मॉनसून सत्र: पक्ष और विपक्ष के बीच संवाद खत्म, बहस विहीन संसद का मतलब

पिछले सप्ताह भाजपा की दिवंगत नेत्री सुषमा स्वराज का एक वीडियो वायरल हो रहा था

Update: 2021-08-10 09:18 GMT

नीरजा चौधरी .

पिछले सप्ताह भाजपा की दिवंगत नेत्री सुषमा स्वराज का एक वीडियो वायरल हो रहा था। वह 2014 के चुनाव से ठीक पहले लोकसभा में बोल रही थीं। ऐसा लग रहा था, मानो उनके शब्द किसी और युग के हों। उनका भाषण बेहतरीन था, जिसमें वह विरोधी पक्ष के नेताओं की भी तारीफ कर रही थीं। उन्होंने कमलनाथ की 'शरारत', सुशील कुमार शिंदे की 'शराफत' और सोनिया गांधी के मध्यस्थ की भूमिका निभाने के बारे में कहा। उन्होंने कभी अपना आपा न खोने के लिए तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार की सराहना की और बताया कि उनकी अपनी पार्टी के दिग्गज नेता लालकृष्ण आडवाणी ने बार-बार सलाह दी कि संसद की गरिमा को हर कीमत पर बनाए रखा जाना चाहिए। अलबत्ता उनकी पंच लाइन अलग थी। उन्होंने अपने सहयोगियों से कहा, हमें हमेशा याद रखना होगा कि हम 'विरोधी' हैं, न कि 'शत्रु'। विचारधारा, नीति और कार्यक्रमों को लेकर हमारा मतभेद है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि हम संवाद खत्म कर दें। आज संसद में यही होता दिख रहा है।


अगर 2021 के मानसून सत्र की बात करें, तो ऐसा लगता है कि सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच संवाद पूरी तरह से खत्म हो गया है। संसद का वर्णन करने के लिए 'सत्र के धुल जाने' का जिक्र करना सामान्य बात हो गई है। हाल के वर्षों में कुछ ही सत्र ऐसे होंगे, जब संसद के लिए इस शब्द का प्रयोग नहीं किया गया। इस बार भी संसद का सत्र पूरी तरह धुल गया है। इस बार जो नया है, वह यह कि दोनों पक्षों के बीच गतिरोध नागरिकों, खासकर ज्ञात असंतुष्टों के फोन हैक करने के लिए इस्राइली स्पाइवेयर पेगासस के उपयोग की सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में जांच या जेपीसी की मांग को लेकर नहीं है, बल्कि गतिरोध इस विषय पर चर्चा की मांग को लेकर है।


बहस या चर्चा संसद का सबसे बुनियादी कार्य है। चर्चा के बिना संसद अर्थहीन और अप्रासंगिक हो जाती है। सरकार कहती है कि वह किसी भी विषय पर चर्चा के लिए तैयार है, जबकि विपक्ष का कहना है कि वह संसद को इसलिए नहीं चलने दे रही, क्योंकि सरकार चर्चा के लिए राजी नहीं है। जब कार्यसूची सामने आई, तब उसमें पेगासस पर चर्चा के लिए समय नहीं दर्शाया गया था। काल्पनिक रूप से भले ही यह मांग तुच्छ हो, लेकिन यह समूचे विपक्ष को आंदोलित कर रही है। इस स्नूपगेट से प्रभावित अन्य देशों ने जांच के आदेश दे दिए हैं। दुनिया भर के 17 मीडिया संगठन (और वे विश्वसनीय नाम हैं) इस जांच में शामिल हैं।

अपने यहां मुश्किल यह है कि न तो कोई रास्ता निकाला जा रहा है और न ही उसे खोजने की कोशिश की जा रही है। विपक्ष द्वारा मांग करने और सत्ता पक्ष द्वारा उसे टालने में कुछ भी नया नहीं है। जैसा कि यूपीए शासन के दौरान 2जी घोटाले मामले में पूरा सत्र बर्बाद हो गया था, क्योंकि विपक्षी भाजपा इसकी जांच के लिए संयुक्त संसदीय कमेटी के गठन से कम पर मान ही नहीं रही थी। अंततः सरकार को जेपीसी के गठन पर सहमत होना पड़ा, क्योंकि यह सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि संसद का कामकाज चलता रहे। मुझे याद है कि एनडीए शासन के दौरान, जब प्रमोद महाजन संसदीय कार्य मंत्री थे, तब वह कांग्रेस के नेताओं के साथ बैठ गए थे और कहा था, बस बहुत हो गया, अब बताओ, क्या करना है। आपने हल्ला कर लिया, संदेश चला गया, अब बैठें और तय करें कि आगे क्या हो?

इस समय एक और रुझान देखने को मिल रहा है। क्षेत्रीय दल फिर से प्रमुख भूमिका निभाते नजर आ रहे हैं। पश्चिम बंगाल में अपनी हालिया जीत और राष्ट्रीय भूमिका निभाने की स्पष्ट महत्वाकांक्षा के कारण उनका नेतृत्व तृणमूल कांग्रेस कर रही है। यह 90 के दशक के मध्य की याद दिलाता है, जब क्षेत्रीय दल 'राष्ट्रीय' हो गए थे और एचडी देवगौड़ा की संयुक्त मोर्चा सरकार को 'मुख्यमंत्रियों की सरकार' के रूप में जाना जाता था। वह पहला मौका था, जब क्षेत्रीय दल केवल अपने राज्य हित के बजाय राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में समस्याओं को देखने के लिए मजबूर थे। मौजूदा गतिरोध में बेशक कांग्रेस की भी सक्रिय भूमिका रही, लेकिन मुख्य विपक्षी दल से यही तो उम्मीद की जाती है।

किसानों की मांग के समर्थन में राहुल गांधी ट्रैक्टर से संसद परिसर में पहुंचे और तीनों खेती कानूनों को निरस्त करने की मांग की। उन्होंने ध्यान आकर्षित करने के लिए साइकिल यात्रा भी की और रणनीति बनाने के लिए 15 दलों के विपक्षी नेताओं से मिले। हालांकि कांग्रेस और तृणमूल के बीच और बेहतर तालमेल होने पर विपक्षी एकता ज्यादा असरदार होती, पर दोनों की नजर संयुक्त विपक्षी गठजोड़ में नेतृत्व की भूमिका निभाने पर है। संसदीय कामकाज में गतिरोध अपवाद होना चाहिए, न कि नियम। कांग्रेस ने इस बार इस गतिरोध को लोकतांत्रिक रूप से सही ठहराने के लिए सुषमा स्वराज और अरुण जेटली के बयानों का सहारा लिया है। पर हर कोई जानता है कि यह एक ऐसा हथियार है, जिसका उपयोग नियम की तरह करने के बजाय संयम से करना चाहिए। फिर संसदीय कामकाज और सड़क की राजनीति में फर्क होता है। संसद का मतलब कानून बनाना, ज्वलंत मुद्दों पर चर्चा करना और सरकार को जवाबदेह ठहराना है।

सरकार अपने तरीके से मुद्दों को कुचल नहीं सकती। जबकि विपक्ष को हंगामा करने के बजाय बहस और चर्चा के जरिये मुद्दों को उठाना चाहिए। सदन में शोर-शराबा कर विपक्ष सरकार की मदद ही करता है। सरकार बिना किसी चर्चा के विधेयकों को पारित करते हुए खुश है, जैसा कि इस सत्र में हुआ है। इससे सरकार के ताकतवर बनने में ही मदद मिलती है, जबकि विपक्ष अपने 'निगरानी' कार्यों से वंचित है। हालांकि अपवाद के तौर पर इस बीच ओबीसी आरक्षण पर राज्यों को अधिकार देने वाला 127वां संविधान संशोधन विधेयक लोकसभा से पारित हो जाएगा, क्योंकि विपक्ष इसके समर्थन में है। संसदीय लोकतंत्र में सरकार को विपक्ष की बात भी सुननी चाहिए। दुर्भाग्य से दोनों पक्षों के बीच दरार पैदा हो गई है। सुषमा स्वराज सही कह रही थीं। सदन के अंदर विरोधी एक-दूसरे पर तीखे प्रहार करते हैं। और यह उनका काम है। जनता ने इसी के लिए उन्हें संसद में भेजा है। पर वे शत्रु नहीं हैं। कम से कम उन्हें ऐसा नहीं होना चाहिए।

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