यही वह स्थिति है जब नेता का रिमोट जनता के नहीं, भीड़ के हाथ में चला जाता है। भीड़ को साथ लेकर चलने वाला नेता खुद बहुत कमजोर होता है, लेकिन भीड़ को संभाल सकने वाला यही नेता बहुत शक्तिशाली भी होता है। इस विरोधाभासी तथ्य को समझना आवश्यक है। भीड़ नहीं तो नेता नहीं, यह नेता की कमजोरी है। इसलिए वह सच-झूठ-फरेब सब मिलाकर बातें करता है ताकि भीड़ को अपने साथ लगाए रख सके। भीड़ के समर्थन के लिए उसे भीड़ को उकसाए रखना पड़ता है, डराए रखना पड़ता है ताकि भीड़ उसे अपना मसीहा मानती रहे। खतरा हो या न हो, खतरा दिखता रहना चाहिए। लेकिन ऐसा नेता खुद में कमजोर होने के बावजूद बहुत शक्तिशाली भी होता है क्योंकि वह जनता को उकसा सकता है, बलवा करवा सकता है। यही वो मुकाम होता है जहां एक लोकप्रिय नेता इतना ताकतवर बनकर तानाशाह हो जाता है। उसके सामने फिर न संविधान बड़ा होता है न कानून, क्योंकि उग्र भीड़ अपने नेता को अड़चनें दूर करने वाले महामानव की तरह देखने लगती है और उस महामानव से असहमत होने वालों को देशद्रोही। ऐसे में लोग जनतंत्र की बहुत सी स्थापित परंपराओं को गैरजरूरी मानने लगते हैं।
उनके लिए अदालत, संविधान और कानून का कोई मतलब नहीं रह जाता। भीड़ का यह मिज़ाज लोकतंत्र को भीड़तंत्र में बदल देता है। समस्या यह है कि बहुत से बुद्धिजीवी स्वार्थवश भीड़तंत्र का समर्थन करने लगते हैं क्योंकि नेता की नज़दीकी फायदेमंद होती है, जबकि आम लोग अपने नेता को मसीहा मानकर उसकी हर सही-गलत बात का समर्थन करते हैं, उसका संदेश फैलाते हैं और उसके झूठ को भी सच साबित करने लगते हैं, उसकी हर गलती को नज़रअंदाज़ ही नहीं करते बल्कि उस गलती की सफाई में नए-नए तर्क गढ़ लेते हैं, या फिर गढ़े गए तर्कों को सही मानने लगते हैं। भीड़ का अपना नशा है। नेता के पीछे चलने वाली भीड़ नेता को महत्त्वूपर्ण बनाती है, वीआईपी बनाती है। भीड़ न हो तो नेता वीओपी, वेरी आर्डिनरी पर्सन, बनकर रह जाता है। भीड़ का यही नशा नेता से वह सब करवा लेता है जो कोई समझदार व्यक्ति अन्यथा न करना चाहेगा। सभी राजनीतिक नेता इसी मर्ज के मरीज हैं। वे अपने मन का कुछ नहीं कहते, वे वह कहते हैं जो भीड़ सुनना चाहती है, वह करते हैं जो भीड़ उनसे करवाना चाहती है। भीड़ का किस्म अलग हो सकता है, उसका चरित्र नहीं। भीड़ के लक्ष्य अलग हो सकते हैं, लड़ने का तरीका अलग हो सकता है, लेकिन भीड़ का चरित्र एक-सा होता है। वह अच्छे दिनों के सपने देखना चाहती है, नारे लगाना चाहती है, तालियां बजाना चाहती है और उत्साह में नाचना चाहती है। इसलिए नेता को मजमेबाज होना पड़ता है। फिर मजमा जमाने के लिए झूठ क्या और सच क्या? भीड़तंत्र की मानसिकता से संचालित नेता खुद भी शतरंज का मोहरा बन कर रह जाता है। भीड़तंत्र का यह गणित ही लोकतंत्र को झूठतंत्र में बदल देता है। सत्ता में आने पर नेताओं के लिए अपने वायदों को भूल जाना इसलिए आसान है क्योंकि जनता भी तालियां बजाने के बाद सब कुछ भूल जाती है। भीड़ की शक्ति होती है, चुनाव के बाद भीड़ बिखर जाती है और लोग अकेले रह जाते हैं।
भीड़ के भाड़ में तो नेता भी अकेला चना होता है, फिर आम आदमी की तो बिसात ही क्या, भीड़ के बिना वह शक्तिहीन जंतु है जिसकी कोई सुनवाई नहीं है। कोई सड़क बनाने को विकास बताने लगता है तो कोई कागजी कानून बनाकर गाल बजाने लगता है। विकास की अधकचरी योजनाओं से न देश का भला होता है, न समाज का। शिक्षा महंगी है, इलाज महंगा है, न्याय महंगा है, जीवन महंगा है, आदमी सस्ता है, मौत सस्ती है। हमारा संविधान कानूनों का जंगल है, राजनीतिक दल और वकील इसका लाभ लेते हैं। हमारा संविधान राजनीतिक दलों को बहुत सी अनुचित सुविधाएं देता है, नौकरशाही को असीमित अधिकार देता है, जवाबदेही से बचने की पतली गलियां उपलब्ध करवाता है और हम इस संविधान की धाराओं-उपधाराओं को समझे बिना संविधान के गुण गाते हैं। एक समाज के रूप में हम सच कहने और सुनने की कूव्वत और हिम्मत गंवा चुके हैं। इसीलिए हम विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने के बावजूद विकसित नहीं, सिर्फ विकासशील हैं। अब हमें तय करना है कि हम झूठतंत्र में जीना चाहते हैं या लोकतंत्र को सफल बनाना चाहते हैं। यह तय करना नेताओं का काम नहीं है, इसे जनता तय करेगी, हम तय करेंगे या फिर वंचनाओं में ही जीते रहेंगे। भीड़ का हीरो बनना अच्छा है जब भीड़ को सही दिशा दी जाए और उसे जागरूक नागरिक बनाया जाए, पर यहां असहमत होने वाले लोगों को न केवल अपमानित किया जा रहा है बल्कि उन्हें देशद्रोही भी बताया जा रहा है, तो रास्ता यही है कि खुद हमें ही जागरूक रहना होगा कि हम नेताओं के चंगुल में न फंसें, भीड़ का हिस्सा न बनें, बल्कि जागरूक नागरिक बनें, नेताओं से सवाल पूछें, सही सवाल पूछें, और तोल-परख कर निर्णय लें। इसी में लोकतंत्र का भला है, देश का भला है।
पी. के. खुराना
राजनीतिक रणनीतिकार
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