निज कवित्त एहि भांति न नीका
कविता में लोगों की भावनाओं को गहराई तक प्रभावित करने की अद्भुत क्षमता हासिल किए बिना ही आज बहुत से लोग कवि होने का दावा करना चाहते हैं। ये लोग शायद यह मानते हैं
सदाशिव श्रोत्रिय: कविता में लोगों की भावनाओं को गहराई तक प्रभावित करने की अद्भुत क्षमता हासिल किए बिना ही आज बहुत से लोग कवि होने का दावा करना चाहते हैं। ये लोग शायद यह मानते हैं कि पद्य रूप में कुछ लिख देने, उसे किसी तरह प्रकाशित करवा लेने और कुछ लोगों से उसकी तारीफ बटोर लेने से ही व्यक्ति कवि कहलाने का अधिकारी हो जाता है। कविता के संबंध में इससे बढ़ कर नासमझी भला क्या हो सकती है?
एक समय था जब कवि को विद्वान या ऋषि का पर्यायवाची माना जाता था। उस पद को पाने के लिए आजकल बहुत से नौजवान लालायित रहते हैं, पर इसके लिए जिस तप और अध्ययन की आवश्यकता होती है, उसके लिए उनके पास अब फुर्सत ही नहीं है। उनका बहुत-सा समय तो फेसबुक या वाट्स ऐप की भेंट चढ़ जाता है। पढ़ने के नाम पर उनमें से अधिकांश के पास केवल अखबार और उनके विभिन्न विषयों से संबंधित पुस्तकों के अलावा कुछ रह ही नहीं गया है।
कविता का आनंद लेना केवल उसी व्यक्ति के लिए संभव होता है, जिसे भाषा पर पूरा अधिकार हो। शब्दों के विभिन्न अर्थों, उनकी ध्वनियों और उनके माध्यम से व्यक्त होने वाले भावों की बारीकियों को समझे बिना और उनके सही उपयोग को जाने बिना काव्यानंद की अनुभूति असंभव है। कोई भाषा किसी समाज और संस्कृति से जिस अविभाज्य रूप से जुड़ी रहती है, उससे उस भाषा का उपयोग करने वाले समाज और उसकी संस्कृति से पूरी तरह परिचित हुए बिना उस भाषा की कविता में न तो काव्य-रचना की जा सकती है और न ही उसे पूरी तरह समझा जा सकता है।
किसी विद्वान ने यहां तक कहा है कि किसी कविता के जिस भाग का अनुवाद असंभव है, वस्तुत: वही उसका काव्य-तत्व है। भाषा की शुद्धता और उसके मानक स्वरूप के बारे में आजकल जैसी लापरवाही बरती जाने लगी है उसने अधिकांश लोगों के लिए काव्य का आनंद ले सकने की संभावना को भी कम कर दिया है।
अच्छी और गहरी कविता पहले वाचन में ही अपना संपूर्ण अर्थ पाठक के सामने खोल दे, यह आवश्यक नहीं। किसी गंभीर और जटिल रचना का मर्म उसे बार-बार पढ़ने पर ही प्रकट होता है। अगर किसी वस्तु या अवधारणा के संबंध में कवि और पाठक की दृष्टि एक जैसी नहीं है, तो कवि के लिए पाठक तक अपने काव्य-भाव का संप्रेषण कठिन हो जाएगा। पाठक इसीलिए कई बार कवि के उस भावसंसार में प्रविष्ट ही नहीं हो पाता, जिसे उसने अपनी कविता में रचा है।
काव्य-लेखन के क्षेत्र में आजकल एक तरह की अराजकता व्याप्त हो गई है। पहले जब कविता का प्रकाशन कठिन था, तब कोई उस्ताद, गुरु या संपादक किसी उदीयमान कवि को उसके लेखन स्तर की वास्तविकता से परिचित कराने की स्थिति में होता था। पर अब जब फेसबुक का मंच हर कवि कहलाने के इच्छुक व्यक्ति को आत्म-प्रकाशन के लिए उपलब्ध हो और जब बहुत से प्रकाशक पैसे लेकर उसकी कोई भी रचना छापने के लिए तैयार हों, तब उसे कवि कहलाने से कौन रोक सकता है?
अंग्रेजी कवि टीएस एलियट ने अपने बहुचर्चित लेख 'ट्रेडिशन ऐंड इनडिविजुअल टैलेंट' में कहा है कि किसी भी नए कवि को अपना स्थान कविता के हमारे परंपरागत भंडार में ही कहीं बनाना होता है, और यह आसान नहीं होता, क्योंकि उस भंडार की समृद्धि से पूरी तरह वाकिफ हुए बिना वह अपने इस उद्देश्य में सफल नहीं हो सकता।'
इसमें कोई संदेह नहीं कि कविता मनुष्य की संवेदना को परिष्कृत कर उसे एक बेहतर इंसान बनने में मदद करती है। इसीलिए पहले उसे शिक्षा के भी एक आवश्यक अंग के रूप में देखा जाता था। मगर अब जबकि छात्र के लिए पाठ्यक्रम की कविता के अध्ययन का अर्थ केवल उससे संबंधित प्रश्नों का तथाकथित सही उत्तर देना रह गया है, कविता के किसी आनंद की बात ही उसके लिए बेमानी हो जाती है।
मर्म की बात यह है कि हर अच्छी कविता अपने आप में एक नया अनुभव होती है और इस काव्यानुभव का सृजन वही कर सकता है, जिसमें या तो जन्मजात कवि-प्रतिभा हो या जिसने लंबे अध्यवसाय से उस मनस्थिति तक पहुंचना और उसे पहचानना सीख लिया हो, जिसमें किसी कविता की रचना संभव होती है। काव्य-रचना की उस मनोस्थिति तक पहुंचे बिना जो लोग काव्य-रचना करते हैं उनकी रचना और एक प्रभावी कविता में वही अंतर होता है जो कृत्रिम और वास्तविक फूलों में होता है।
साहित्य, संगीत और कला का आनंद लेने की सामर्थ्य को हम मानव-विकास की दृष्टि से एक उच्चतर संवेदना से युक्त मनुष्य के गुण के रूप में देखते हैं। इसीलिए किसी समाज में अगर अच्छी कविता का आनंद ले सकने वाले लोगों की संख्या में कमी आती है, तो इसे निश्चय ही उस समाज के सांस्कृतिक ह्रास का लक्षण समझा जाना चाहिए।