नजर और निगरानी

अब केंद्र ने इंटरनेट के जरिए फिल्मों, समाचार सामग्री आदि को भी सूचना प्रसारण मंत्रालय की निगरानी में रखने का फैसला किया

Update: 2020-11-13 12:57 GMT

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। अब केंद्र ने इंटरनेट के जरिए परोसी जा रही फिल्मों, समाचार सामग्री आदि को भी सूचना प्रसारण मंत्रालय की निगरानी में रखने का फैसला किया है। अभी तक बड़े परदे और टेलीविजन पर दिखाई जाने वाली सामग्री ही इसकी निगरानी में थी। अब नेटफ्लिक्स, अमेजन, यू-ट्यूब आदि पर प्रसारित होने वाली सामग्री पर भी इसकी नजर होगी।

जब सर्वोच्च न्यायालय ने कुछ टीवी चैनलों पर प्रसारित होने वाली आपत्तिजनक सामग्री पर नजर रखने संबंधी उपायों के बारे में केंद्र से पूछा था, तब उसने कहा था कि टेलीविजन चैनलों से समाज को उतना खतरा नहीं है, जितना इंटरनेट माध्यमों पर प्रसारित सामग्री से है। मगर तब न्यायालय ने कहा था कि इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों पर परोसी जाने वाली सामग्री का मूल्यांकन खुद उपभोक्ता कर देते हैं, फिर लोगों को यह आजादी मिलनी ही चाहिए कि वे क्या देखना-पढ़ना-सुनना चाहते हैं।

मगर चूंकि इंटरनेट के जरिए परोसी जाने वाली सामग्री अभी तक किसी नियामक संस्था की नजर से दूर है और एक तरह से सभी के लिए मुक्त है, इसलिए कई चीजें ऐसी भी उन पर लिखी, दिखाई जाती रही है, जिससे सरकार के लिए असहज स्थिति पैदा होती रही है। ऐसे में कई लोगों का स्वाभाविक ही मानना है कि सरकार इन माध्यमों पर भी अपना अंकुश लगाना चाहती है।

यह ठीक है कि मुक्त इंटरनेट माध्यमों पर दिखाई जाने वाली सारी सामग्री दोषमुक्त नहीं है। कई लोगों का मानना है कि इंटरनेट पर उपलब्ध कई चीजों से युवाओं पर बुरा असर पड़ रहा है। अश्लीलता और भोंडेपन का आरोप लगाते हुए कई कार्यक्रमों पर रोक लगाने की जरूरत भी रेखांकित की जाती रही है।

मगर सच्चाई यह है कि सिनेमा और टीवी कार्यक्रमों पर अनावश्यक कैंची चलाने की प्रवृत्ति से आजिज आकर ही अनेक फिल्म निर्माता-निर्देशकों ने ओटीटी यानी ओवर द टॉप माध्यमों पर अपनी फिल्मों, धारावाहिकों का प्रसारण करना उचित समझा। समाचारों चैनलों पर सहज आजादी महसूस न कर पाने की वजह से कई पत्रकारों ने स्वतंत्र रूप से इंटरनेट माध्यमों पर वैचारिक सामग्री परोसनी शुरू कर दी।

अगर सूचना प्रसारण मंत्रालय यहां भी उसी तरह नजर रखना शुरू कर देगा, जैसे फिल्म प्रमाणन बोर्ड जैसे तंत्र करते हैं, तो फिर कलाओं और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में बाधा पहुंचने की आशंका निर्मूल नहीं कही जा सकती।

गलत चीजों को रोकने के लिए अच्छी नीयत के साथ काम हो, तो भला किसे आपत्ति हो सकती है। मगर मंशा साफ न हो तो अच्छी चीजें भी प्रभावित होती ही हैं। फिल्म, कलाएं और वैचारिक संवाद चूंकि अभिव्यक्ति के माध्यम हैं और उनमें निर्माता, निर्देशक, कलाकार, लेखक, विचारक प्रयोग करते रहते हैं और उसके लिए वे खुद उत्तरदायी होते हैं।

इन अभिव्यक्तियों का मूल्यांकन उपभोक्ता की नजर करती है। इसलिए एक बड़े वर्ग का उचित तर्क होता है कि इन माध्यमों पर निगरानी रखने के बजाय इन्हें लोगों की नजर पर छोड़ देना चाहिए। फिर चूंकि इंटरनेट माध्यम किसी एक देश और सीमा से बंधे नहीं होते, इसलिए उन पर समुचित निगरानी रख पाना सरकार के लिए चुनौती भरा काम होगा।

बहुत सारी चीजों को समाज खुद नियंत्रित करता रहता है, इसलिए इंटरनेट पर परोसी जाने वाली सामग्री भी उससे दूर नहीं मानी जा सकती। फिर अदालतों में किसी आपत्तिजनक अभिव्यक्ति को चुनौती देने का रास्ता है ही। इसलिए अगर सूचना मंत्रालय साफ मन से इन माध्यमों पर निगरानी रखे तो कोई आपत्ति नहीं, पर इस अधिकार के दुरुपयोग से कैसे बचा जाए, इसका भी उपाय होना चाहिए।

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