मिशन रिपीट बनाम सुशासन

हिमाचल के राजनीतिक, प्रशासनिक, सामाजिक व आर्थिक इतिहास में मिशन रिपीट का नारा सुशासन पर भारी पड़ने लगा है

Update: 2021-11-16 04:36 GMT

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हिमाचल के राजनीतिक, प्रशासनिक, सामाजिक व आर्थिक इतिहास में मिशन रिपीट का नारा सुशासन पर भारी पड़ने लगा है। मिशन रिपीट के मोड में सरकारों पर नेता और बजट पर फिजूलखर्ची हावी हो रही है। सरकारें आपस में किसी राजनीतिक सौंदर्य प्रतियोगिता के मानिंद एक दूसरे से बेहतर दिखने की होड़ में प्रदेश के मूल मुद्दों, आर्थिक आधार और प्रशासनिक सुधारों के प्रश्न पर गौण हो रही हैं। अब तो ऐसा लगता है कि हिमाचल में सरकारें किसी नृत्यांगना की मोहिनी सूरत में अपने पांव में घुंघरू बांध कर नाचती हैं और इसके लाभार्थी प्रथम चार वर्ष वाहवाही में गुजार देते हैं, जबकि अंतिम वर्ष की रगड़ में यही घुंघरू कमोबेश हर सरकार को घायल कर देते हंै। प्रदेश को आगे बढ़ाने का मॉडल ही अगर मिशन रिपीट है, तो सरकार की कार्य संस्कृति को कौन सुधारेगा। कौन यह तय करेगा कि भरमौर और सिरमौर के बीच किस तरह विकास की एकरूपता आ सकती है। नीतियों के ही प्रकाश में देखें तो सारा प्रदेश एक जैसा नहीं लगता। प्रगति के नजरिए से ही देखें तो राज्य ने शिक्षा या चिकित्सा क्षेत्र को मिशन रिपीट की कलगी में देखते-देखते इन्हें औचित्यहीन व अप्रासंगिक बना दिया। यह सरकारों के गठन से शुरू होता सिलसिला है जो हर सत्ता को चुनावों की दिशा में अग्रसर करने के लिए, प्रदेश के बजट को कंगाली व बदहाली में देख कर भी कोफ्त महसूस नहीं करता।
अगर वाईएस परमार ने प्रदेश के प्राकृतिक संसाधनों में आत्मनिर्भरता को निहारते हुए कदम लिए तो शांता कुमार की अल्पकालीन सरकारों ने प्रदेश के खजाने का दर्द समझते हुए हिमाचली अधिकारों को जागृत करते हुए विद्युत उत्पादन क्षेत्र में 12 प्रतिशत मुफ्त बिजली हासिल की। नो वर्क नो पे का सिद्धांत किसी मिशन रिपीट की छांव में नहीं पल सकता था। अब तो हिमाचल में पांचवें साल की घुड़की में लंगर लग जाते हैं और सरकार भी चुनाव को बरसात समझकर इतनी दयालु हो जाती है कि वित्तीय बर्बादी भी नगाड़े बजा कर होती है। मसलन कर्मचारियों को इतना दे दो कि लगे सरकार की कृपा दृष्टि उन्हीं पर है। घोषणाओं को इतना बेपर्दा कर दो कि गांव दर गांव कालेज और शहर दर शहर मेडिकल कालेज व विश्वविद्यालयों से भर दो। दरअसल पिछले दो दशकों से हर सरकार मनोवैज्ञानिक दृष्टि से कमजोर रही और सरकारों के भीतर ओहदे कमजोर होने से कहीं अधिक भय से ग्रस्त होने लगे। सरकारों में अब कोई नहीं चाहता कि परमार या शांताकुमार बनकर विपरीत धाराओं पर सवार हुआ जाए। निर्णय यही कि अनिर्णायक बनकर कुछ ऐसे फैसले किए जाएं जो केवल दिखें। इसलिए हर मंत्री केवल अपने ही विधानसभा क्षेत्र की परिक्रमा में यह भूल जाता है कि उसका विभाग प्रदेश के लिए क्या कर सकता है। वर्तमान दौर में अगर भाजपा चार उपचुनाव हार जाती है, तो यह मिशन रिपीट के सोच की हार है, जहां सारे मंत्री फेल और सत्ता असफल नजर आती है। हार की खाक छान रही भाजपा अगर प्रदेश के हर मंत्री से पूछे कि उसकी नीतियों के खाके में 68 विधानसभाओं ने क्या किया, तो मालूम हो जाएगा कि सरकार की ताकत किस तरह की छननी सोच से निकल रही है।
इसी तरह आगामी कोर ग्रुप की बैठक अपने तमाम विधायकों और हारे हुए नेताओं से पूछे कि सत्ता उनके नजदीक किस तरह के कार्यक्रमों की पेशकश रही, तो मालूम हो जाएगा कि मिशन रिपीट का रिसाव किस तरह आचरण का ही रिसाव बन गया है। क्या पिछले कुछ सालों से कमोबेश हर पार्टी ने अपनी सरकारों को पुष्ट किया या सत्ता की सच्चाई में कुछ नेता प्रभावी हो गए। यह कांग्रेस और भाजपा के बीच एक समान जारी है। सचिवालय की शिथिलता की वजह मंत्री व नौकरशाह बन रहे हैं। सरकारों के हाथ कारगर नीतियां बनाने, लक्ष्य निर्धारित करने या समूचे प्रदेश को एक नजर से देखने में क्यों कांपने लगे। स्थानांतरण नीति या नियम न होने की वजह से कभी प्रशासनिक ट्रिब्यूनल या कभी अदालत तक पकती खिचड़ी में अंततः सुशासन ही बदबूदार हो गया। सरकारों के कान में नौकरशाह वे सब सुनाने लगे हैं, जो सत्ता को सुनना नहीं चाहिए और कर्मचारी वर्ग वह सब भुनाने लगा है, जो संसाधन विहीन राज्य की औकात नहीं। औकात हासिल करने के दो पहलू हैं। राज्य के सापेक्ष सत्ता को खड़ा करना या सत्ता के दम पर खुद को बुलंद करना। सत्ता के कानों का आपरेशन करने के लिए हिमाचल में एक स्वतंत्र वित्त मंत्री व उपमुख्यमंत्री जैसे पदों का अलंकरण जरूरी है, जबकि सुशासन के लिए मिशन रिपीट की मानसिकता से हटकर सरकारों को सशक्त और कड़क अंदाज में फैसले लेने होंगे। चुनाव पुचकारने से नहीं जीते जाते। जिस राज्य में मध्यमवर्ग का बोलबाला हो, वहां सुशासन का नापतोल ही तो होगा।
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