विनोद शाही: हमारे यहां 'परकाया-प्रवेश' से जुड़ी अनेक मिथक कथाएं मिलती हैं। जीते-जी परकाया-प्रवेश की बात आकृष्ट करती है। मत्स्येंद्रनाथ के किसी राजा की देह में प्रवेश करके भोग-विलास में लिप्त हो जाने का आख्यान है। इससे मिलती-जुलती अधिक प्रसिद्ध कथा आदि शंकराचार्य की है। मंडन मिश्र की पत्नी उभया भारती के स्त्री-विषयक सवालों के जवाब खोजने के लिए शंकर अपने शरीर को छोड़ कर किसी राजा की देह में प्रवेश कर गए थे। एक अन्य मिथक-कथा में योगिनी सुलभा, जनक के भीतर प्रवेश कर यह जानने का प्रयास करती है कि वे सच में विदेह हैं भी या नहीं।
मर कर किसी व्यक्ति के थोड़े समय बाद फिर जीवित हो जाने का निहितार्थ क्या है? ईसा मसीह के मरणोपरांत पुनरुज्जीवित हो जाने के मिथक ने उन्हें 'मुक्तिदाता' बना दिया। जब किसी मिथक में कोई व्यक्ति स्वेच्छा से अपनी देह से बाहर निकल जाता और फिर लौट भी आता है, तो ऐसी कथा मृत्यु के भय से मुक्त करने वाली कथा की तरह किसी की भी कल्पना को प्रेरित कर सकती है।
एक अन्य बात भी कि किसी के शरीर में दूसरों का प्रवेश, 'अशरीरी कोटि' का है। यह सारा मामला दरअसल, प्रेम में स्त्री-पुरुष के एक-दूसरे की देह में प्रवेश करने के यथार्थ के 'आध्यात्मीकरण' का है। इनके लिए शरीर के तल पर घटित होने वाला त्याज्य है। उससे जीवन में जिस अभाव का सृजन होता है, उसकी पूर्ति आध्यात्मिक धरातल पर कर ली जाती है। दरअसल, आत्मा का आत्मा में प्रवेश, उस गहनतम सत्य की अभिव्यक्ति का पर्याय है, जिसके तहत कोई व्यक्ति सभी में एक ही आत्मा की मौजूदगी को देखता है।
जनक के लिए एक युवती से संवाद का अर्थ इस बात को जानने से जुड़ा था कि 'वह किसकी स्त्री है?' यह स्त्री के स्वतंत्र व्यक्तित्व के संभव हो सकने को रोकने वाली मन:स्थिति से उपजा प्रश्न था। इसका संबंध उस स्त्री के वर्ण और कुल-गोत्र को जानने से भी था। इस सवाल का अर्थ एक सभ्यता-मूलक विकास-प्रक्रिया की तरह खुलता है।
आदि शंकर के प्रयासों से बद्धमूल होने वाली मठ-संस्कृति, संन्यास आश्रम के संस्थानीकृत होने के चरण से ताल्लुक रखती है। उनके मुकाबले, उस दौर के ज्ञान-मीमांसकों में श्रेष्ठ, मंडन मिश्र जैसे लोग, गृहस्थ हैं। वे प्रयास कर रहे हैं कि किसी न किसी तरह, रूढ़ हो गए वैदिक कर्मकांडों के बजाय, कर्म के आत्यंतिक महत्त्व को फिर से स्थापित किया जाए।
इस संदर्भ में इतना तो स्पष्ट है कि मंडन मिश्र और उनकी पत्नी भारती, गृहस्थ के सकारात्मक रूप और कर्म की ज्ञान-मीमांसा के, आखिरी उद्घोषकों में से थे। उन्हें सात सदियों के लंबे अंतराल के बाद धोखे से खारिज किया गया। वे उस दौर के चिंतक थे, जब संन्यास के बौद्ध रूप का संस्थानीकरण हो चुका था। एक स्वस्थ समाज के निर्माण के लिए अब गृहस्थ के संतुलित रूप को अपनाने के सिवा दूसरा कोई विकल्प बचा दिखाई नहीं दे रहा था।
आदि शंकर को भी मंडन दंपति से मिल कर तत्कालीन दौर में संन्यास आश्रम की सीमाओं की बात समझ में आई होगी। तभी तो उन्होंने अपना शरीर छोड़ कर, एक महीने से अधिक समय के लिए, एक गृहस्थ की तरह जीने का 'आध्यात्मिक नाटक' किया। फिर वे एक संन्यासी की देह में पुन: लौट आए। पर इससे संन्यास मार्ग की श्रेष्ठता कैसे प्रमाणित होती है, यह बात समझ से परे है।
यही वजह है कि पंद्रहवीं शती में, विद्यारण्य तथा कुछ अन्य दशनामी संन्यासियों ने, जैसे ही आदि शंकर के दिग्विजयी होने की बात शुरू की, भक्ति के अनेक आचार्य, इसका विरोध करने के लिए सामने आ गए। रामानुज, रामानंद और निंबार्क जैसे भक्ति के इन आचार्यों ने आदि शंकर से अपनी असहमति दर्ज कराई।
उन्होंने गृहस्थ रहते हुए ही, भक्ति द्वारा, मोक्ष का अधिकारी हो सकने की बात करनी आरंभ कर दी। इस सबसे फायदा यह हुआ, कि भारत को, सांस्कृतिक धरातल पर भक्ति की मदद से, एक सूत्र में पिरोने में मदद मिली। मगर इस सबसे नुकसान यह हुआ कि मंडन मिश्र और उभया भारती की तरह भारत को कर्म के महत्त्व से जोड़ने का, बेहद जरूरी मार्ग बंद हो गया।
इस पूरे प्रकरण में उभया भारती की भूमिका को सोचे-समझे तरीके से उपहासास्पद बनाया गया है। एक कर्म-मीमांसक के रूप में वह अपने पति मंडन मिश्र से कहीं अधिक प्रखर और साहसिक जान पड़ती है, पर उसके व्यक्तित्व और मौलिक दृष्टि को प्रमाणित करने वाली बातों का, उल्लेख भर करके, उसे निपटा दिया गया है।
उसके बजाय, उसके द्वारा पूछे गए स्त्री विषयक प्रेम और काम संबंधी सवालों को खूब बढ़ा-चढ़ा कर इस तरह पेश किया गया है, जैसे एक स्त्री की दुनिया में इससे अधिक महत्त्वपूर्ण बात और कोई होती ही न हो। इस प्रवृत्ति को हम पितृसत्तात्मक मानसिकता के उस रोग की तरह देख सकते हैं, जो इस मामले में दमनकारी होने की वजह से उपजा है। पितृसत्ता अपने आरंभिक काल से ही काम-संबंधों के नियमन-नियंत्रण पर आधारित होने की वजह से दमनकारी रही है।
स्त्री को नियंत्रित, उसके चरित्र को लांछित करने और बलात्कार करके जीवन भर के लिए अपमानित करने की पतनशील और रुग्ण मनोवृत्ति का आधार भी, यही काम संबंधी दमन है। ऐसे में एक ऐसे महापुरुष को पूज्य मानने के बजाय, एक स्त्री अगर उससे प्रेम और काम संबंधों की बाबत सवाल पूछती है, तो पहली नजर में वह एक उपहासास्पद हरकत है। संभव है कि उभया भारती के वैदुष्य को लांछित करने के लिए, उसके मुंह से वे सवाल पुछवा लिए गए हों।
यह बात इसलिए संभावित लगती है, क्योंकि आदि शंकर का परकाया-प्रवेश का पूरा प्रकरण मनगढ़ंत लगता है। 'शंकर दिग्विजय' में जिस तरह इसे मत्स्येंद्रनाथ का दृष्टांत देकर प्रस्तुत किया गया है, वह काल-व्यतिक्रम के कारण अनैतिहासिक हो गया है। इस तरह की कथाओं की वजह से हम यह देख पाने लायक हो जाते हैं कि काम-संबंधों के अत्यधिक दमन का परिणाम क्या होता है? भारती के सवालों का जवाब देने में असमर्थ आदि शंकर एक युवा राजा की देह का चुनाव करते हैं, जिसकी सौ रानियां हैं।
सौ स्त्रियों से वैध काम-संबंध बनाने की यह जो इच्छा है, वह काम वृत्तियों के अतिशय उग्र दमन की स्थिति में ही किसी पुरुष में जन्म ले सकती हैं। यह एक भयानक मनोवैज्ञानिक रोग है, जिसका आध्यात्मीकरण कर लिया गया है। इस तरह के आध्यात्मीकरण का पूरा इंतजाम हमारी संस्कृति ने बहुत पहले से कर रखा है।
वैसे अगर आदि शंकर एक सहज मनुष्य रहे होते, तो उभया भारती के सवालों के सम्मुख निरुत्तर होकर, किसी स्त्री को ठीक से जानने की राह पर निकल गए होते। स्त्री को मायाविनी और ठगिनी न मान कर एक मानवी की तरह देखते। उसके प्रेम में पड़ गए होते, उसी तरह जैसे शेष विश्व को ब्रह्म का स्वरूप मान कर उससे प्रेम करते रहे होंगे। वे हो जाते गृहस्थ और जीवन के सत्य को उसी रूप में जानते-समझते, जिस रूप में प्रकृति ने उसे उपजाया है, स्त्री-पुरुष के जोड़े की तरह, सृष्टि के मैथुनी-रूप के रहस्य को उसके समक्ष उद्घाटित करने के लिए। तब वह जिस ब्रह्म तक पहुंचते, वह 'सर्व में पूर्ण की तरह', उन्हें भी मिल गया होता।
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