर्षगांठ तक वह दुनिया की सबसे बड़ी महाशक्ति बन जाना चाहता है। दुनिया के हर कोने में उसके सैनिक अड्डे होंगे और हर विवाद में वह अपनी टांग अड़ा रहा होगा।
क्यों चीन बन रहा है चुनौती?
इस बात को नाटो वाले देश भी नोट कर रहे हैं कि रूस तो अपने आस-पास के छोटे-मोटे कमज़ोर देशों के साथ ही बलप्रयोग करता है, पर चीन तो भारत जैसे एक बहुत बड़े और परमाणुशक्ति संपन्न देश से उलझने में भी कोई संकोच नहीं कर रहा है। अपने आस-पास के समुद्रपारीय पड़ोंसियों को भी अपने हथियारों से डरा-धमका रहा है।
दक्षिणी चीन सागर में मालवाही जहाज़ों की निर्बाध आवाजाही का पश्चिमी देशों की अर्थव्यवस्था के लिए जो भारी महत्व है, उसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती। अतः यह धारणा बलवती हो रही है कि नाटो को अटलांटिक महासागार के साथ-साथ चीन के निकटवर्ती हिंद-प्रशांत क्षेत्र में भी सक्रिय होना पड़ेगा। वहां भी नाटो देशों के हितों की रक्षा करनी पड़ेगी। वह अटलांटिक के किनारे बैठा तमाशबीन नहीं बना रह सकता।
इतना निश्चित है कि इस बार के नाटो शिखर सम्मेलन में चीनी ख़तरे को अब तक के सभी सम्मेलनों की अपेक्षा अधिक गंभीरता से लिया जाएगा। भारत का नाम लिया जाए या न लिया जाये, जो भी निर्णय होंगे, भारत को उनसे लाभ अवश्य पहुंचेगा। भारत ने हिमालय की बर्फीली ऊंचाइयों पर चीनी सेना के जिस तरह दांत खट्टे किए हैं, उनसे अमेरिकी नेतृत्व वाले नाटो सैन्य गुट को भी पता चल गया है कि चीन को उसकी सामाओं तक सीमित रखने की रणनीति में भारत की उपेक्षा नहीं की जा सकती।
नाटो देश अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी और फ्रांस के नौसैनिक जहाज़ या तो अभी से हिंद-प्रशांत क्षेत्र में पहुंच गए हैं या जल्द ही पहुंच जाएंगे। नाटो देशों के जहाज़ों की इस उपस्थिति और डियोगो गार्सिया द्वीप पर के अमेरिकी नौसैनिक अड्डे के उपयोग की भारत को पहले से ही मिली सुविधा से भारत का बोझ हल्का होगा।
चार देशों के तथाकथित 'क्वाड' ग्रुप में रह कर अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ भारत के गठजोड़ को भी चीन से निपटने की एक पूर्वी-पश्चिमी अनौपचारिक रणनीति के तौर पर देखा जा सकता है। भारत मानकर चल सकता है कि 1962 के विपरीत अब वह अकेला नहीं है।
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